दूसरों की मजबूरियां दो कौड़ी में खरीदने में सुब्रत राय को महारत है

मेरा कोना

: नौकरी मिली तो मछली-भात, और बेरोजागार हुए तो क्रांति-कामी : मुझे गर्व है कि दिग्गजों ने मेरे भविष्य की दिशा तय की : नंगे अवधूत की डायरी पर दर्ज हैं सुनहरे दर्ज चार बरस ( दो ) :

कुमार सौवीर

लखनऊ : साप्ताहिक शान-ए-सहारा अखबार के लिए आफिस खोजने के लिए दो दिनों में ही मैंने सात मकान छान मारे। अपनी टुटही लेडीज साइकिल के बल पर। तडि़त दादा तो कुछ देर के लिए सुब्रत राय के अलीगंज वाले मकान में कुछ देर के लिए ही आते थे, फिर बाकी अपने घर में ही। दरअसल, खाली वक्त में दादा को मछली की याद सबसे ज्यादा सताती थी ना, इसीलिए। और दादा की खासियत यह है कि वे खाली वक्त तब ही पाते हैं, जब नौकरी उनके हाथ में होती है। नौकरी मिली तो मछली-भात, और जब बेरोजगारी मिली तो क्रान्तिकारिता। लेकिन हम लोगों के प्रति दादा ही नहीं, पूरा परिवार भी स्नेह-प्यार की वर्षा करता था। मैं भी खाली ही था, न घर-बार न परिवार। सो, ज्यादातर वक्ता दादा की सेवा में ही रहता था मैं।

खैर, महानगर के एच-रोड स्थित एक मकान हम लोगों ने खोजा और तय किया। कुल जमा तीन कमरे थे, एक किचन-बाथ सहित। मैंने दादा को दिखाया, फाइनल किया और पजेशन ले लिया। तब तक एक नया जोशीला लड़का भी हम लोगों में जुट गया। नाम था अचिन्त्य अधिकारी। वह बंगाली था। न उसके पास कोई ठिकाना और न मेरा। सो, इसी आफिस में हम दोनों का डेरा पड़ा। तीन महीनों के भीतर सम्पा‍दकीय सहयोगियों का चयन हो गया और उनकी कुर्सियां पड़ गयीं। डमी की तैयारी होने लगी। तब तक श्याम अंकुरम को भी कॉपी-होल्डार के पद पर तैनाती मिल गयी।

इसी बीच हीवेट रोड पर एक नया प्रेस मिल गया सहारा को। नाम था कीर्ति प्रेस। इसके मालिक के पिता ने बेहिसाब मेहनत-निष्ठा के साथ यह प्रेस खड़ा किया था और उसका नाम अपने बेटे कीर्ति बनर्जी के नाम पर रखा था। यह प्रेस प्रिंट-जगत में बहुत बड़ा नाम था। लेकिन इस बंगाली ने उसे तबाह कर दिया। कीर्ति बनर्जी को दुनिया भर के शौक थे, और उसी में कीर्ति की साख बह गयी। फिर उन्होंने सुब्रत राय के यहां नौकरी कर ली और यह प्रेस सहारा ने किराये पर ले लिया। तब तक सुब्रत राय की छवि बन चुकी थी कि वे अपने लोगों की कमियों को कौडि़यों में खरीद लेते हैं।

खास बड़ा था इसका परिसर। अखबार का दफ्तर इसी में खुला। अब तक इसमें आनन्दस्वरूप वर्मा और उर्मिलेश जैसे लोग जुड़ चुके थे। उर्मिलेश तो दिल्ली सम्भाल रहे थे, जबकि आनन्दस्वरूप वर्मा जी लखनऊ पधारे। सहारा ने दादा और वर्मा जी को एक-एक मकान और स्कूटर की सुविधा दे दी थी। इन दोनों का आवास अलीगंज के सेक्टर-डी में ही था। करीब-करीब एक-दूसरे के आसपास ही। वर्मा जी ने अपने नोएडा वाले मकान सहारा को किराये पर गेस्ट हाउस के तौर पर दे दिया था।

अब आइये, मैं आपको बताता हूं कि इस अखबार में वेतन-स्ट्रक्चर क्या था। तडि़त दादा का वेतन ढाई हजार, वर्मा जी का डेढ़ हजार, रिपोर्टर और डेस्क वालों का साढे़ छह से लेकर 12 सौ रूपये तक। इनमें रामेश्वर पाण्डेय, विनय श्रीकर, वीरेंद्र सेंगर, कमलेश त्रिपाठी, घनश्याम दुबे, अभय दुबे, उर्मिलेश, विनय सिंह, दिनेश दीनू, आदियोग वगैरह आदि शामिल थे। उल्लेखनीय है कि तडि़त दादा ने अपने गोरखपुर के अधिकांश अपने साथी-संगियों को इस अखबार में खपाया था। इनमें आनंदस्वरूप, कमलेश त्रिपाठी, रामेश्वर पाण्डेय और एक दुबे जी थे, जो उनके साथ गोरखपुर के वक्त के साथी रहे थे। तडि़त दादा ने अपनी बिजूखा नामक अपनी किताब में शायद इन्हीं दुबे जी का जिक्र पूरे सम्मान के साथ लिया है। मेरा दावा है कि उनका यह सलेक्शन पूरी की पूरी मेरिट पर था, सिर्फ दोस्ती या सिफारिश के बल पर नहीं।

शान-ए-सहारा साप्‍ताहिक के

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नंगा अवधूत

वजह यही रही कि इन लोगों ने मेरा ज्ञानार्जन भी कराया। खूब कराया। मसलन आनंदस्वरूप वर्मा ने मेरी रूचि को समझा और मुझे कई विदेशी पत्रिका के लेखों का ट्रांसलेशन कराने का जिम्मा दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने फिजी में वहां के राष्ट्रपति महेंद्र चौधरी के मामले पर बारीकी जानकारियां दीं। मसलन, वहां का जेवेल आन्दोलन। अमेरिका में गर्भपात विषयों पर न्यूजवीक जैसी गंभीर पत्रिकाओं पर छपी रिपोर्ट भी उन्होंने अनूदित करायीं। नाथूराम गोडसे ने एक किताब के हाशियों पर कुछ टिप्पणी लिखी थीं। फांसी की कोठरी में बंद गोडसे का जस्टिफिकेशन भरा सवाल था:- ह्वाई आई शॉट गांधी। इस का अनुवाद वर्मा जी ने मुझसे कराया। तीन दिन में मैंने यह अनुवाद कर डाला। वर्मा जी खुश हुए और मेरी मेहनत की बहुत प्रशंस की। उन्होंने उसे कम्पोजिंग के लिए भेज दिया। अगले दिन उसकी कॉपी मिल गयी तो वर्मा जी ने उसे अगले अंक के लिए पास कर दिया। लेकिन इसे दुर्भाग्य ही तो कहा जाएगा कि दो दिन बाद ही इन्दिरा गांधी की हत्या हो गयी और मेरी मेहनत गोडसी-प्रवृत्ति पर बलि हो गयी।

उधर रामेश्वर पाण्डेय ने मुझे हावर्ड फ्रास्ट की किताब पढ़ने की सिफारिश की जिसका नाम था आदि-विद्रोही। मूल ग्लैडियेटर का अनुवाद किया था अमृत राय ने। ऐसे कई मसलों-किताबों पर यह दोनों ही लोग मेरे साथ कुछ न कुछ समय दे देते थे। मुझे गर्व है कि मुझ जैसे होटलों में बर्तन धोने वाले, वेटरी करने वाले और रिक्शा-चालक से अपना पेट भरने वाले शख्स को इन महानतम लोगों ने मुझे स्नेह दिया, दिशा दी। हां, मुझे इस बात का भी खुद पर गर्व है कि मैंने कभी विधिवत स्‍कूलिंग न करने के बावजूद हर सकारात्मक पक्षों से सीखा और समझा। अंग्रेजी को पढ़ना और समझना मेरे लिए बहुत कष्टकारी हुआ करता था, लेकिन वर्मा जी ने मुझे पहली बार मुझे अनुवादक के तौर पर पहचान दिलायी। आपको एक जानकारी देना चाहता हूं कि आज भी मैं अंग्रेजी लिखने की तमीज नहीं रखता हूं।

खैर, तो शान-ए-सहारा में मेरा व श्याम अंकुरम में से प्रत्येक का 315, कम्पोजीटर्स का वेतन 90 से लेकर 175 तक। सुपरवाइजर का वेतन था 700 और चपरासी का वेतन 125 रूपये। बस। जीवन इसी में चल रहा था। आपको तो खैर पता ही होगा कि यह वह दौर था जब गोर्बाचोफ और उसके बाद की संततियों तक ने ग्लास्तनोस्त और पेरिस्त्रोइका जैसे शब्दों की भाव-भंगिमा को न खोजा था, न समझा था और न कभी पहचाना था।

दिसम्बर-82 तक यह अखबार शुरू हो गया और अगले साल तक हिन्दी बेल्ट‍ में इसने अपना डंका बजाना शुरू कर दिया। प्रिंट-लाइन में टीके चटर्जी का नाम दो बार छपता था। मगर प्रबन्ध सम्पादक के तौर पर सुब्रत राय के भाई जयब्रत राय का नाम छपता था। संयुक्त सम्पादक थे आनन्द स्वरूप वर्मा और उसके बाद सारे सम्पादकीय व रिपोर्टर्स नाम भी छपता था। हमारा और श्याम का नाम नहीं छपता था।

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