श्रमिकों के तेवर के सामने सुब्रत राय की अकड़-फूं निकल गयी

मेरा कोना

सुब्रत राय का इलाज या तो मजदूर होते हैं, या फिर सुप्रीम कोर्ट

नंगे अवधूत की डायरी पर दर्ज हैं सुनहरे चार बरस ( एक )

चुटकियों में निपट गया साप्ताहिक शान-ए-सहारा का झंझट

कुमार सौवीर

लखनऊ : सुब्रत राय और सहारा इंडिया का यह सिर्फ किस्सा ही नहीं है, एक खबर की मुकम्मल पंच-लाइनें हैं। इसे समझने के लिए आपको देखना होगा कि अपना चेहरा काला करने वाले लोग अपनी हराम की कमाई को फंसते देख कर कैसे चुप्पी साध लेते हैं, जबकि खून-पसीने की गाढ़ी कमाई को वापस हासिल करने वाला श्रमिक जब अपनी औकात पर उतरता है, तो कयामत की तरह कहर तोड़ देता है। जी हां, मैं सहारा इंडिया और सुब्रत राय के ही बारे में बात कर रहा हूं, जब श्रमिकों के तेवर के सामने सुब्रत राय की अकड़-फूं निकल गयी थी। श्रमिकों ने जब भी, तनिक सी भी तेवर-त्योरी चढायी, सुब्रत राय ने बाकायदा आत्म समर्पण कर दिया।

यह मामला है अप्रैल-85 से लेकर मार्च-86 तक का। लेकिन शुरूआत हुई थी 2 जून-82 से। उस वक्त मैं सहारा इंडिया के शान-ए-सहारा नामक साप्ताहिक अखबार में काम करता था। यहां चपरासी से लेकर सम्पादक तक लोग श्रमिक-हितकारी बुद्धि और जीवट के लोग थे, मगर जब श्रमिकों का गुस्सा भड़का कि सारे दिग्गजों में से अपनी-अपनी पूछें अपनी पिछली टांगों में घुसेड़ लिया। कोई भी सामने नहीं फटका। और जो सुब्रत राय 24 हजार करोड़ की हेराफेरी के आरोप में तिहाड़ जेल में पसीना बहा रहे हैं, वह उस समय हम लोगों के हर कदम पर शीश झुकाया करते थे।

तो, शुरूआत हो गयी 2-जून-82 में। मैंने हाईस्कूाल की परीक्षा दी थी। प्राइवेट। इसके पहले होटल-चाकरी और रिक्शा–चालन वगैरह के बल पर पेट भरने के चक्कर में स्कूल में पढ़ने का मौका ही नहीं मिल पाया था। खैर, यह लम्बा किस्सा है। उस पर बाद में बातचीत होगी। फुरसत में। मौका मिला और क्षमता हासिल हुई तो बाकायदा किताब छपवा दूंगा यार। खैर…।

मई-82 में हाईस्कूल की परीक्षा दी थी। रिजल्ट आने ही वाला था। इसके पहले में आईपीएफ और उसके बाद जन संस्कृति मंच वगैरह से जुड़ा हुआ था। रवींद्रालय समेत कई थियेटरों में मंच व क्रांतिकारी नुक्कड़-नाटकों में प्रमुख भूमिका निभाता था। जिलों से लेकर दिल्ली तक अपना डमरू बजा चुका था। वगैरह-वगैरह। हमारे नेता थे हमारे मंझले भाई आदियोग, और सहयोगी थे अनिल सिन्हा, सुप्रिय लखनपाल, नीरज सिन्हा, पुच्चन यानी प्रवीण तिवारी, हरीकृष्ण मिश्र, नीरज मिश्र, दिल्ली में पत्रकारिता कर रहे अतुल सिन्हा भी हमारे साथ थे, जो मूलत: पटना के हैं और पुण्य-आत्मा अनिल सिन्हा के छोटे भाई हैं। पत्रकार अजय सिंह और अनिल सिन्हा जैसे लोग मेरा हौसला बढ़ाते रहते थे। बाद में जुटे गोंडा के श्यारम अंकुरम, चक्रधर और कृष्ण्कान्त धर द्विवेदी, डा एसपी मिश्र, लाल साहब, वगैरह-वगैरह।

इसी आबोहवा में तडि़त कुमार से भेंट हो गयी। तब तडि़त कुमार यानी टीके चटर्जी तब बहुत सरल हुआ करते थे। बंगालियों पर मजाक करने और बंकिमचन्द्र  की आनन्द मठ जैसी किताब को कचरा घोषित करने की हैसियत किसी भी बंगाली में नहीं होती, लेकिन तडि़त दादा अपवाद थे। उनकी किताब बिजूखा बांचिये ना। कविता में उनकी असीमित तिक्तता-तीव्रता थी। इसीलिए मैं आज तक उनका स्मरण पूरी श्रद्धा के साथ करता हूं। मैं मानता हूं कि बाद के वक्त में बेरोजगारी के भय और मुकम्मल बेरोजगारी ने उनके व्यवहार को काफी तोड़ा-मरोड़ा और मसला भी। जमकर। उनकी कविताएं किसी भी बदलाव-कामी युवक की भींगती मसों को मरोड़ सकती थीं।

हजरतगंज में ही हुई थी तडि़त कुमार जी से भेंट। फुटपाथ पर। साथ में श्याम अंकुरम भी था। गोंडा का रहने वाला यह बागी ठाकुर क्रान्तिकारी चेहरे के साथ था। अराजक बढ़ी दाढी, मुक्तिबोध समेत वामपंथी किताबों का तिलचट्टा, मोहब्बत में मैं उसे मरकस-बाबा कहता था। यानी मार्क्स-बाबा। उसके गले भर तक आक्रोश भरा था, लेकिन पेट हमेशा खराब। भोज्य पदार्थों को प्राण-घातक गैस में तब्दील करने में मानो उसमें अद्भुत महारत थी।

चूंकि मैं नाटकों में काम करता रहता था, इसीलिए तडि़त कुमार जी ने मुझे फौरन पहचान लिया। हम दोनों ही लोग बेरोजगार थे। बातचीत बढ़ी तो दादा ने कहा:- कुमार सौवीर को तो मैं फौरन ले सकता हूं, लेकिन श्याम को अभी तीन-चार महीने का वक्त लगेगा। दरअसल, तडि़त दादा को एक ऐसा शख्स चाहिए था जो उनके अखबार के आफिस वगैरह खोजने-व्यवस्थित करा सके। मैं गजब का उत्साहित आदमी-नुमा श्रमिक रहा हूं, कभी भी न का नाम मेरी जुबान से नहीं मिलता था, जब तक अगला आदमी बदतमीजी पर आमादा न हो जाए। लेकिन यह सीमा टूटते ही मैं किसी पर भी टूट पड़ सकता हूं। आज तक यह आदत अब तक मौजूद है। और यह हुनर श्या़म अंकुरम के पास नहीं था। वह पक्का ठाकुरवादी कम्युनिस्ट था, वह अपनी अक्खड़ई को केवल असह्य बदबू में ही तब्दी‍ल कर सकता था।

दो दिन बाद ही सहारा इंडिया के लालबाग स्थित कमांड आफिस में मेरा साक्षात्कार हुआ। साक्षात्कार वाले कमरे में कई लोग मौजूद थे। उन लोगों ने मुझसे कई बातें पूछीं, मैंने सहजता से जवाब दिया। इसी बीच ओपी श्रीवास्तव नामक एक निदेशक ने खेल के बारे में बात कीं।

मैंने कहा: मैं जूडो खेलता हूं।

सवाल उठा: कैसे खेलते हैं यह खेल ?

मैं उठ खड़ा हुआ और बोला: आप सामने आइये, अभी दिखा देता हूं।

श्रीवास्त़व जी सकपका गये। लेकिन कमरे में ठहाके जमकर लगे।

यह मध्य -82 की बात है और मैंने 2 जून-82 को सहारा इंडिया के शान-ए-सहारा में ज्वाइन कर लिया। पद था कॉपी-होल्डर। मतलब काम प्रूफ-रीडर का, मगर पद थोड़ा इन्फीरियर। आज के अखबारी जगत ने तो प्रूफ-रीडर के पद की अन्येष्टि कर दी है, लेकिन तब वह दौर भी था जब इण्डिया-टुडे जैसी पत्रिकाओं के प्रिण्ट-लाइन में प्रूफ-रीडर का नाम भी छपता था।

खैर, मेरा वेतन तय हुआ 315 रूपया महीना। अपॉइंटमेंट लेटर पर सुब्रत राय का हस्ताक्षर था। बेहद हसीन हस्ताक्षर। जैसे मेरे बचपन की किसी सपनीली मोहब्बत की तरह नाजुक और आकर्षक।

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