काशी: अमृतपान से देवता निर्वंश, बचे शंकर के गण

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नदी का भी हाजमा होता है, गंगा का खराब है

: जूझने की जिजीविषा भानुशंकर के वृद्ध चेहरे पर युवा है : छह हजार साल की उम्र हासिल कर चुकी जीवनदायिनी गंगा अब खतरे में : बैक्टीरिया के साथ चली गयीं कई बीमारियां, अब वायरल का तहलका मचा :

कुमार सौवीर

वाराणसी : उनकी जिंदगी जेहाद छेड़ते ही बीती। कभी रोगों को पहचानने का जेहाद, कभी रोगों से जूझने का जेहाद, तो कभी पूरे चिकित्सकीय क्षेत्र को उसकी गरिमा बरकरार रखने का जेहाद छेड़ा। अपने अभियान के तहत रास्ता तलाशने के लिए वे कभी पैथालॉजी की लैब में सवालों का हल खोजते रहे और जब जरूरत पड़ी तो कलम उठा कर समाज के जागरूक सिपाही भी बन गये। उन्होंने कभी काशी की गौरवमयी धार्मिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक धरोहरों को अक्षुण्ण रखने का जेहाद छेड़ दिया, तो कभी दूसरे सामाजिक मुद्दोंपर सवालों का जवाब खोजने बैठ गये। उन्होंने कभी व्यवस्था के मूलभूत दोषों को दूर करने का अभियान छेड़ा तो कभी गंगा को असमय काल-कलवित होने से रोकने का संकल्प उठा लिया। अपने जीवन में उन्होंने जो चाहा, किया। और यही कारण है कि जूझने की जिजीविषा उनके वृद्घ चेहरे पर आज भी पूरे यौवन पर है।

भानुशंकर के पिता मनीलाल बच्छराजानी तो एक जुझारू संस्कृत शिक्षक थे। जो गुजरात के जामनगर से काशी संस्कृत पढने आये थे। कई जगह विद्यालयों में नौकरी की और अंततः काशी में ही बस गये। उन्हीं की संतान हैं भानुशंकर। सन 1921 की 25 मई को जौनपुर में पुलिस कप्तान की कोठी में पैदा हुए। अपने नाना के घर। लेकिन पिता की परंपरा छोड़ कर सन 47 में लखनऊ से एमबीबीएस किया और यहां के प्रख्यात डाक्टर एसपी घोषाल द्वारा स्थापित पैथालॉजी क्लीनिक में काम शुरू कर दिया। अचानक डा घोषाल हमेशा के लिए कलकत्ता चले गये तो वह क्लीनिक मेहता पैथालॉजी बन गया। सन 56 में पैथालॉजी में विशेषज्ञता का डिप्लोमा भी हासिल कर लिया। हालांकि इसके पहले ही सन 42 में साहित्य सम्मेलन से साहित्य विशारद की डिग्री ले चुके थे।

तब चिकित्सा क्षेत्र में सिविल सर्जन ही जिले का सबसे बड़ा अफसर हुआ करता था। लेकिन यह अराजकता थी। तब नाक और कांख का डाक्टर अथवा कोई जनरल फिजीशियन भी सिविल सर्जन बन सकता था। यह बात भानुशंकर को अखरी। कमलापति त्रिपाठी के भाई डा कोशलपति त्रिपाठी भी इसी तेवर के थे। दोनों ने झंडा उठाया और सीधे मुख्यमंत्री चंद्रभानु गुप्ता के पास  जा पहुंचे। अपनी बात कही। और हैरत की जल्दी ही सिविल सर्जन के बजाय मुख्य चिकित्साधिकारी का पद बन गया। आज वे पैथालॉजी में शहर के एकमात्र वरिष्ठ डाक्टर हैं। बहरहाल, अपने बेटे संजय को पैथालॉजी की दूकान सौंप कर अब वे साहित्य साधना में हैं। लेखन के क्षेत्र में प्रख्यात पत्रकार अशोक जी ही उन्हें खींच लाये थे।

डा मेहता बताते हैं कि साइंस में हर साल होने वाले बदलावों ने मलेरिया को काफी नियंत्रित कर लिया। कालाजार, छोटी माता, प्लेग और कालरा आदि अब खत्म हो गये हैं। इनके बैक्टीरिया समाप्त से हो गये हैं। पहले यह महामारी के तौर पर आते थे। लेकिन अब दौर है वारयल का। इसने नये रोग दिये। अकेला पीलिया ही कई घातक-मारक श्रेणियों में मौजूद है। उनका कहना है कि जन्म-मृत्यु के बीच के अंतर को घटा कर हालात बिगाड़ दिये गये हैं। पचास साल पहले तक एक हजार की आबादी पर 40 मौतों और इतने ही जन्म का औसत था। औसत आयु 28 से बढ कर 62 तक पहुंच गयी। वे उसे कुछ इस तरह व्याख्यायित करते हैं। वृद्धों को तो जाना ही चाहिए, नयी कोपलों को मौका देने के लिए। ( शेष अगले अंक में )

डॉक्टर भानुशंकर मेहता पर प्रकाशित रिपोर्ट के अगले अंक को देखने के लिए कृपया क्लिक करें:- 6 हजार साल की उम्र हासिल कर चुकी है जीवनदायिनी गंगा

 

  1. यदि आप वाराणसी की विभूतियों वाली सीरीज को देखना-पढ़ना चाहें तो कृपया क्लिक करें:- लीजेंड्स ऑफ बनारस

 

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