पत्रकारिता में खोखले सुरंग-जीवीयों को करीब से देखा मैंने

मेरा कोना

: पत्रकारिता के बड़े पदों को छेंके हुए ओछे बौने लोग : मौका मिलते ही पाखण्डी बन जाते हैं आदर्श बघारते लोग : नंगे अवधूत की डायरी पर दर्ज हैं सुनहरे चार बरस ( तीन ) :

कुमार सौवीर

लखनऊ : आपको एक बात बता दूं कि इस पूरे अखबार में सुब्रत राय ने एक बार भी हस्तक्षेप नहीं किया। हां, एक बार सुब्रत राय के नाम से एक पत्र जरूर प्रकाशित हुआ। पूरे दौरान केवल तीन बार ही प्रेस में आये और बारीकी से यहां को देखा-समझा।

लेकिन ऐसा नहीं है कि यह अखबार पूरी तरह शांत रहा था। गुटबाजी और तेल लगाने की परम्परा यहां पनप गयी। मसलन, सन-84 में इंटर की परीक्षाओं के दौर में मेरे दाहिने हाथ पर तेल खौलती कटोरी गिर गयी थी। बड़ा फफोला पड़ गया था। बेहिसाब जलन थी। उसी हालत में मुझे एक राइटर देकर परीक्षा करायी गयी। अगले दिन जब परीक्षा देकर मैं आफिस पहुंचा, तो काम करने के बीच ही मुझे झपकी आ गयी। कि अचानक सुब्रत राय मुआयने पर पहुंचे। मैं कुर्सी की पुश्त पर टेक लगाये हुए था। सुब्रत राय ने कंधे पर हाथ रखा तो मैं जाग गया। चूंकि मैं यहां का पहला कर्मचारी था, इसीलिए वे मुझे खूब पहचानते थे। मुझसे पूछा: सौवीर, यह सोने की जगह है क्या  ?

मैंने अपने दाहिने हाथ पर पड़े गमछे को हटाया तो सुब्रत राय चौंक पड़े। वहां मौजूद तडि़त दादा आदि लोगों से कहा कि:- दादा, आप लोग इन लोगों का भी ध्यान रखा कीजिए। जाओ, तुम कुछ दिन की छुट्टी ले लो।

मुझे सुब्रत राय की यह शैली मुझे बहुत अच्छी। लगी। लेकिन अभी जब मैं खुश ही रहा था कि अचानक सुपरवाइजर हरीओम कनौजिया ने एक नोटिस थमा दी। इसमें लिखा था कि सुब्रत राय के अचानक मुआयने के मौके पर कुर्सी पर सोते हुए पाये जाने पर आपके खिलाफ क्यों न गम्भीर कार्रवाई की जाए। हैरत की बात यह कि नोटिस तडि़त दादा की ओर से जारी किया गया था। मैंने जो कुछ भी हुआ था, लिख कर दे दिया और साथ ही लिख दिया कि सुब्रत राय को इस घटना का संज्ञान है और तडि़त दादा अगर चाहें तो उसकी पुष्टि सुब्रत राय से करा सकते हैं।

मगर हैरत की बात है कि इसके बाद से ही तडि़त जी और वर्मा जी का व्यवहार मेरे खिलाफ सख्त हो गया। इसके पहले मेरी कई रिपोर्ट्स अक्सर छपी रहती थीं, लेकिन उसके बाद से यह सुविधा बंद हो गयी। नतीजा, मैंने कई प्रमुख घटनाओं की रिपोर्ट्स लिखी और उसे सीधे नवभारत टाइम्स और अमर उजाला जैसे अखबारों में दे दिया। नवभारत टाइम्स में कमर वहीद नकवी और अमर उजाला में थे वीरेन डंगवाल। बेहद आत्मीय शख्सियतें। उस समय नवभारत टाइम्स में फीचर प्रभारी थे कमर वहीद नकवी। वे भी मुझे स्नेह करते थे और मेरी ऐसी सारी रिपोर्ट्स को उन्होंने बाकायदा सम्मान के साथ छापा। आज दैनिक ट्रिब्यून के समूह सम्पादक सन्तोष तिवारी जी तब दिनमान में थे। उन्होंने तो मुझे सांस्कृतिक गतिविधियों का नियमित लेखक बना डाला था।

इसी बीच सन-84 में अचानक बहराइच जिला मुख्यालय स्थित बच्चों की जेल में बच्चों ने आगजनी की थी। इन बच्चों ने इस बच्चा-जेल के कर्मचारियों को जमकर पीटा और जेल तोड़कर भाग गये थे, इसकी खबर मुझे शाम को ही मिल गयी। पता चला कि इस बच्चा‍-जेल का अधीक्षक कोई त्रिपाठी था, जो यहां के बच्चों के साथ समलैंगिक-रिश्ते बनाता था। त्रिपाठी ने जिले के कई बड़े जजों-अफसरों के ऐसे शौक के लिए लड़के मुहैया करा रखे थे। कई बड़े पैसावाले लोग भी इसी त्रिपाठी के लिए यह धंधा कराते थे। मैंने एक अखबारी टैक्सी पकड़ा और सुबह-सुबह बहराइच पहुंच गया। पता चला कि एक फोटोग्राफर ने उसका कवरेज किया था। मैंने उससे रील हासिल कर ली। शाम तक काम किया और अगले सुबह स्क्रिप्ट दादा के हवाले किया। मगर दादा का मूड बिगड़ गया। बोले: तुम किससे पूछ कर बहराइच गये थे ?

मैंने जवाब दिया: कल मेरी छुट्टी थी।

दादा बहुत बिफरे और बोले: मैं एक रिपोर्टर बहराइच भेज रहा हूं और उसकी ही रिपोर्ट छपेगी, तुम्हारी नहीं।

लंच टाइम मैं कमर वहीद नकवी के आफिस पहुंचा। तब वे हस्तक्षेप नामक पेज भी तैयार करते थे। चार-पांच दिन बाद ही यह पेज लगना था, लेकिन उन्होंने गजब दिमाग लगाया और 14 नवम्बर को हस्तक्षेप पेज बनाकर मेरी खबर छाप दी। पेज पर बैनर। मय फोटो। खबर का शीर्षक लगाया: सवाल, जो पूरी शिद्दत के साथ जवाब चाहता है।

इतना ही नहीं, श्याम अंकुरम ने एक व्यंग्य लिखा था, उसे हमारे नियंताओं ने बकवास बताते हुए मेज पर फेंक दिया। यह अपमान था, वह परेशान हो गया। मैंने सलाह देकर उसे अमृतप्रभात के विनोद श्रीवास्तव के पास जाने को कहा। मजेदार बात यह कि विनोद जी ने अपने अगले रविवारीय अंक के प्रथम पृष्ठ पर छाप दिया। और उसका पारिश्रमिक उसे 35 रूपया मिला। पैसा की बात उतनी बड़ी नहीं थी, उसका छपा नाम देख कर वह उचककर बजरंग-बली हो गया।

यह बातें हमारे संस्थान में लगातार खटकती जा रही थीं। दरअसल, हम लोग चाहते थे कि हमें भी लिखने का मौका मिले, लेकिन हमें लद्दू-गदहा बनाने पर मजबूर किया जा रहा था। हम पर ऐतराज होने लगा कि हम लोग बाहर के अखबारों में नहीं लिख सकते। मैंने ऐतराज किया कि आखिर क्यों नही लिख सकते हैं। यह तो दादागिरी है कि आप न तो छापेंगे और जब कहीं और छपेगा तो उस पर ऐतराज करेंगे। मगर उनका ऐतराज बना रहा और हमारा रवैया भी उसी तर्ज पर स्टैंड करता रहा।

हैरत की बात है कि सम्पादकीय लोगों ने हम लोगों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। अक्सर हम लोगों पर आक्षेप लगने लगे तो मैंने भी मोर्चा खोला। इन लोगों की कॉपी चेक लगा और वहां मौजूद भारी गलतियों और ब्लंडर्स को चिन्हित करने लगा। उनकी कापी पर नोटिस लिखने लगा यदि त्रुटियां नहीं सुधारी गयीं तो हम उन्हें यथावत पास कर दिया करेंगे। मगर इन लोगों ने अपना रवैया नहीं बदला, मगर हम लोग सहज ही रहे। इस बात का मुझे गर्व है कि हम लोगों ने कभी भी कोई गलती प्रिंट में जाने नहीं दी। मजेदार बात तो यह है कि हमारे पास आने वाली सारी कॉपी भारी-भरकम त्रुटियों-गलतियों से सराबोर रहती थीं।

हा हा हा

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