एसटीएफ: गिरहबान में नहीं झांका, पत्रकार पर घुड़की

दोलत्ती

: तनिक एसटीएफ की “हेकड़ी” देखो : डीजीपी को भी तो लपेट लो न, पत्र तो सीधे डीजीपी को ही गया था : बेशर्म पत्रकार संगठन दुबके छिपे हैं : पूर्व सांसद धनंजय सिंह भी सह-आरोपी : 

कुमार सौवीर

लखनऊ : एसटीएफ की कार्यशैली को परखना हो तो सीधे राजधानी के विभूति खंड थाना में दर्ज उस मुकदमे को बांच लीजिए, जिसे एसटीएफ ने एक वरिष्‍ठ पत्रकार सुरेश बहादुर सिंह के खिलाफ लिखवाया है। यह मामला एसटीएफ के आईजी द्वारा तब के डीजीपी (अभिसूचना) को लिखे पत्र को लीक करने और इस तरह सरकारी पत्र की गोपनीयता भंग करने का है। लेकिन हैरत की बात है कि बजाय इसके कि इन दोनों वरिष्‍ठ आईपीएस अफसरों के बीच दो बरस पहले हुए इस पत्राचार को सार्वजनिक करने के लिए अपने ही गिरहबान में झांक कर स्‍वयं को दंडित करने के बजाय एसटीएफ ने एक पत्रकार को ही मुकदमे में फंसा लिया। सबसे शर्मनाक बात तो यह है कि इस पूरे मामले में किसी भी पत्रकार संगठन ने अपनी आवाज नहीं उठायी। सब के सब अपनी दुम दबाये छिपे हुए हैं।

करीब दो साल पहले का वाकया है। तब जौनपुर से सांसद रहे धनंजय सिंह भले ही किसी दल में नहीं थे, लेकिन भाजपा में उनका संबंध काफी अच्‍छा था। उसी बीच यूपी पुलिस की एसटीएफ के आईजी अमिताभ यश ने पुलिस के पुलिस महानिदेशक (अभिसूचना) को एक गोपनीय पत्र भेजा था। पत्र में लिखा था कि कई फोन सुनने और टेप करने के दौरान एसटीएफ को पता चला है कि पूर्व सांसद धनंजय सिंह की जान को खतरा है।

सुरेश बहादुर सिंह बताते हैं कि एक दिन बाकी चिट्ठियों के साथ एक सरकारी लिफाफा भी आया था। लिफाफा खोला तो यह गोपनीय पत्र था। इस पर खबर लिखने के लिए सुरेश ने धनंजय सिंह को फोन किया ताकि धनंजय सिंह का पक्ष जाना जा सके। लेकिन कई प्रयासों के बावजूद सुरेश की बात धनंजय सिंह से नहीं हो पायी। सुरेश बहादुर सिंह का कहना है कि इसी कारण से उन्‍होंने यह खबर नहीं लिखी।

बहरहाल, सुरेश बताते हैं कि उस के कुछ समय बाद सचिवालय में धनंजय सिंह से उनकी भेंट हो गयी। सुरेश ने उस पत्र के संबंध में उनकी सुरक्षा का हालचाल ले लिया। धनंजय सिंह ने वह पत्र सुरेश से ले लिया। और बाद में अपनी सुरक्षा हटाये जाने के मामले में हाईकोर्ट में दायर अपने एक मुकदमे में उस गोपनीय पत्र को भी नत्‍थी कर लिया। इस याचिका की सुनवाई मुख्‍य न्‍यायाधीश समेत दो जजों की बेंच ने की। इस बेंच ने इस बात पर ऐतराज जताया कि एक गोपनीय पत्र याची के पास कैसे पहुंचा। बेंच ने इस बारे में गहरी चिंता जताते हुए सरकार को निर्देश दिया कि वे इस संवेदनशील मसले पर तत्‍काल जांच करें और संबंधित दोषी पर कड़ी कार्रवाई करें। यह आदेश 24 सितम्‍बर-19 को जारी हुआ।

जाहिर है कि यह गोपनीय पत्र को गायब करने का करतब तो पुलिस की ओर से ही हुआ। प्रश्‍न तो यही है कि आईजी ने जब डीजीपी (अभिसूचना) को पत्र लिखा, तो वह सुरेश बहादुर सिंह के पास होते हुए धनंजय सिंह तक कैसे पहुंच गया। जाहिर है कि पुलिस के ही किसी व्‍यक्ति ने ही लीक किया था। क्‍योंकि ऐसे पत्र डाकघर की मार्फत नहीं भेजे जाते हैं। यह भी सवाल है कि ऐसे पत्र का फॉलोअप कब और किस तरह किया गया।

साफ बात तो यही है कि इस मामले में सारी करतब पुलिस की ओर से ही हुई थी। या तो एसटीएफ की ओर से, या फिर डीजीपी (अभिसूचना) की ओर से। ऐसी हालत में डीजीपी पर तो सवाल उठाने की हिम्‍मत किसी पर नहीं पड़ सकती। ऐसे में एसटीएफ के एक दारोगा शिवनेत्र सिंह को यह ठीकरा थम दिया गया कि वे इस मामले में पत्रकार सुरेश बहादुर सिंह और धनंजय सिंह नाथ लें और उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज करा लें। शिवनेत्र ने साहब के सामने सलाम ठोंका, पीछे मुड़े और सीधे विभूति थाना में मुकदमा दर्ज करा लिया। यह मुकदमा ऑफिशियल सीक्रेट एक्‍ट 1923 की धारा 5(2) के तहत दर्ज हुआ, जो दंडनीय और संज्ञेय अपराध है।

अब जरा इस मुकदमे पर एसटीएफ की गम्‍भीरता को भी चेक कर लीजिए। इस रिपोर्ट को दर्ज कराने वाले एसटीएफ ने न तो यह जानने की कोशिश की कि सुरेश बहादुर का घर कहां है, और न धनंजय सिंह का पता खोजने की कोशिश की। इतना ही नहीं, शिवनेत्र सिंह ने अपना पता तो एसटीएफ मुख्‍यालय लिख दिया है, लेकिन अपना स्‍थाई पता भी एसटीएफ ही लिख मारा है। मुकदमे में यह तक नहीं जाहिर किया गया है कि किस आधार पर एसटीएफ ने सुरेश बहादुर सिंह को मुलजिम बना लिया है। हैरत की बात तो यह भी है कि 14 नवम्‍बर-18 को जारी इस पत्र के लीक होने और उस पर 24 सितम्‍बर-19 को हाईकोर्ट के आदेश के बारे में जांच के नतीजा क्‍या निकला, यह सिर्फ अंधेरे में ही है।

इस मामले में एक पहलू यह भी है जो आश्‍चर्यजनक भी है। वह यह कि केवल धनंजय सिंह पक्ष न मिल पाने के चलते सुरेश बहादुर सिंह ने इतनी बड़ी खबर को क्‍यों नहीं छापा। पक्ष तो पुलिस अथवा एसटीएफ से भी लिया जा सकता था।

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