शुभ-लाभ: लाभ तो उठाइये, लेकिन शुभ की अनिवार्यता को भी समझिये

बिटिया खबर
: पहले दीपक के ढांचे को गौर से देखिये। उसमें गुरूता का प्रतीक तेल भरा भरा पड़ा : एक नया तत्‍व यानी दीप-शिखा का निर्माण हो जाता है : वास्‍तविक दीपावली तो तब होती है, जब घमंड और लालच न हो :

कुमार सौवीर
लखनऊ : दीपक चंद घंटों का खेल नहीं, इंसान के परिवार, समाज तथा प्रदेश और देश अथवा भूमण्‍डल से जुड़ा एक अनिवार्य प्रतीक से कम नहीं है। दीपक और उसकी अग्नि-शिखा के परस्‍पर अन्‍तर्सबन्‍धों को जिस भी दिन समझ लिया जाएगा, दीपावली का मकसद पूरा हो जाएगा। बिखरते जा रहे सामाजिक ताना-बाना की गुत्थियां भी सुलझ कर आपस में गुंथ जाएंगी।
कैसे, आइये मैं समझता हूं।
पहले दीपक के ढांचे को गौर से देखिये। उसमें गुरूता का प्रतीक तेल भरा भरा पड़ा है। किसी धनिक सेठ, जमींदार, अफसर या नेता की तरह उसका पेट गोलाकार है। जबकि दीपक की बत्‍ती रीता पड़ा है, किसी मजदूर, गरीब या असहाय-निर्बल व्‍यक्ति की तरह।
हमारी व्‍यवस्‍था ने दिमागी तौर पर सफल या शातिर लोगों की झोली में तो बेहिसाब दौलत भरने की क्षमता दे दी है, लेकिन मजदूर, गरीब, अशक्‍त, असहाय या निर्बल लोगों को उनको वंचित कर रखा है। इतना वंचित कर रखा है कि हमारे समाज के अधिकांश लोग त्‍योहार का आनंद उठाना तो दूर, उसे झेलने पर मजबूर है। अशक्‍तता की भयावहता से भी कोसों दूर।
मगर दीपक ऐसा नहीं करता है। दीपक अपने भण्‍डार में भरे-अटे तेल-ईंधन को बाती को समृद्ध कर देता है। इसके बाद तेल से भीग चुकी बाती अपनी इस क्षमता का जोरदार प्रदर्शन कर अपने आप को प्रज्‍ज्‍वलित कर देता है। दीपक और बा‍ती परस्‍पर आश्रित हो जाते हैं, तो प्रकाश व्‍याप्‍त हो जाता है। एक नया तत्‍व यानी दीप-शिखा का निर्माण हो जाता है।
बाती अगर खुद में सूखापन या रूक्षता पर दर्प पाले रखे, और दीपक अगर अपने पेट में अथाह तेल-भण्‍डार बढ़ाने के घमंड में ही चूर रहे, तो फिर प्रकाश की कल्‍पना ही बेमानी होगी। दोनों ही अपना घमंड और लालच छोड़ दें, तो फिर हर ओर रोशनी ही रोशनी होगी।
लाभ तो उठाइये, लेकिन शुभ की अनिवार्यता को भी समझिये।
दीपावली का मकसद केवल यही होता है।

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