पहले घोषित प्रगतिशील था, आज पता चला कि वह लम्पट निकला

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

: शकील सिद्दीकी की बेइज्जत रूखसती ने साहित्‍यकारों का खोखलापन जगजाहिर कर दिया : साहित्य के हम्माम में सब के सब निर्वस्‍त्र हो गये, चाहे यह हों या फिर वह : साहित्य में जुड़ता जा रहा है एक नया अध्याय, लम्पट नारीवादिता विमर्श :

दिव्यरंजन पाठक

लखनऊ : एक घोषित महान प्रगतिशील माना जाता था, उसके बारे में अब एकाएक पता चला है कि वह प्रगतिशील नहीं रहा है। बल्कि पक्का लम्पट हो गया। फिलहाल ऐसे अप्रगतिशील को प्रगतिशीलों ने अपने साथ से ख़ारिज कर बाहर का रास्ता दिखा दिया। साहिय विमर्श और मंथनों के बड़े-बड़े और अहम आयोजनों के मंचों पर अहम कुर्सियों पर डेरा जमा चुके इस प्रगतिशील साहित्यकार-टर्न्ड-लम्पट पर लेत्तेरी, धेत्तेरी चल रही है।

मुद्दा बना किसी स्त्री के साथ हुआ दुर्व्यवहार जिसने एकाएक उस व्यक्ति को फ़ेसबुक पर लम्पट का अपरोक्ष ख़िताब दे दिया गया (एक आलोचक की पोस्ट द्वारा, हालाँकि ये भी पार्टी से निकाले गए थे)।

बात सच है या ग़लत, वास्ता इससे नहीं है। प्रश्न यह है कि रातों रात एक व्यक्ति सदाचारी से एकाएक सीधा लम्पट कैसे हो जाता है। क्या उस के बीस तीस चालीस साल के साथी इतने भोले नासमझ थे कि वे ये समझ ही न पाए कि उनका साथी वास्तव मे भेड़ न होकर भेड़िया है ? या हो सकता है कि उनकी अन्य साथी इतनी प्रगतिशील रहीं थी कि वे उस व्यवहार को सामान्य ही लेती रही  हों। और आज किसी ने उस व्यवहार पर आपत्ति की और देखते ही देखते कई बरसों के साथियों ने उनको अपने बीच से बाहर का रास्ता  दिखवा दिया ।

मज़े की बात ये भी है कि किसी ने भी ऐसा नहीं कहा कि भई ये व्यक्ति इतना पुराना साथी है और हम जानते  हैं कि ये ऐसा काम नहीं कर सकता है । या पहले किसी ने ऐसी बात इसके बारे में न कही, न सुनी । दो लोगों के दाँत कटी में एकाएक ऐसा क्या हो गया कि मामला नारीवाद तक आ धमका और एक व्यक्ति की एक संस्था की कई सालों की उपाध्यक्षी गई और दूसरी से एक साल का निलम्बन हो गया ।

मामला क्या है शायद कोई भी नहीं  जानता, मात्र अनुमान लगाए जा रहे हैं, महिला का नाम न  बताये जाने के बावजूद लोग ठीक ठीक अनुमान लगा रहे हैं कि ऐसा आरोप तो फलां ही लगा सकती हैं। क्या हुआ होगा ? इस के बारे में भी कल्पना उड़ान भर रही है। यदि व्यक्ति पहले से ही इस प्रकार की हरकतें करता आ रहा है तो पहले प्रश्रय क्यों मिलता रहा और यदि पहली बार ऐसा है तो इतना कड़ा क़दम क्यों उठाया गया ?

ऐसे ही, कुछ समय पूर्व  एक बडे दारोगा पुलिसिया साहित्यकार भी एकाएक दलित विरोधी, स्त्री विरोधी आदि हो गए थे और स्त्री–देह पर आनन्दमार्गी-मुंह मारने की मौखिक कोशिश में जुट गये थे। बाद में इसी दारोगा-साहित्यकार को लखनऊ के साहित्यकारों ने अछूत करार दे दिया था। यहाँ तक कि जिस संस्था के अध्यक्ष रहे थे, उस संस्था के पूर्व अध्यक्ष के रूप में ज़िक्र न किया जाने का अनुरोध उस अखबार के स्थानीय प्रमुख से किया गया था । ऐसा ही एक कथाकार के साथ एक माह पूर्व किया गया और एक कथा की लोकप्रियता से जल कर समारोहपूर्वक उनकी छीछालेदर ककरने का षड्यन्त्र रचा गया था, ये तो उनका सौभाग्य था कि वे बच गए ।

इन सारी बातों का उद्देश्य मात्र यह है कि पूरी बात बाहर आए गए  बगैर किसी भी देवता को राक्षस और राक्षस को देवता बनाने की प्रवृत्ति पर रोक लगनी चाहिए । यदि कोई भ्रष्टाचारण का दोषी है तो समाज को उससे बचाने के लिए व्यापक निन्दा होनी चाहिए, और सज़ा देने पर उसकी पुष्टि भी होनी चाहिए ।

(लखनऊ के रहने वाले दिव्यरंजन पाठक किसी परिचय के मोहताज नहीं।

वे एक अद्भुत भाषा-सेवी हैं। वे ओरियंटल स्टडी लैब के तहत उर्दू समेत अनेक भाषाओं पर आम आदमी को सजग और लैस कर रहे हैं। )

 

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