दोनों ही धंधेबाज हैं, तो स्‍वामी ही क्‍यों मौज उडाये

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

:  इसीलिए मैं चिदर्पिता की लड़ाई में साथ हूं, क्‍योंकि उसने अपने धंधे में अपना हिस्‍सा मांगा था : लूट और धोखे के धंधे में थे शामिल थे दोनों, कोई भी निर्दोष नहीं : एक पाखंडी ने एक युवती का यौवन लूटा, इसलिए वह ज्‍यादा कमीना :

कुमार सौवीर

लखनऊ : ये स्वामी नहीं, रंगा सियार है। हर गुण-कलंक का स्‍वामी। उसे मोक्ष का नाम केवल अपने अपवित्र धंधों और यौन-क्रियाओं में डूबने के लिए रकम ऐंठने के लिए चाहिए था। दरअसल उसे हर धंधे से परहेज नहीं है। उसे बीजेपी नेता भी बनना है, पूर्व गृह राज्यमंत्री स्वामी चिन्मयानंद भी बनना है, सांसद भी बनना है, मंच भी सम्‍भालना है, कई आश्रमों पर बरसती लक्ष्‍मी को भी दोनों हाथों लूटना है। और चूंकि मैं उसकी इस काली करतूतों को पसंद नहीं करता हूं, इसलिए साध्‍वी चिदर्पिता के साथ हूं। कदमताल कर रहा हूं। 

इन पर गंभीर आरोप लगाने वाली इनकी ही शिष्या हैं, जिनका नाम है साध्वी चिदर्पिता। साध्वी बनने से पहले इनका नाम कोमल गुप्ता था। कोमल की बचपन से ही ईश्वर में अटूट आस्था थी। ये मां के साथ लगभग हर शाम मंदिर जाती थी। इसी बीच मां की सहेली ने हरिद्वार में भागवत कथा का आयोजन किया और इन्हें भी वहां मां के साथ जाने का अवसर मिला। उसी समय कोमल गुप्ता का स्वामी चिन्मयानन्द से परिचय हुआ। स्वामी जी उस समय जौनपुर से सांसद थे। तब कोमल की उम्र लगभग बीस वर्ष थी। स्वामी को ना जाने कोमल में क्या बात नजर आई कि वे कोमल को संन्यास के लिये मानसिक रूप से तैयार करने लगे। मैं कह नहीं सकता कि कोमल नासमझ थी या वो सन्यास लेकर नई दुनिया में खो जाना चाहती थी। बहरहाल कुछ भी हो कोमल ने स्वामी की बातों में हामी भरी और सन्यास के लिए राजी हो गई। स्वामी चिन्मयानंद ने कोमल को दीक्षा देने के साथ ही उसका नाम बदल कर साध्वी चितर्पिता कर दिया। दीक्षा के बाद साध्वी का नया ठिकाना बना शाहजहांपुर का मुमुक्ष आश्रम। चिन्मयानंद ने साध्वी को दीक्षा तो दी पर उसके सन्यास की बात को टालते रहे। ऐसा क्यों, इस रहस्य से स्वामी और साध्वी ही पर्दा हटा सकते हैं।

वैसे स्वामी और साध्वी में अंदरखाने क्या संबध थे, इस पर तो ये दोनों ही बात करें तो ज्यादा बेहतर है। पर मैं कुछ बाते आप सबके साथ साझा करना चाहता हूं। एक  ब्‍लागर है महेंद्र श्रीवास्‍तव। स्‍वामी को कई दिनों तक उन्‍होंने खूब देखा। महेंद्र ने अपने ब्‍लाग में लिखा है कि पिछले साल की बात है, मेरे सास स्वसुर ने हरिद्वार में स्वामी जी के आश्रम में ही भागवत कथा का आयोजन कराया था। इस दौरान पूरे सप्ताह भर मैं भी परिवार के साथ इसी आश्रम में रहा। आश्रम खूबसूरत है, देवी देवाताओं की मूर्तियां से तो अटा पड़ा है, आश्रम के सामने से गंगा बह रही है। यहां स्वामी और साध्वी दोनों एक साथ निकलते हैं, तो लोग उनके पैर छूकर आशीर्वाद लेने को आतुर दिखाई देते हैं। देर रात में भी स्वामी इसी साध्वी के साथ टहलते दिखाई देते हैं। सप्ताह पर के प्रवास के दौरान कई बार उनके टहलने के दौरान मेरा आमना सामना हुआ। सर तो मैने भी झुकाया, पर इस जोड़ी के सामने सिर झुकाने में कभी श्रद्धा का भाव मन में नहीं आया। गंगा आरती के दौरान ये दोनों वहां मौजूद रहते थे, दोनों की आंखों में होनी वाली शरारत को कोई भी आसानी से पकड़ सकता था। बहरहाल ये सब मैं सिर्फ इसलिए कह रहा हूं कि मैने दोनों के आखों में होने वाली शरारत को कई बार पकडा।

साध्वी लगभग 10 साल से भी ज्यादा समय से स्वामी जी के साथ हैं, वो केवल उनकी आश्रम की ही साथी नहीं रही हैं, बल्कि स्वामी जी जब मंत्री थे तो ये उनकी पीए थीं और दिल्ली में ही रहीं थीं। साध्वी 24 घंटे स्वामी जी के साथ परछाई तरह रहती थीं। एक दुर्घटना के बाद स्वामी जी दिल्ली में भर्ती थे तो साध्वी ही उनकी सेवा में लगी थीं।

लेकिन अचानक साध्‍वी ने स्‍वामी से अलगाव का फैसला किया तो आखिर उसके कारण क्‍या थे, यह सवाल मुझे अक्‍सर मथता है। मेरा साफ मानना है कि कोमल गुप्‍ता या चिदर्पिता केवल स्‍वामी के प्रेम और अपनी लालच के चलते ही स्‍वामी के समीप आयी। इसके लिए जो भी नाटक या ढोंग किया केवल स्‍वामी के लिए। जबकि स्‍वामी ने न केवल साध्‍वी  के साथ धोखा किया, बल्कि राजनीति और साधु-संत परम्‍परा को भी कलंकित किया। अगर यह मान भी लिया जाए कि साध्‍वी में लालच था, या व‍ह स्‍वामी के बल पर अपनी हैसियत बनाना च चाहती थी तो इसमें हर्ज क्‍या है। स्‍वामी ने तो पूरा जीवन भी ढोंग किया। ऐसे में स्‍वामी को चाहिए था कि किसी स्‍वस्‍थ धंधेबाज की तरह वह साध्‍वी को अपने धंधे में पार्टनर बनाते। लेकिन साध्‍वी को मूर्ख बनाते ही रहे स्‍वामी। यही मेरा ऐतराज है। साध्‍वी को उसका देयक होना ही चाहिए।

है कि नहीं

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