संविदा-सेवा बनाम स्‍त्री: डरावनी नजीर है मोहनलालगंज कांड

दोलत्ती

: तिल-तिल दम तोड़ती युवतियों का घटिया मृत्‍यु-द्वार है संविदा पर सरकारी नौकरी : समाज सम्‍भालने के साथ ही परिवार पालने की मजबूरी दबंग और सशक्‍त लोगों का चारा बन जाती है : संविदा-एक :

कुमार सौवीर

लखनऊ : सन-2014 की 17 जुलाई रविवार की सुबह लखनऊ में पीजीआई के पास मोहनलालगंज के एक प्राइमरी में एक महिला की लाश बरामद हुई थी। यह इलाका बलसिंह खेड़ा कहलाता है। लाश पूरी तरह निर्वस्‍त्र थी और उसके शरीर पर 12 बड़े घातक घावों के साथ ही बेशुमार चोटों के निशान थे।

प्राथमिक जांच के बाद मौके पर गयीं एडीजी पुलिस सुतापा सान्‍याल ने कुबूला कि इस हादसे में एक नहीं, बल्कि कई अपराधी थे और इस महिला को पूरी नृशंसता के साथ मारा गया है। जांच में रही एक महिला पुलिस अधिकारी ने मुझे बताया था कि कम से कम पांच लोगों ने उस महिला को पकड़ा था, और इंडिया मार्क-टू हैंडपम्‍प का भारी हत्‍था उसके गुप्‍तांग में घुसेड़ दिया थाातब अखिलेश यादव की सरकार थी और उनका मु्ंहलगा अफसर नवनीत सिकेरा लखनऊ का एसएसपी थे। लेकिन न जाने क्‍या वजह थी कि शुरूआत से ही इस मामले को सरकार ने बाकायदा मजाक बना डाला। पूरा षडयंत्र रचा नवनीत सिकेरा ने, जो आजकल महिला अधिकारों की पैरवी में अपनी कलम तोड़ कर रहे हैं। इस षडयंत्र में कदमताल करते रहे तब के गृह विभाग के प्रमुख सचिव व डीजीपी। नतीजा यह हुआ कि षडयंत्रों के चलते अदालत ने रामसेवक नाम के एक व्‍यक्ति को आजीवन कारावास की सजा सुना दी।
यह कहानी किसी एक हत्‍या की नहीं, बल्कि सरकारी अफसरों की नीति के मुताबिक सरकारी कामकाज को संविदा पद्यति के आधार पर कराने की मार्मिक घटना है, जो नृशंसता की पराकाष्‍ठा पर दिखायी पड़ी। जानकार बताते हैं कि अब ऐसी घटनाएं-हत्‍याएं लगातार बढ़ती ही जाएंगी। कारण है संविदाकर्मियों को बड़े अफसरों और वरिष्‍ठों द्वारा गरीब की जोरू समझने की प्रवृत्ति। बेईमान और लम्‍पट अफसरों की ऐसी मंशा ने ऐसी मानसिकता को अधाधुंध ईंधन फेंका है। दरअसल, यह महिला पीजीआई में संविदा में काम करती थी। वेतन था 36 सौ रुपया महीना, लेकिन ठेकेदार कम्‍पनी ने अपने कर्मचारियों को पिछले आठ महीनों से वेतन तक नहीं दिया था। इस महिला का पति मर चुका था। सात बरस का बेटा और 13 साल की बेटी। ससुराल वालों से कोई मदद न हीं मिल पा रही थी। भूख जब बच्‍चों की आंत को बेहाल करने लगी, तो उसने अपना शरीर बेचना शुरू कर दिया। एक व्‍यक्ति के साथ चार सौ रुपया का दाम लगाया रामसेवक ने। महीने में आठ-दस दिन वह इस तरह अपने बच्‍चों को पालती थी। रामसेवक दरअसल पास बन रहे एक अपार्टमेंट के बिल्‍डर का फील्‍ड गार्ड था।
जांच करने वाले एक पुलिस अधिकारी ने दोलत्‍ती को बताया कि घटना की शाम रामसेवक उस महिला को ले गया था। वहां सात लोग मौजूद थे। लेकिन इस महिला ने एक साथ इतने लोगों के साथ यह धंधा करने से साफ इनकार कर दिया। इस पर बवाल हुआ और महिला की पिटाई शुरू हो गयी। नशे में धुत उन लोगों ने उसे इतनी मर्मांतक पीड़ाएं दीं, कि उसकी मौत हो गयी।
इस घटना पर मैं दोबारा लिखूंगा, लेकिन फिलहाल इतना समझ लीजिए किस संविदा में काम कर रहे लोग तिल-तिल दम तोड़ते पर मजबूर हैं। सबसे पहले तो उनके व्‍यक्तित्‍व की ही हत्‍या होनी शुरू हो जाती है। युवतियों के साथ तो सबसे भयावह माहौल है संविदा की सेवा। साक्षात निर्मम मृत्‍यु-द्वार है संविदा पर सरकारी नौकरी। समाज सम्‍भालने के साथ ही परिवार पालने की मजबूरी दबंग और सशक्‍त लोगों का चारा बन जाती है। जो झुक जाते हैं, वे हमेशा-हमेशा के लिए खरीदे गुलाम की तरह बन जाते हैं। जो जूझते हैं, उनको ऐसे अफसर बदनाम करने की हरचंद साजिशें बुनते हैं, प्रताडि़त करते हैं। उनमें से कुछ तो नौकरी छोड़ कर घर में सिमट जाती हैं, लेकिन कुछ ऐसी जरूर सामने आ जाती हैं, जो ऐसी प्रवृत्तियों वाले अफसरों पर चप्‍पलें तोड़ने में तनिक भी देरी नहीं करतीं। लेकिन जो महिलाएं न गुलाम बन पाते हैं, और जो न जूझ पाते हैं, वे आत्‍महत्‍या कर बैठते हैं। (क्रमश:)

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