: कलमकारों की सेक्स-ज्वाला ने कई महिला-पत्रकार भस्मीभूत : आइये पत्रकारिता के ऐसे घिनौने लोगों को बेपर्दा करें : सेक्स केवल इकतरफा संगीत नहीं : कोई समलैंगिक-सेक्स के बावले, इलाहाबाद में भाजपा सांसद की बेटी की शादी में कूटे गये दो दिग्गज पत्रकार : कलम में छिनरपन- एक :
कुमार सौवीर
लखनऊ : कभी रहा होगा कलम में वह जोश, जो समाज और देश-दुनिया को ललकार लेता था। जो आम आदमी के हकों के लिए हाहाकार मचा देता था। जो टूट भी जाता था, तो केवल आम वंचित-मजबूर-बेहाल आदमी के अधिकार के लिए। कभी रही होगी वह कलम, जो तोप का सामना करने के लिए सीना तान लिया करती थी। मगर आज की कलम तो अपनी ही शिष्याओं के नाम पर स्खलित हो जाती हैं। सेक्स के नैसर्गिक संगीत को सुनने के बजाय, अब उसे बाकायदा रैकेट में तब्दील करने की साजिशें चल रही हैं। कल्पेश ज्ञाग्निक ने इसी दहलीज में आत्महत्या की। लेकिन इसके साथ ही खुलने लगा है पत्रकारिता में सेक्स की दहलीज में अपनी मेधा और सम्मान को तिरोहित करने के किस्से।
हम इस मसले पर श्रंखलाबद्ध लेख तैयार कर रहे हैं। हम पूरी कोशिश करेंगे कि पत्रकारिता का झंडाबरदार बने घूम रहे सेक्स-कीट सम्पादकों को बेपर्दा कर दें। शुरूआत कब से हुई होगी, यह तो पता नहीं, लेकिन कम से कम लखनऊ में सम्भवत: सन-74 में सिद्दीकी हत्याकांड में पहली बार लोगों को पता चला था कि पत्रकार की कमर भी बेहद कुरूप होती हैं, और उनकी मेधा-मस्तिष्क बहुत घिनौना। कुछ भी हो, इसके बाद से तो लखनऊ ही नहीं, पूरे देश में सेक्सियाने पत्रकारों की आज बड़ी जमात उग गयी। जो लोग पहले अपनी जुबान, अपनी लेखनी, अपनी शैली, अपनी कलम और अपने संकल्पों के प्रति समर्पित थे, अडिग थे। वे अब सेक्स के लिए भी जीने लगे। बल्कि केवल सेक्स के लिए ही जीने लगे। वजह थी अगाध पैसा, जो येन-केन-प्रकारेण उनकी जेब को कुलबुलाने लगा था। सम्पादकों की काम-पीड़ा को संतुष्ट करने वालों में कई ऐसे लोग भी थे, जो इस कृत्य में शामिल भले न रहे हों, लेकिन अपने सम्पादक के प्रति अतिशय समर्पित थे। अपने आकाओं-सम्पादकों की यौन-कुण्ठाओं की प्रतिपूर्ति करने के लिए इन में से कई पत्रकारों ने न जाने कितने महिला-पत्रकारों को इस भयावह अग्नि-कुण्ड में भस्म कर दिया।
चाहे वह तरूण तेजपाल रहे हों, चाहे वह कल्पेश याग्निक रहे हों, चाहे वह घनश्याम पंकज रहे हों, चाहे वह वीरेंद्र सिंह रहे हों, चाहे वह महेश्वर दयालु गंगवार रहे हों, चाहे वह विनोद शुक्ल रहे हों। सब के सब जलेबी की थाली पर मंडराते ततैया-हांड़ा से कम नहीं थे। किसी ने अपनी एक महिला सहयोगी का यौन-शोषण किया, तो किसी ने अनेक का जीवन हराम कर डाला। जबकि कुछ तो ऐसे महिलाएं ऐसी भी रणचंडी बन कर सामने आयीं, जिन्होंने ऐसे सम्पादकों की नाक में नकेल घुसेड़ कर उन्हें अपने दुआर-चौबारे में खूंटा गाड़ कर बांध दिया। उसके बाद ऐसे महान सम्पादक उसी खूंटे के इर्द-गिर्द रम्भाते रहे।
वरिष्ठ पत्रकार रहे स्वर्गीय जय प्रकाश शाही ने लखनऊ की पत्रकारिता पर बेहद तीखा कमेंट किया था। उन्होंने अपनी यह टिप्पणी अयोध्या आंदोलन के दौरान तब की थी, जब सन-92 की छह दिसम्बर के दौरान अयोध्या के विवादित ढांचे को ढहाया जा रहा था। उस अयोध्या और फैजाबाद में कुछ पत्रकारों की करतूतों का खुलासा करते हुए शाही ने लिखा था कि ऐसे पत्रकार लोग अयोध्या-फैजाबाद की रिपोर्टिंग के बजाय उसे अपनी मौज-मस्ती के तौर पर पिकनिक मनाने गये लगते हैं। उन्होंने लिखा था कि अयोध्या में विवादित ढांचे के गुम्बद पर उनकी कोई भी नजर नहीं थी, यह पत्रकार तो फैजाबाद के होटल के होटल में एक-एक गुम्बद को लेकर कई-कई कारसेवक-पत्रकार करने में जुटे थे।
इलाहाबाद में लखनऊ के दो बड़े पत्रकार शराब में इतना धुत हुए कि एक होटल में भाजपा के सांसद की भतीजी की शादी में एक युवती पर कुछ यूं छेड़छाड़ कर बैठे, कि शादी में शामिल लोगों ने उनको जमकर धुन दिया। जिस अखबार के यह लोग पत्रकार थे, उसी अखबार का मालिक उसी सांसद का रिश्तेदार भी था। आनन-फानन कानपुर मुख्यालय से हुक्म जारी हुआ कि इन दोनों को लात मार कर अखबार के बाहर करो। देश के एक बड़े दलाल पत्रकार ने तो दिल्ली के तुर्कमान गेट के एक महिला इंटर कालेज की शिक्षिका उमा खुराना पर एक आपराधिक फर्जी स्टिंग किया, नतीजा यह कि भीड़ ने उमा को नंगा कर सड़क पर पीटा।
और तो और, उप्र विधानसभा और सचिवालय तक में पत्रकारों की यौन-क्रीड़ाएं और उन्हें किसी माल की तरह यत्र-तत्र-सर्वत्र सप्लाई का धंधा तक कुछ दशक पहले से ही गूंजना शुरू हो गया था। इसको लेकर बाकायदा मारपीट भी हो चुकी। करीब तीन दशक पहले सचिवालय में किशोर लड़कों के साथ अपाकृतिक सम्बन्ध स्थापित करने के बाद उनकी लाशें सचिवालय में फेंके जाने में भी बड़े मंत्रियों, अफसरों और पत्रकारों तक पर आंच आयी थी।
कुछ ऐसे भी थे जो पत्रकारिता से आये, लेकिन बाद में एनजीओ में घुस गये। वहां भी जितना भी हो सकता था, खूब गंदगी बिखेरी। लेकिन इनमें भी कुछ ऐसे भी लोग सामने आये जो उनकी औकात में ला कर खड़ा कर गये। एक ने तो आत्महत्या तक कर लिया। ठीक उसी तरह, जैसे कल्पेश याग्निक। ऐसे लोगों में बड़ा नाम है खुर्शीद अनवर का। जिसे उत्तराखंड के एक एनजीओ के संचालक-दम्पत्ति ने मौत की कगार पर ला खड़ा कर दिया। मणिपुरी एक युवती के साथ सहवास का मामला इतना तूल पकड़ गया कि खुर्शीद को तो ऊंची मंजिल से कूद कर आत्महत्या करनी पड़ी। इसी मसले पर कमर वहीद नकवी ने इंडिया टीवी से इस्तीफा दे दिया। यह एनजीओ संचालक दम्पत्ति ने भी अपनी जिन्दगी पहले पत्रकारिता से ही शुरू की थी, लेकिन बाद में सूखी रोटी के बजाय उसे शहद-डुबा मालपुआ मिलने की सम्भावनाएं जागीं, तो वह एनजीओ में जुड़ गये।
कहने की जरूरत नहीं, कि इन पत्रकारों-सम्पादकों में कुछ ऐसे भी नराधम शामिल रहे हैं, जो समलैंगिक-सेक्स के बावले थे। भविष्य बनाने का लालच देने में उन्होंने अपने करीबी रिश्तेदारों और पुत्रवत तथा दमाद जैसों तक को नहीं छोड़ा।
बहरहाल, फिलहाल तो हमारे पास है कल्पेश याग्निक की मौत, आत्महत्या अथवा हत्या का दस्तावेज, जहां एक बड़े अखबार का समूह सम्पादक सेक्स को लेकर इतना नीचे उतर गया कि उसे आत्महत्या करनी पड़ी। लेकिन सेक्स केवल इकतरफा संगीत नहीं होता है। उसमें उसकी साथी सलोनी अरोड़ा ने कल्पेश को बाकायदा साजिश बुन कर एक आपराधिक तानाबाना बुना और पूरी शातिराना शैली में कल्पेश का अंत कर दिया। चौथी दुनिया के शोध की प्रति, जो ऐसे सम्पादकों की आंख खोलने के लिए पर्याप्त हैं। लेकिन इसके बाद हम ऐसे सेक्स-पीडि़त सम्पादकों-पत्रकारों पर श्रंखलाबद्ध रिपोर्ताज पेश करेंगे। आपसे केवल इतना अनुरोध है कि इस बारे में आप को यदि ऐसे किसी सेक्स-नराधम की खबर हो, तो हमसे भी शेयर कीजिए। आपका ऐसा योगदान पत्रकारिता पर परोपकार होगा, इतना ही नहीं, ऐसे अभियान पत्रकारिता को साफ-सुधरा करने में भी मील का पत्थर बन सकेंगे। सकेंगे। (क्रमश:)
इसके बाद हम ऐसे सेक्स-पीडि़त सम्पादकों-पत्रकारों पर श्रंखलाबद्ध रिपोर्ताज पेश करेंगे। हमारी इस श्रंखला की बाकी कडि़यों को देखने के लिए कृपया निम्न लिंक पर क्लिक कीजिए:-
सेक्सी-कलम