चलो, मान लिया कि रेणुका ने व्यभिचार किया। तो ?

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

आरोप लगाने से पहले बेहतर है हम अपने गांव-मोहल्ले को खंगालें

: अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष मेरा उपन्यास खण्ड-परशु : आइये, एक अनोखे नजरिये के साथ देखिये महिला की हालत (2) :

कुमार सौवीर

परशुराम को जानने के लिए पहले उनके पिता, पितामह, नाना, मामा, चाचा, भाई और इन सबसे बढ़ कर उनकी माता रेणुका को जानना-समझना मुझे अनिवार्य प्रतीत हुआ। आखिर प्रचलित मान्यता के अनुसार उन्होंने अपने पिता के आदेश पर माता रेणुका का शिरोच्छेद किया था। पिता को विश्वास था कि रेणुका ने व्यभिचार किया है।

चलिए, मान लिया कि रेणुका ने व्‍यभिचार किया था। मान लेने में वैसे तो कोई बुराई है नहीं। हमारे-आपके आसपास ऐसी घटनाएं रोजमर्रा की बात भी तो हैं।

लेकिन अब जरा इस सिक्के के उस पहलू को भी तो देखिये जो क्रोध और आवेश में आकर तथ्यों की ऐसी-तैसी कर देता है। हमारे सप्तषियों ने इन्द्र के अनाचार पर कभी कोई आवाज नहीं उठायी। इन्द्र ने मारूति के गर्भस्थ पिण्ड के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। ऋषि पाराशर द्वारा केवट की नाबालिग पुत्री के साथ सहवास पर कोई ऋषि नहीं बोला। नासमझ कुन्ती को सूर्य ने गर्भवती कर दिया, पर सभी ने अपने मुंह सी लिये। लेकिन एक बार की फिसलन का दण्ड अहिल्या को देते समय महर्षि गौतम की जीभ नहीं कांपी। मात्र आरोप लगा और न्याय के नैसर्गिक सिद्धान्तों तक को ठेंगा दिखाते हुए राम ने सीता को न सिर्फ त्याग दिया, बल्कि घने-बियावान जंगल में उस अबला और गभिर्णी को अकेला छोड़ दिया। निर्दोष द्रोपदी का चीरहरण होता रहा और पूरा सभा-भवन ठहाकों से गूंजता रहा।

अप्‍सरा मेनका ने अपने धर्म-पिता ऋषि कण्‍व के आश्रम में अपनी बेटी को संस्‍कार सिखाने के लिए भेजा था। अरे वही किशोरी बेटी शकुन्‍तला, जिसके साथ एक लालुप राजा दुष्‍यन्‍त ने व्‍यभिचार किया था। गन्‍धर्व-विवाह के आडम्‍बर के सहारे और बाद में वह जब अपने राज्‍य वापस लौटा तो उसने शकुन्‍तला को पहचानने से भी इनकार कर दिया। बेबस शकुन्‍तला ने अपना तथा-कथित नाजायज पुत्र-सन्‍तान ऋषि कण्‍व के आश्रम में ही जन्‍मा, जो बाद में भरत के नाम से जाना गया और भारत-वर्ष का नाम उसी के नाम पर है। ऋषि कण्‍व को बाकायदा ऋषि थे, फिर उन्‍होंने दुष्‍यन्‍त को क्‍यों दण्डित नहीं किया, ताकि बाद की पीढि़यों की महिलाओं में जिजीविषा पैदा कर सकते। लेकिन हा दुर्भाग्‍य कि ऋषि कण्‍व ने ऋषि-धर्म का पालन नहीं किया।

यह वह भारत भूमि है जहां ब्रह्म की उपासना में तल्लीन लोगों का नहीं, पुरुष के आदिम जंगली पशु-बल का सम्मान किया जाता रहा है। और तब इस क्रम में पाण्डित्यपूर्ण व्यवहार का तो तनिक भी अर्थ शेष नहीं रहता। श्रेष्ठतम आत्मज्ञानी माने गये याज्ञवल्क्य तक क्रोधित होकर और शास्त्रार्थ की निर्दोष तथा पुनीत भावना को ठोकर मार कर गार्गी को सरेआम अपमानित कर देते हैं। मूर्ख महानन्द अपनी मूखर्ताओं के प्रबल आलोचक चाणक्य को क्रोधित होकर देश-निकाला दे देता है।

तो क्रोध व्यक्ति से जो न करा दे, थोड़ा है। सही क्या है और गलत क्या, इसे समझने की सारी अर्हता और क्षमता का हरण तो क्रोध पहले ही कर लेता है। निष्कर्ष तक पहुंचाने वाले दरवाजों की चाभियां ही खो जाएं तो आखों देखी और कानों सुनी-बातों की अहमियत फिर कहां रहती है। जब हर सही चीज गलत और हर गलत चीज़ सही दिखायी पड़ने लगती है तो फिर न्याय की कल्पना बेमानी हो जाती है। न्याय तो तटस्थ और असम्पृक्त भाव में ही सम्भव है। और यमदग्नि भी तो उस समय भयंकर क्रोध में ही थे जब उन्होंने परशुराम को आदेश दिया कि रेणुका की हत्या कर दी जाए। अब उनके इस आदेश को किस लहजे में देखा जाए।

दुर्वासा भी तो क्रोधी थे। लोग उनके पाण्डित्य का सम्मान करते थे, परन्तु उनके भीषण क्रोधी स्वभाव से भयभीत रहते थे। क्रोध में दिये गये उनके प्रत्येक शाप को कभी भी किसी ने सम्मान नहीं दिया। प्रत्यक्ष न सही, परन्तु परोक्ष रूप में उनके क्रोध की भर्त्‍सना ही चहुं ओर हुई है। कारण मात्र यह कि क्रोध को सदा-सर्वदा से ही असामान्य और घृणित तक के स्तर पर हेय माना गया है। बुद्धि की तेरहवीं और बरसी जब खा-पीकर समाप्त कर ली जाती है, तब ही क्रोध का जन्म होता है। यह सच है कि यह प्रवृति ही हिंसक है और निःसन्देह हिंसा ही वह तत्व है जो मनुष्य को पशुवत बना देता है। अब यह दीगर बात है कि दुर्वासा यदि हमारे समाज में नहीं आते, तो बडे-बडे काण्ड अपनी सार्थक परिणति नहीं पहुंच पाते। मसलन, महाभारत में दुर्योधन द्वारा पाण्डवों के आश्रम भोजन के लिए भिजवाना, वह भी हजारों शिष्यों के साथ। मसलन ऋषि कण्व के यहां शकुन्तला को श्राप देने का प्रहसन। वगैरह-वगैरह। दरअसल, दुर्वासा क्रोधी नहीं, बल्कि वे ईश्वर के उस अंश की उपासना करते हैं, जिसे क्रोध कहा जाता है।

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