परशुराम की मां निष्पाप है, उसे अब रिहा कर दें

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

सामाजिक वकीलों से एक अपील, आओ कुछ नया सोचा-किया जाए

: अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष मेरा उपन्यास खण्ड-परशु : आइये, एक अनोखे नजरिये के साथ देखिये महिला की हालत (1) :

कुमार सौवीर

अपनी जिन्दगी में मैंने वह हर कार्य किया है जिसे सामान्य या असामान्य तौर पर कमोबेश हर कोई बेहद साहसी व्यक्ति कर सकता है। अक्सर तो बिलकुल अभिमन्यु की तरह मैं चक्रव्यूह में घुस गया। आप कुछ भी कहिये, लेकिन केवल अभिमन्यु के मजबूत जिगर का काम ही था यह साहस। यह जानते हुए भी कि मुझे सातवें चक्रव्यूह को बेधना नहीं आता। लेकिन बेधडक और बेहिचक। सो, कई मौकों पर मैं बुरी तरह फंसा।

अब वह सब मैंने सहर्ष किया अथवा बाध्यतावश, इसका विभेदीकरण मैं नहीं करना चाहता। मुझे जो भी सही समझ में आया, मैंने कर डाला। मैं मानता हूं कि यह सारा कुछ समय ने ही कराया। लेकिन यह तय है कि ऐेसे हर कार्य में कम से कम आधी सफलता तो मेरे खाते में आयी ही। मेरे लिए इतना ही बहुत है। सन्तोष और गर्व भी है कि मैं अभी भी बहुत कुछ कर सकने की क्षमता रखता तो हूं। वैसे इसका अन्तिम फै़सला तो आप पाठक-गण ही करेंगे। जीवन में लम्बी चुप्पी के बाद यह मेरा पहला प्रयास है।

यह उपन्यास अनायास उपजा। बडे प्रकाशक और आदरणीय प्रकाश भार्गव ने भगवान परशुराम पर कुछ सामग्री की अपेक्षा की, तो अपनी आदत से मजबूर, हमेशा की तरह इस विषय पर भी मैं प्राण-प्रण से जुट गया। परन्तु हा… दैवयोग ! एक भीषण दुर्घटना में मैं अपने पैर तुड़ा कर कई मास तक भू-लुण्ठित पड़ा रहा। बिलकुल अकेला। असहाय। मुझसे ज्यादा मेरा परिवार।

आर्थिक दीवालियेपन के उस दौर में समस्याओं का लबादा ओढ़े ढेर सारी ताड़काओं ने मुझे डराना-तोड़ना शुरू कर दिया। तनाव मुझे लगातार झकझोर कर तोड़ता जा रहा था। पीड़ा और वेदना ने मुझे त्रेता व द्वापर की सन्धि पर उपजे और एक स्थायी स्तम्भ की तरह अविचल खड़े परशुराम के तनावों तक पहुंचा दिया, जहां मेरे तनाव एकदम बौने हो गये। अध्ययन आगे बढ़ा तो तर्क-सम्मत सचाइयों ने मेरे दिमाग को भड़भड़ा कर खोल दिया। स्वयं से प्रश्न और प्रतिप्रश्न के आवेगों को अध्ययन व तर्कों ने तुष्ट-पुष्ट करना शुरू कर दिया।

पर साफ लगा कि यह काम मेरे अकेले दम का नहीं। परिचितों की ओर ताकते हुए तो आंखें ही पथरा गयीं। प्रयास जारी रखा तो कुछ ऐसे लोगों का सहयोग मिल गया, जिनसे तनिक भी उम्मीद तो कभी की ही नहीं थी। कड़ी बाधा-दौड़ के बावजूद हौसला हिम्मत बढ़ती ही गयी। कई और भी जुट कर मदद करने आये। टूटन के विरूद्ध एक नयी भरपूर ऊर्जा प्रदान कर देने वाले ऐसे नये सम्बन्धों के प्रवाह ने तटों के एकमात्र प्रचलित अर्थ तक को बदल कर रख दिया। जो अपने लगते थे, वे अचानक पराये हो गये और गैरों तथा अजनबियों तक ने हौसला आफ़जाई कर दी। आश्चर्य ! विश्‍वास हो गया कि जीवन केवल अकेले अपने के लिए ही नहीं होता है। पूरे अपनत्व के साथ जरूरतमन्दों में मिल-बांट कर रहना ही वास्तविक मानवता शब्द का पूर्णार्थ है।

अभियान शुरू हो गया। मैंने पाया, परशुराम के शौर्य को ब्राहृमणों के दिल-दिमाग से पैदल एक मूर्ख-अज्ञानी या स्वार्थी वर्ग ने खूब भुनाया है। ये वे लोग हैं जिनके जीवन का मकसद दूसरों पर झूठी धौंस-पट्टी जमा कर अपना उल्लू सीधा करना मात्र ही है। या फिर एक सियार-श्रंगाल की एक हुक्का-हुआं पर समवेत चीत्कार करना शुरू कर देते हैं। इस तरह ये लोग अपनी सार्वभौमिकता को हमेशा बरकरार रखने का थोथा भ्रम पाले रखने की आधारहीन इमारत खड़ी किये रखते हैं। वे इस तरह शायद समाज को यह सन्देश देना चाहते होंगे कि समय आने पर वे सब कुछ कर सकते हैं, जबकि सब जानते हैं कि हकीकत इसके ठीक विपरीत ही है। मकसद केवल इतना ही कि किसी भी तरह इनका पेट भरता रहे। सदियों से यह धोखाधड़ी और मूर्खतापूर्ण अभियान निर्बाध चलता ही आ रहा है जिसने कई बार आर्यावर्त और भारत के इतिहास की नृशंस और निर्मम हत्या तक कर दी। बिना पर्याप्त व्यवस्था के अपने जामे से बाहर निकल आने का खामियाजा इससे ज्यादा और क्या निकल सकता था।

ऐसे लोगों ने परशुराम को इतना भुनाया गया कि उन्हें केवल ब्राहमणों के देवता तक सीमित कर दिया। बात यहीं तक ही रह जाती, तो भी गनीमत होती। इस दुष्प्रयास ने परशुराम जैसे आदि-निर्दोष और युग-प्रवर्तक को सीधे-सीधे क्षत्रियों के विरुद्ध खड़ा कर दिया। बिल्कुल तर्कहीन ढंग से। निराधार। जबकि परशुराम की पीड़ा को जीना तो दूर, उसे जानने-समझने का प्रयास करने तक का साहस इन लोगों में तनिक भी नहीं। वैदिक सभ्यता को एकमात्र अपनी बपौती मान बैठे मूढ़ों की इस जमात ने एक साक्षात भगवान को जाति-विशेष तक सीमित कर दिया। यह घोर अन्याय हुआ। कुत्सित अन्याय। खैर, यह काफी पहले की बात है। इस पर तो अलग से ही लिख रहा हूं। हालांकि यह कठिन दायित्व है। एक पौराणिक व्यक्तित्व या पीठ को समझना-जानना बहुत मुश्किल होता है। कारण यह कि किंवदंतियां तो भरी पड़ी होती हैं, जबकि तथ्य नदारत।

इस उपन्यास की भूमिका की अगली कडि़यां पढ़ने के लिए कृपया क्लिक करें:- खण्ड-परशु

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