फिर तो हम पहले आसाराम, तेजपाल और गांगुली को बरी करें

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

हमारे हाड़-मांस, रक्त, संस्कृति, शास्त्र व भावनाओं में रचे-बसे हैं परशुराम

: अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष मेरा उपन्यास खण्ड-परशु : आइये, एक अनोखे नजरिये के साथ देखिये महिला की हालत (3) :

कुमार सौवीर

हैरत की बात यह है कि पत्नी हत्या का फरमान यमदग्नि सरीखे ज्ञानी ने जारी किया था। और तब वह व्यक्ति यह तथ्य कैसे भूल गया कि किसी भी दशा में पत्नी की हत्या करने का अधिकार पति को नहीं होता है और यह भी कि पत्नी की हत्या करना ब्रह्म हत्या और गोहत्या के तुल्य महापाप तथा अ-प्रायश्चित अपराध है।

मै जानता हूं कि कई लोग रेणुका-हत्याकाण्ड प्रकरण पर मेरी व्याख्या से सहमत होते हुए भी यही दलील प्रस्ततु करेंगे कि ‘अब इस विषय पर इससे अधिक चर्चा पांचवें सप्तर्षि महर्षि यमदग्नि के शेष जीवन के पुण्य कृत्यों और समाज को समर्पित उनके जीवन पर कीचड़ उछाल देगी। और यह भी तर्क देने लगेंगे कि जीवन की केवल एक घटना मात्र से ही पूरे जीवन की व्याख्या नहीं की जानी चाहिए।

यह सत्य उक्ति है। लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि ऐसी घटना, जिसका समाज पर व्यापक रूप से गम्भीर असर पड़ता हो, को दबाने-छुपाने के लिए मिट्टी डाल कर उसे कब्र में दबोचने के प्रत्येक प्रयास की भरसक निन्दा की जानी चाहिए। क्योंकि अकेली इसी एक घटना से मानव की आधी आबादी हमेशा-हमेशा के लिए प्रताडि़त हो रही है। न्याय की दिशा में वास्तविकता को ही प्रश्रय मिलना चाहिए। और तब ऐसी हर गम्भीर घटना की समीक्षा अनिवार्य रूप से आवश्यक हो जाती है। इस आवश्यकता की उपेक्षा करके हमने कितने ही काले धब्बे इतिहास के पृष्ठों पर सदा-सर्वदा के लिए डाल रखे हैं जो वर्तमान और भविष्य को लगातार मुंह चिढ़ाते ही रहते हैं। ऐसी हकीकतों पर पर्दा-धूल डालने की प्रव़त्ति तो आसाराम बापू, जस्टिस गांगुली और तरूण तेजपाल जैसे लोगों को हमेशा निर्दोष करार देती रहेगी ना !

हमें, आपको अथवा किसी को भी सोचने का तो पूरा अधिकार है। और फिर हम किसी दूसरे अथवा नितान्त अजनबी के जीवन में दखल नहीं दे रहे। यह हमारा अपना निजी मामला है। पूरी तरह पारिवारिक मामला। यमदग्नि या परशुराम कोई दूसरे नहीं, बल्कि हमारे अपने हैं। हमारे हाड़-मांस, रक्त के साथ हमारी संस्कृति, शास्त्रों और भावनाओं में रचे-बसे हैं वे। वे अपनी समग्रता में हम सबके हैं। क्षेत्र, समुदाय आदि की उन पर बपौती नहीं। हो भी नहीं सकती। देवता हमेशा समग्रता में ही होते हैं, एकांगी नहीं।

इसे छोड़ भी दें तो यह हमारे आसपास घटना भी हो सकती है। क्योंकि यह स्त्री-पुरुष के आदिम और चिरन्तन अन्तर्सम्बन्धों की मूल जड़ से जुड़ा प्रकरण है। और उससे प्रत्येक स्त्री-पुरुष अनिवार्य रूप से आबद्ध है। कोई भी अछूता नहीं है इससे। कोई चाह कर भी इससे अलग कैसे हो सकता है, इससे सम्बद्ध होना सृष्टि का नियम है। लेकिन इसकी अवहेलना अथवा इसे ढंके-मूंदे रखने की सामाजिक प्रवृत्ति का सर्वाधिक खामियाजा सिर्फ और सिर्फ स्त्री को ही भुगतना पड़ता है। रोजमर्रा की घटनाएं इसका जीवन्त प्रमाण हैं। किसी भी घटना की समीक्षा हर व्यक्ति अलग-अलग ढंग से करता है। उसकी समीक्षा का आधार उसके नज़रिये और विषय-वस्तु की समझ का स्तर, उसकी ग्राह्यता तथा न्याय के प्रति उसके विश्वास तथा उसके प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष स्वार्थ पर ही तो टिका रहता है ना!

इस उपन्यास की भूमिका की अगली कडि़यां पढ़ने के लिए कृपया क्लिक करें:- खण्ड-परशु

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *