जो रकम मुखबिरों के हिस्से की थी, अफसरों ने डकार लिया

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

: अब सिर्फ मोबाइल सर्विलांस तक ही सिमटे हैं ”नयनसुख” अफसर : सीक्रेट फण्ड का फण्डा औंधे मुंह गिरा, तो तंत्र जमीन सूंघ गया : ठठेरी बाजार में हुई 16 करोड़ की डकैती-लूट और लखनऊ में एचडीएफसी बैंक एटीएम डकैती से साफ है कि मुखबिर-तंत्र नेस्‍तनाबूत हो चुका :  बड़ा दारोगा-तीन :

कुमार सौवीर

लखनऊ : किसी भी अपराध का खुलासा करने के लिए जिन एकाधिक आधारों की जरूरत होती है, वह है कम से कम चार आधार। इनमें एक तो है प्रत्यक्षदर्शियों से पूछताछ, घटना स्थल पर पसरे प्रमाणों की सूक्ष्म छानबीन, परिस्थितियों और पीडि़त से जुड़े लोगों व उनसे हुई कहासुनी का छिद्रान्वेषण। लेकिन इन सबसे सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू होता है पुलिस व प्रशासन का अपना निजी सूचना-तंत्र यानी मुखबिरी। आपको बता दें कि इस सूचना-तंत्र को विकसित करने या उसे निरंतर बनाये रखने के लिए पुलिस को खास मशक्कत करने की जरूरत होती है। पुलिस व प्रशासन इस तंत्र को मजबूत बनाये रखे, इसके लिए सरकार पुलिस को भारी रकम देती है। इसके लिए एक बाकायदा फण्ड होता है जो कानून-व्यवस्था से जुडे हर पुलिस व प्रशासनिक अधिकारी को मिलता है। बजट के लिए इसके लिए अलग धनराशि आबंटित होती है। इसी रकम का संचालन पुलिस व प्रशासनिक के जिला प्रमुख सीधे या अपने अधीनस्थ। अधिकारी को अपने मुखबिरों को पालते-पोसते हैं। खास बात यह है कि इस रकम का कोई भी लेखाजोखा का आडिट नहीं किये जाने की छूट होती है। यह सीक्रेट फण्ड जिला प्रमुखों से लेकर शासन तक बड़े अफसरों तक को मिलती है।

लेकिन बदले हालातों में ऐसा जरा कम ही होने की प्रथा पनपने लगी है। अब यह जिम्मेदार पुलिस दारोगा वगैरह को यह जिम्मा दे दिया जाता है कि वे मुखबिरों को पोषित करते रहें। लेकिन इस सीक्रेट फण्ड में किसी को भी छदाम नहीं दिया जाता है। सूत्र बताते हैं कि अधिकांश दारोगा बाजार से वसूली करता है और उसी रकम से अपना जेबखर्च और अपनी ऐयाशी करता है। इसमें धमकी, पकड़, हफ्ता आदि से वसूली होती है। लेकिन मुखबिरों को अक्सर यह पालन-पोषण नहीं मिल सकता है। ऐसे मामलों में दारोगा कहता है कि तुम्हें जैसे भी हो सके, मुखबिरी करो, वरना जेल में भेज दूंगा। चूंकि लगभग सभी मुखबिरों की पृष्ठिभूमि अपराध ही होती है, ऐसे में वे पुलिस की भृ‍कुटी बदलते ही बेहाल हो सकते हैं। ऐसे में मुखबिर मारे डर के कांख-पाद कर यह काम करने पर मजबूर होता है। इसके लिए वह दूसरे अपराध करना शुरू कर देता है।

लेकिन कभी-कभी कोई मुखबिर पुलिस की इस दादागिरी से झुंझला पड़ता है तो सूचनाओं को संकलन और उन खबरों को आगे बढ़ाने की प्रक्रिया लापरवाही में या फिर जानबूझ कर देता है। ऐसे में छोटे छोटे-मोटे मामलों में तो बहुत ज्यादा दिक्कत नहीं होती है, लेकिन जो बड़े हादसे या सनसनीखेज मामले होते हैं, उनमें भारी गच्चा हो जाता है।

खैर। यह तो सरकारी प्रक्रिया की चूकें हैं, जो ज्यादातर साजिशों और गड़बडि़यों के चक्कर में फलती-फूलती रहती हैं। मगर इसका खामियाजा आम आदमी को भुगतना पड़ता है। बनारस के चौक में ठठेरी बाजार में हुई करीब 16 करोड़ की डकैती-लूट और लखनऊ के डालीगंज में एचडीएफसी बैंक एटीएम में तीन कर्मचारियों को गोली मार कर हत्‍या कर देने के बाद हुई करोड़ों की लूट का पता अब तक पुलिस को नहीं मिल पाया है। वजह यही कि पुलिस के लिए बनाया गया सहज इंटेलीजेंस का ढांचा नेस्‍तनाबूत हो चुका है। और यही वह वजह है जब लखनऊ में मुख्यमंत्री आवास के निकट नाले में बरामद हुई मेरी बिटिया बच्ची और सुल्तानपुर में पत्रकार करूणा मिश्र की हत्या के मामले में यह चूक, बाकायदा इस पूरे सिस्टम को गच्चा दे गयी।

आम पुलिसवाला। यह शब्‍द ही हमारे समाज के अधिकांश ही नहीं, बल्कि 99 फीसदी जनता की जुबान पर किसी गाली से कम नहीं होता है। लेकिन इस गाली के भीतर घुसे उस इंसान  के दिल में कितनी पीड़ा के टांके दर्ज हैं। पुलिसवाला कि नर्क या दोजख का बाशिंदा नहीं होता है। परिग्रही भी नहीं होता। वह भी इंसान होता है। जैसे हम और आप। लेकिन हालात किसी को भी कितना तोड़-मरोड़ सकते हैं, इसे समझने के लिए आइये, यह दास्‍तान पढि़ये। यह पीड़ा है, जो खबर की तर्ज पर है। एक संवेदनशील पुलिसवाले ने इस रिपोर्ताज नुमा इस लेख श्रंखला को मेरी  बिटिया डॉट कॉम को भेजा है। यह हम इसे चार टुकड़ों में प्रकाशित करने जा रहे हैं। इसकी अन्‍य कडि़यों को देखने-पढने के लिए कृपया निम्‍न लिंक पर क्लिक कीजिए:-  बड़ा दारोगा

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