: यूपी के मेडिकल शिक्षा मंत्री ने नहीं दिया असल सवालों का जवाब : निजी मेडिकल कालेजों के ट्रामा सेंटरों पर तो कभी भी हंगामा नहीं, सरकारी संस्थानों में रोज बवाल : नये मेडिकल कालेज समेत एम्स मिला कर कुल 13 संस्थान बनाये जाएंगे, संख्या तो बहुत शुभ है :
कुमार सौवीर
लखनऊ : डॉक्टर के प्रति किसी भी मरीज के बीच ठीक वही भावना और श्रद्धा होती है, जो जिन्दगी देने वाले के प्रति होती है। लेकिन तब क्या कहा जाए, जब जिन्दगी देने वाला समुदाय यानी डाक्टर लोग मरीजों के प्रति शैतान बन कर बाकायदा हमलावर की भूमिका में आ जाएं। यूपी के सरकारी मेडिकल कालेजों में मरीजों के मन में डॉक्टरों के प्रति ठीक वही भावना घर आती जा रही है। शायद ही कोई दिन ऐसा न होता हो, जब किसी ने किसी मेडिकल कालेज में मरीजों या उनके परिवारी जनों की पिटाई न हो जाती हो। और खास बात यह है कि ऐसी सारी हरकतें जूनियर डॉक्टर ही करते हैं। तड़पते मरीज की आह डॉक्टर तक पहुंचाने जाने की तनिक भी कोशिश अगर किसी तीमारदार ने डॉक्टर से की, तो वहां मौजूद डॉक्टरों का आपा पैजामा खोल कर बाहर आ जाता है। फिर होती है, लेत्तेरी की, धत्तेरी की। जूतमपैजार होती है। ट्रामा सेंटर युद्धक्षेत्र में तब्दील हो जाते हैं। मगर इकतरफा। केवल मरीज और तीमारदारों की पिटाई होती है, और डॉक्टर हिंसक हमलावर की भूमिका में आ जाते हैं।
शुक्रवार को मुख्यमंत्री सचिवालय एनेक्सी भवन स्थित मीडिया सेंटर में इसी मसले पर मैंने प्रदेश के चिकित्सा शिक्षा मंत्री आशुतोष टंडन उर्फ गोपाल से सवाल उठाये। आशुतोष टंडन ने अपने विभाग की उपलब्धियों का ढिंढोरा बजाने के लिए एक प्रेस-कांफ्रेंस आयोजित किया था। प्रेस-कांफ्रेंस की शुरूआत में आशुतोष ने घोषणाओं और योजनाओं का पिटारा खोला। बताया कि जल्दी 13 अन्य चिकित्सा संस्थान यूपी में काम करने शुरू हो जाएंगे। मैंने इस पर सवाल उठाते हुए पहले तो आशुतोष पर टिप्पणी की, कि उन्होंने 13 जैसी “शुभ संख्या” को अपनी योजनाओं से आबद्ध कर लिया है। मेरा कहना था कि मेडिकल कालेजों में मरीजों के प्रति मानवीय सम्बन्धों को विकसित किये जाने की कोशिश किये बिना ऐसी तेरहवीं जैसी योजनाएं आम आदमी को बहुत ज्यादा मलहम नहीं दिला पायेंगी।
बहरहाल, मेरा सवाल थोड़ा अलहदा था। सामान्य से अलग। मेरी चिंता का विषय यह है कि आखिर क्या कारण होते हैं जब मेडिकल कालेजों में डॉक्टर लोग अपनी मरीजों और उसके तीमारदारों से हिंसक मारपीट हो जाती है। ऐसे वारदातों में केवल मरीज या उसके तीमारदार ही पीटे जाते हैं। मतलब साफ है कि ट्रामा सेंटर केवल वहां तैनात जूनियर डॉक्टरों जैसे कसाईबाड़ा में तब्दील हो चुके हैं। जाहिर है कि यह आम आदमी को स्वास्थ्य और चिकित्सा की कल्पनाएं और उनकी योजनाएं इस मामले में पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी हैं।
मैंने साफ पूछ लिया कि जो भी हादसे होते हैं, वह सरकारी मेडिकल कालेजों में ही होते हैं। ऐसी हालत में सवाल तो यह है कि ऐसी घटनाओं के लिए जिम्मेदार कौन होता है। क्या मरीज या उनके तीमारदार अभद्र, बदतमीज और हमलावर हैं, या फिर वहां तैनात डॉक्टर ही बदतमीजी पर आमादा होते हैं।
मंत्री आशुतोष कहना था कि ट्रामा सेंटरों पर मरीजों की भीड़ बेहद होती है, ऐसे में संयम बिगड़ जाता है। हालांकि आशुतोष ने इस बात का खुलासा नहीं किया जब ऐसी हालत है, तो उसके निदान क्या क्या कोशिश हो रही है।
कहने की जरूरत नहीं कि मेरे इन सवालों पर आशुतोष टंडन गोपाल ने पहले तो डॉक्टरों की सेहत को लेकर पैबंद टांकना शुरू कर दिया, लेकिन जैसे ही सवालों की झड़ी लगने लगी, तो वे इन सवालों पर टाल कर प्रेस-कांफ्रेंस से कतरा कर निकल गये।