पत्रकारिता: तब हम वाकई वॉच-डॉग थे, अब कुत्‍ता बन गये

मेरा कोना

: पहले अपने समाज की सुरक्षा के लिए चारों ओर मूत्र-विसर्जन करते थे हम लोग, अब अपनों पर ही मूतने में जुट गये : केकड़ों से भी बदतर हो गयी है पिछले बरसों के दौरान पत्रकारों की राजनीति, इसको दबाओ, उसको काटो और उसको नोंचो : सभी प्रत्‍याशियों को किसी घड़े-सुराही की तरह जांचो, वरना हालत और ज्‍यादा बिगड़ेगी :

कुमार सौवीर

लखनऊ : नाम पर मुंह मत बिचकाइयेगा। वॉच-डॉग यानी पहरेदारी करने वाला इंसान। समाज पर आने वाले खतरों को पहले ही सूंघ कर षडयंत्र करने वालों पर भौंकने की फितरत मानी जाती है वॉच-डॉग में। उसे पहरेदार कुत्‍ता इसलिए कहा जाता था, क्‍योंकि कोई भी कुत्‍ता अपने समाज की सुरक्षा के लिए अपने दायरे बनाया करता था, इसके लिए अपने इलाके को पहचाना करता था, उसके घेराबंदी के लिए बाकायदा एक टांग उठा-उठा कर मूत्र-विसर्जन किया करता था। और उस में घुसपैठ करने वालों पर भौंकता, और काट लिया करता था। मंत्री और अफसरों तथा अपराधियों पर दांत गड़ा दिया करते थे ऐसे वॉच-डॉग। एक दौर हुआ करता था, जब वॉच-डॉग होना किसी भी पत्रकार के लिए गर्व और सीना चौड़ा कर देने के लिए पर्याप्‍त हुआ करता था।

लेकिन अब वह दौर बीते वक्‍त की बात हो चुका है। सच बात तो यह है कि हम-आप में से काफी लोग वॉच-डॉग की भूमिका भूल चुके हैं। मेरे प्‍यारे दोस्‍त, मेरे शब्‍दों पर बुरा मत मानियेगा, लेकिन हकीकत यही है कि आज मैं सच बोलने पर आमादा हूं। पूछना चाहता हूं कि पिछले दस-पंद्रह बरस पहले तक बेहद सम्‍मानित माने जाने वाले पत्रकारों की हैसियत इतनी बुरी कैसे हो गयी, उनकी खबरें अविश्‍वसनीय कैसी होने लगीं, उनमें सच कैसे गायब होने लगा, कैसे अफसर और नेतागण हमारे पत्रकारों को अपनी जेब में कैसे बैठाने लगे, और हमने यह सुविधा अपने जमीर को बेच कर कैसे दे दी दूसरों को।

सच बात तो यही है कि अब हम खुद ही कुत्‍ता बनने पर आमादा होने लगे हैं। वहज है हमारे नेतागण। पत्रकारों के जो भी मसले उठते हैं, हमारे नेतागण उसमें पत्रकारों के हित-अहित के बजाय अपनी लाभ-हानि का गुणा-जोड़ करना शरू कर देते हैं। जो कुत्‍ते सत्‍ता, नेता और अफसरों की साजिशों पर भौंका करते थे, वे अब सत्‍ता, नेता, अफसरों की सुरक्षा, वाहवाही और दलाली पर आमादा हैं, और जो मूत्र-विसर्जन समाज को सुरक्षित घेरा दिलाने के लिए किया करते थे हमारे वॉच-डॉग, वे अब हमारी ही बिरादरी यानी पत्रकारों पर मूतने पर आमादा हैं, साथियों पर ही भौंक रहे हैं और उनके हितों पर कुठाराघात करने पर आमादा दिख रहे हैं।

वजह है हमारे ही अपने साथी, जो हमारी सरपरस्‍ती का दावा करते हुए उप्र राज्‍य मुख्‍यालय मान्‍यताप्राप्‍त संवाददाता समिति पर काबिज होते रहे हैं, और इस बीच किसी निहायत घटिया और सड़कछाप मवाली की तरह उन्‍होंने हमारे संगठन को अगवा कर उसे बाकायदा बेच डाला। वरिष्‍ठ पत्रकारों और उनके नेताओं का यह नैतिक दायित्‍व था कि वे नये-नवोदित पत्रकारों का दिशा-निर्देश करें, उनका मार्गदर्शन करें, उन्‍हें सिखायें, उनकी मदद करें, उन्‍होंने अपने इस दायित्‍व से मुंह मोड़ लिया। वजह था उनकी दलाली और उनका दर्प-घमंड। पत्रकारों ने अपने घटिया स्‍वार्थों के चलते हमारी समिति को तोड़ा-मरोड़ा और उसका छिन्‍न-भिन्‍न करने की हर कोशिश की। कमेटी दो-फाड़ तक हुई। पूरे नैतिक मूल्‍य और आदर्श इन नेताओं के चलते चकनाचूर हो गये।

खैर, कहने की जरूरत नहीं है कि इन लोगों-गिरोहों की करतूतों ने हमारी पत्रकारिता और पत्रकार संगठनों की अस्मिता पर भयावह कुठाराघात किया है, लेकिन इसके बावजूद मेरा आज भी यही मानना है कि अभी भी काफी वक्‍त है, जब इन हालातों के खिलाफ युद्ध छेड़ा जा सकता है। हम पूरी गंदी नदी को एकदम से साफ नहीं कर सकते हैं, यह श्रम-साध्‍य और समय-साध्‍य कार्य होता है। लेकिन हम इतना तो कर ही सकते हैं कि इन नेताओं को अपदस्‍थ करें, और कम से कम शुरूआती दौर में इन पत्रकारिता की नदी में शामिल होने वाले गंदे नालों पर रोक लगाने की कोशिश करें।

12 अप्रैल-18 को उप्र हिन्‍दी अकादमी पर पत्रकारिता पर आसन्‍न खतरों को लेकर एक कार्यशाला आयोजित की गयी थी। मैंने भी इस समारोह पर अपनी राय पूरी बेबाकी के साथ पेश कर दी। मेरे इस पूरे व्‍याख्‍यान को अगर आप सुनना-देखना चाहें तो कृपया नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक कीजिएगा:-

बदलती पत्रकारिता पर कुमार सौवीर का व्‍याख्‍यान

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