मैजिस्‍ट्रेट की मदद न्‍यायपालिका ने नहीं, संबंधों ने की

दोलत्ती

: मुझे पूरा भरोसा था कि हाईकोर्ट केवल बुरा कर सकती है : एक जज की आत्‍मकथा- सात :
राजेंद्र सिंह
बांदा: (गतांक से आगे) फिर कुछ दिन पीछे मुझे गोपनीय सूचना मिली कि आपके बच्चों के अपहरण की योजना तैयार हो रही है , संभलकर रहिएगा ।मुझसे कहा गया कि हाई कोर्ट इन्फॉर्म कर दो । मुझे पूरा भरोसा था कि हाई कोर्ट आपका केवल बुरा कर सकती है , इसलिए खुद ही निबटने की सोची ।
जहाँ तेज हवाओं का आना जाना है,
मेरी भी जिद्द है दिया वहीं जलाना है।
इसका समाधान तो मुझे ही करना था । मैंने आदित्य सिंह अधिवक्ता को सब बताया ।उसने कई वकीलों को एकत्रित किया और पता लगवाया की ये सिपाही कहाँ के रहने वाले है ।अब बाँदा के दामाद की इज्जत का सवाल अधिवक्ता समाज के समक्ष आ चुका था ।
लगभग 10 दिन बाद मैं सुबह 5 बजे घर के लॉन पर टहल रहा था ।मेरे गेट पर मुझे दो सिपाही दिखाई दिए ।मुझे देखते ही गेट खोलकर मेरी ओर दौड़े , मैं सकते में आ गया , बदन में एक सिहरन सी उठी । दोनों आकर मेरे पैरों पर गिरकर हाथ जोड़कर लगे बुक्का फाड़ कर रोने और कहने कि सर हम लोगोँ ने कभी आपके बच्चों के अपहरण कराने को नहीं कहा । मैं अपने में गेट में ताला नहीं लगाता था क्योंकि मेरे ससुर कुंवर आनंद देव सिंह सुबह टहलते हुए हमारे यहां अक्सर आया करते थे और साथ मे बाँदा के प्रसिद्ध बोड़ेंराम के समोसे या दूध की बर्फी लाते थे । इस हलवाई का सोहन का हलुआ बहुत प्रसिद्ध था । यहां इस बात का जिक्र करना समीचीन होगा कि गांधी और आचार्य कृपलानी अपनी यात्रा के दौरान मेरे ससुर की कोठी में ठहरे थे और प्रथम मंजिल से बाँदा की जनता को संबोधित भी किया था ।
मैंने सिपाहियों से कहा कि मेरे पास क्यों आये हो । बोले कि बादशाह सिंह विधायक माफिया हमीरपुर ने हम लोगों को कहलवाया है कि अगर मजिस्ट्रेट साहेब के साथ कुछ हुआ तो तुम्हारे पूरे परिवार का सफाया कर दिया जाएगा । मैंने इससे अनभिज्ञता जाहिर की लेकिन मैं जान चुका था कि अधिवक्ता समाज ने अपना काम बखूबी पूरा कर दिया ।काफी देर रोने धोने के बाद और मेरे ये कहने पर कि अगर तुम मेरे साथ कुछ ऐसा वैसा नहीं करोगे तो तुमभी सुरक्षित रहोगे , वे दोनों वहाँ से रुखसत हुए ।कई साल बाद मुझे बनारस से फ़ारूक़ उमर साहब के कोर्ट से एक मामले में गवाही का समन आया । मैं बनारस गया । उमर साहब बोले कि ये दो सिपाही जेल भी रह आये , निलंबित भी हुए , बहुत सजा पा चुके हैं, अब इन्हें माफ़ कर दो । मैंने बयान में कह दिया कि मैं इन्हें पहचान नहीं रहा हूँ ।वे दोनों छूट गए । बताया गया कि बाकी 2 का केस अभी भी इलाहाबाद में चल रहा है ।
आएं फिर चले जज साहब सेवक सरन गुप्ता की ओर । म्यान से तलवारें निकल चुकी थी । वार्षिक निरीक्षण का समय आ गया । मेरे न्यायालय के निरीक्षण के लिए मंपोखी लाल शर्मा , शाही मुंसिफ साहेब इसी नाम से उन्हें पुकारते थे, को अधिकृत किया गया । मेरे न्यायालय के दो निरीक्षण आख्या टाइप हुई । एक जिसके आधार पर मुझे 2, 3 बिंदुओं पर प्रतिकूल प्रविष्टि दी गई ।दूसरी आख्या बाद में मुझे अपने विश्राम कक्ष की अलमारी में फाइलों के नीचे छिपी मिली जिसमें मेरे कार्य की प्रशंसा की गई थी लेकिन फिर दूसरी आख्या में कुछ कमियों का बॉस के इशारे पर समावेश किया गया था । ये कमियां नहीं बल्कि किसी की विक्षिप्त मानसिकता का परिचायक था । मुझे ये तो आभास हो चुका था कि मुझे प्रसाद मिलना है । बस इंतजार था ली बंद लिफ़ाफ़ा मिलने का । (क्रमश:)

राजेंद्र सिंह यूपी के उच्‍च न्‍यायिक सेवा के वरिष्‍ठ न्‍यायाधीश रह चुके हैं। वे लखनऊ हाईकोर्ट के महानिबंधक और लखनऊ के जिला एवं सत्र न्‍यायाधीश समेत कई जिलों में प्रमुख पदों पर काम कर चुके हैं। हालांकि अपने दायित्‍वों और अपनी जुनूनी सेवा के दौरान उन्‍हें कई बार वरिष्‍ठ अधिकारियों का कोपभाजन भी बनना पड़ा। इतना ही नहीं, राजेंद्र सिंह को इलाहाबाद हाईकोर्ट में प्रोन्‍नत करने के लिए कोलोजियम में क्लियरेंस भी दी गयी थी। लेकिन विभागीय तानाबाना उनके खिलाफ चला गया। और वे हाईकोर्ट के जज नहीं बन पाये। अपने साथ हुए ऐसे व्‍यवहार से राजेंद्र सिंह का गुस्‍सा अब आत्‍मकथा लिखने के तौर पर फूट पड़ा। उनके इस लेखन को हम धारावाहिक रूप से प्रकाशित करने जा रहे हैं। उनकी इस आत्‍मकथा के आगामी अंक पढ़ने के लिए कृपया क्लिक कीजिए:-
एक जज की आत्‍मकथा

1 thought on “मैजिस्‍ट्रेट की मदद न्‍यायपालिका ने नहीं, संबंधों ने की

  1. पूरी आत्मकथा पढ़ने की उत्सुकता एक 7वे भाग को पढ़के जगी, वजह ये भी है कि उसी मिट्टी के मेरे पिताजी भी है(रिटायर्ड जज) बस फर्क इतना रहा कि वो ताल ठोक के मैदान मारते थे , पर हाईकोर्ट जज होने का नम्बर आने से ठीक पहले चित्त कर दिए गए।

    टीस ये है कि चित्त होने से कुछ ही दिन पूर्व वो मेरे साथ विमर्श किये थे कि नोकरी छोड़ के बकालत की जाए।

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