: तोशिम खान मेरी इल्म-गाह के बारे में पूछतांछ करना चाहते थे, मैंने जवाब दे दिया : किसी दूसरे को बुरा कहकर खुद को अच्छा कहना इस्लाम की परम्परा में है ही नहीं : जब हदीस में साफ लिखा है कि काफिर को काफिर न कहो, तो मुसलमानों को यह क्यों पढ़ाते हो मौलवी साहब :
कुमार रहमान
बरेली : कोई तोशिम खान हैं… वह यह जानना चाहते हैं कि मैं किस मदरसे से पढ़ा हूं…. वह लगातार इस बात को बताने के लिए इसरार कर रहे हैं… मकसद साफ है… वह मदरसे के नाम के बहाने यह जानना चाहते हैं कि मैं बरेलवी हूं या देवबंदी… उनका आरोप है कि मैं बाहर से आकर अपनी पोस्टों के जरिए बरेली शरीफ को बदनाम कर रहा हूं…
बहरहाल… बता दूं कि मैं यकीनन मदरसे का पढ़ा हूं… लेकिन दुनिया की पाठशाला ने वहां मिले तमाम ज्ञान को खारिज कर दिया… जैसे वहां पढ़ाया गया था कि शाहिद रोज घर से स्कूल जाता है… रास्ते में उसे एक मंदिर मिलता है… वहां लड्डू और तमाम मिठाइयां चढ़ाई जाती हैं… वह सोचता है कि यह कैसे ईश्वर हैं जो न खा सकते हैं और न मिठाइयों पर बैठने वाली मक्खियां ही भगा सकते हैं….
मैं आज तक नहीं समझ सका कि इस पाठ को पढ़ाने के पीछे मकसद क्या था… पता नहीं अब पढ़ाया जाता है या नहीं… लेकिन एक बात तय है कि किसी दूसरे को बुरा कहकर खुद को अच्छा कहना इस्लाम की परंपरा में नहीं है… हदीस है कि काफिर को भी काफिर मत कहो… फिर यह पाठ हम सबको क्यों पढ़ाया गया? मुझे लगता है कि मदरसों की किताबों को फिर से रिराइट किया जाना चाहिए… ताकि हम मुसलमान के साथ-साथ अच्छे हिंदुस्तानी और इन सबसे बढ़कर अच्छे इंसान बन सकें….
आखिरी बात… मदरसे और संघ के स्कूल ठोंक-बजाकर बच्चे को हिंदू और मुसलमान बनाना चाहते हैं… लेकिन वहां से निकले छात्र को दुनिया की पाठशाला अपने हिसाब से ढाल लेती है… और वह मिलजुल कर रहना सीख ही जाता है… ज्यादातर छात्र तो ऐसे ही हैं….. यही हम सब की जीत भी है…
ताजा हवाओं की फिजाओं वाले विचारवान शख्सियत माने जाते हैं कुमार रहमान।
मूलत: फैजाबाद के रहने वाले रहमान इस वक्त बरेली में पत्रकारिता कर रहे हैं।
(अपने आसपास पसरी-पसरती दलाली, अराजकता, लूट, भ्रष्टाचार, टांग-खिंचाई और किसी प्रतिभा की हत्या की साजिशें किसी भी शख्स के हृदय-मन-मस्तिष्क को विचलित कर सकती हैं। समाज में आपके आसपास होने वाली कोई भी सुखद या घटना भी मेरी बिटिया डॉट कॉम की सुर्खिया बन सकती है। चाहे वह स्त्री सशक्तीकरण से जुड़ी हो, या फिर बच्चों अथवा वृद्धों से केंद्रित हो। हर शख्स बोलना चाहता है। लेकिन अधिकांश लोगों को पता तक नहीं होता है कि उसे अपनी प्रतिक्रिया कैसी, कहां और कितनी करनी चाहिए।
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