: कहां हैं राजा राममोहन राय और लार्ड विलियम बेंटिक, दो सौ साल तक हर बार फूंकी जा रही है होलिका : वे क्या जानेंगे जिन्होंने बंगाल का भयावह दुर्भिक्षु देखा-सुना : शहरों का पेट भर गया, तो कृषि गायब और कपोल-कल्पनाएं जुड़ने लगीं : अब किसान नहीं, बेईमान लोग इनकम-टैक्स बचाने के लिए किसान बन रहे :
कुमार सौवीर
लखनऊ : आज होली है। उस पर बाजार लगातार हावी होता जा रहा है, तो रहे। किसी के व्यावसायिक हितों को रोकने की मेरी तनिक मंशा नहीं है। लेकिन इसमें कुछ ऐसे पहलुओं को बेपर्द करने का मौका तो आज समीचीन तो है ही।
तो सबसे पहले इस उत्साह का मूल समझ लिया जाए। होली का जश्न हर समाज, देश या राष्ट्र में मौजूद है। चाहे वह लोहड़ी हो, एमपी का भगौरिया, गोआ का शिमगो या फिर राजस्थान में तमाशा, मध्य प्रदेश में भील भगौरिया जैसे अनेक पर्व हैं। विदेश में भी ऐसे पर्वों की भीड़ लगी है। रोम में रेडिका, इटली में फ्लोरा, अफ्रीकी देशों में ओमेना बोंगा, थाईलैंड में सांग्क्रान, स्पेन में टोमाटीनो, स्पेन में रात, म्यांमार में मेकांग या थिंगयान पोलैंड में अर्सीना नाम का त्योहार मनाया जाता है जो होली की तरह ही रंगों का उत्सव है. इस दिन लोग फूलों के रंग और इत्र से होली खेलते और गले मिलते हैं. पोलैंड में भी इस दिन को दुश्मनी भुलाने के पर्व की तरह देखा जाता है. इसी तरह से चेक गणराज्य में भी बलिया कनौसे, पोलैंड में अर्सीना, चेक गणराज्य में बलिया कनौसे, थाईलैंड में नव वर्ष ‘सौंगक्रान’, जर्मनी व हंगरी का ईस्टर , अफ्रीका में ‘ओमेना वोंगा’, अमरीका में ‘मेडफो’ और होबो, चेक और स्लोवाक में बोलिया कोनेन्से, हालैंड का कार्निवल, इटली में रेडिका, रोम में इसे सेंटरनेविया, ग्रीस का लव ऐपल, स्पेन में भी टमाटर, जापान में, टेमोंजी ओकुरिबी, चीन में होली की शैली का त्योहार च्वेजे, नार्वे और स्वीडन में सेंट जान का पवित्र दिन होली की तरह से मनाया जाता है।
चारबाग रेल स्टेशन पर यूपी पुलिस की नंगी गुंडई
लेकिन उन सब की शुरुआत तो कृषि प्रधान समाज में हुई। घर में नया उपज अन्न आया है, तो उसका उत्साह पर्व के तौर पर बनता रहा है। गांव से शहरों में गये लोग उसे शहर तक पहुंचा आये। लेकिन शहरों ने उसका अर्थ ही बदल दिया। यहां उपभोक्ता समाज और बाजार ने उसको ब्यूटी-पार्लर में नया चेहरा दिया। इसका अहसास आज उन सम्पन्न लोगों को नहीं है, जिन्होंने बंगाल का भयावह दुर्भिक्षु देखा। उस दुर्भिक्षु ने अधिकांश देश में मौतों का तांडव मचा दिया। वे कैसे जानेंगे होली का मर्म, जिन्हें आरआर-21 और के-67 की शक्ल याद नहीं या फिर उन्हें इसे कभी देखाया महसूस तक नहीं किया। मैं बहुत छोटा था। बचपन में मुझे गेहूं की उन प्रजातियों को तत्काल देख लेता था। क्योंकि बहराइच के विभिन्न प्रायमरी स्कूल की टीचर रहीं मेरी मां स्वर्गीय सत्यप्रभा त्रिपाठी अपने अत्यंत अल्प वेतन में हमें छप्पनभोग खिला पाने की औकात नहीं रखती थीं। मजबूरन, हम सब वह अमरीकी दान-कृपा से मिलने वाले लाल गेहूं से बनी वह रोटी खाने को मजबूर थे, जो हमारे गले से बमुश्किलन उतरती थी। लेकिन हरित-क्रांति के तहत नहरों का जाल बिछाया गया, कृषि विश्वविद्यालय और संस्थान बने, श्वेत-क्रांति के तहत गायों का संवर्द्धन किया गया, और हमारे लोगों को स्वादिष्ट रोटी मयस्सर होने लगी। लाल गेहूं वापस विदेशों में जाने लगा, जहां से वह आया था।
तब के साक्षी लोगों से बात कीजिए, वे बतायेंगे कि आरआर-21 और के-67 बनाने वाले संस्थानों ने देश को कितना समृद्ध किया, और उसके चलते ही किसानों ने उत्सवों का स्वाद चखना शुरू किया। उसके पहले भी यह पर्व हुआ करते थे, लेकिन खेतों से घर आने पर आने वाली उपज को लेकर ही नहीं, बल्कि खेतों को जोतने और उसके बैलों व उनके हलवाहों को सम्मान देने के लिए भी। न जाने कितने गीत-संगीत गांवों की महिलाओं ने बुना, गाया और गुनगुनाया।
लेकिन जैसे ही शहरों का पेट भरने लगा, उसमें कृषि गायब हो गयी और उसमें कपोल-कल्पनाएं जुड़ने लगीं। कबीर नामक के महान संत को अश्लील गीतों व नारों के साथ कबीरा-तारातारातारा के तौर पर जयघोष होने लगा। गांवों में स्त्री और पुरुष एकसाथ ऐसे अनुष्ठानों में होते थे, लेकिन अब गांव और शहरों में ही महिलाएं तो अपने घर के आसपास सिमटीं, जबकि शराब में मदमत्त पुरुष जहां-तहां लुंठ-पुंठ होने लगे। कृषि का सत्यानाश होने लगा। अमीर व्यवसायी, घूसखोर नेता, और बेईमान अफसरों ने गांवों की जमीन हड़पना शुरू कर दिया। कुछेक को छोड़ दें, तो अधिकांश ऐसे लोगों का मकसद केवल अपनी काली कमाई को ह्वाइट-मनी में तब्दील करने की साजिश की तरह ही रही।
लेकिन सबसे बुरी हालत तो महिला की हो गयी। सनातन धर्म जब हिन्दूवाद वाले कर्मकाण्ड से बुरी तरह परास्त होने लगा, तो होली का अर्थ और उसकी शक्ल भी भयानक हो गयी। सबसे विद्रूप शक्ल तो औरत की हो गयी। कर्मकांडों ने कहानियों को बुना और प्रह्लाद को एक महिला की गोद में बिठा कर एक धधकते अग्नि-कुंड में झोंक दिया। इसमें प्रहृलाद तो जिन्दा रह गया, जबकि होलिका नामक एक निरीह महिला जल कर भस्म हो गयी।
अब सवाल खुद से पूछिये कि होली में एक महिला को इस तरह जिन्दा फूंक कर डालना क्या न्यायोचित था? क्या आपको ऐसी कोई महिला मिली है, जो आग में झोंकने के बावजूद जिन्दा बची रही हो? फिर होलिका को क्यों आग में फेंका गया? वहां मौजूद लोगों ने उस पर ऐतराज क्यों नहीं किया?
राजा राम मोहन राय ने सती प्रथा जैसी अमानवीय परंपराओं और उनके भयावह प्रभावों को लेकर आम आदमी में आंदोलन छेड़ा और भारतीय समाज सुधारकों को एकजुट कर संघर्ष किया। नतीजा यह हुआ कि चार दिसंबर-1829 को लॉर्ड विलियम बेंटिक सती प्रथा पर भारत में पूरी तरह से रोक लगाने पर मजबूर हो गये।
अब अपने गिरहबान में झांकें और सोचें कि होलिका का दोष क्या था, उसे अग्नि-कुंड में क्यों फेंका गया, और कब तक हम उसकी मौत पर जश्न करते रहेंगे। आइये, होली को होली की तरह ही मनायें, मस्ती करें, नये अन्न को पहचानें और जिन्दा व सकर्मक समाज का हिस्सा बनें। न कि सती-प्रथा का समर्थक।