: रामपुर के सीजेएम की अदालत में हिरासत पर ले लिये गये थे महुआ न्यूज के यूपी हेड कुमार सौवीर : बलिया के पत्रकार तो रिहा, लेकिन अमर उजाला कब अपना चेहरा धोयेगा : अपनी विश्वसनीयता को अपने ही पांवों तले रौंद डाला अमर उजाला ने : ऐसे नमकहराम संस्थानों पर सार्वजनिक थू-थू आंदोलन होना चाहिए :
कुमार सौवीर
लखनऊ : बोर्ड परीक्षाओं के परीक्षापत्रों को लीक करने के मामले में अमर उजाला के पत्रकार अजित कुमार ओझा, दिग्विजय सिंह और मनोज कुमार गुप्ता उर्फ झब्बू भले ही जमानत पर रिहा हो गये हों, लेकिन इस पूरे मामले में खुद का सबसे विश्वसनीय अखबार के तौर पर पेश करने वाला अमर उजाला अखबार का चेहरा बुरी तरह बदरंग हो गया है। इन पत्रकारों ने प्रशासन की चिंदियां तो बिखेर कर उसे अखबार में प्रकाशित कर दिया, लेकिन ऐन वक्त पर अमर उजाला ने इन लोगों को अपना पत्रकार मानने से इनकार कर दिया। हालांकि चार दिन बाद अमर उजाला ने अपनी गलती मानते हुए उन पत्रकारों को अपना मान लिया, लेकिन तब तक तो अमर उजाला ने पत्रकारिता जगत को बुरी तरह कलंकित किये रखा।
यह सच है कि आज पत्रकारों की अस्मिता और उनकी सुरक्षा का कोई भी दावा कोई भी समाचार संस्थान कत्तई नहीं करता है। लेकिन ऐसा नहीं है कि पहले ऐसा नहीं हुआ करता था। कम से कम मैं इतना तो कह सकता हूं कि मैं अपने रिपोर्टर की सुरक्षा के लिए लखनऊ से सीधे रामपुर गया ही नहीं, बल्कि इसी कवायद में अदालतों की काली-करतूतों का साक्षी भी बना। अदालत ने मुझे बिना किसी अपराध में ही मुझे अदालत में बनी हवालात में जबरिया बंद कर दिया।
वह तो गनीमत रही थी कि मैंने चिल्ला कर अदालत का ध्यान आकर्षित किया और अपने साथ हो रही ऐसी करतूत का विरोध किया। इसके बाद चीफ ज्यूडीशियल मैजिस्ट्रेट ने मुझे हवालात से बाहर निकाला। लेकिन सच बात तो यही है कि आज ही नहीं, बल्कि उस वक्त भी कोई भी ब्यूरो चीफ अपने अधीनस्थ कर्मचारियों और पत्रकारों की सुरक्षा और उनके सम्मान के लिए सैकड़ों मील दूर जाने की जहमत नहीं उठाता। इतना ही नहीं, कोई भी संस्थान अपने पत्रकारों की किसी भी कृत्य या त्रुटि के लिए खुद को जिम्मेदारी लेने की भी हिम्मत नहीं जुटा पाता। बलिया में पिछले महीने बोर्ड परीक्षापत्र के लीक किये जाने पर जो कलंकित कृत्य अमर उजाला ने अपने रिपोर्टरों का जिम्मा उठाने से इनकार कर किया है, वह इसका ज्वलंत मामला है।
लेकिन मैंने ऐसा किया। मगर यह कोई मेरा साहसिक कृत्य नहीं था, बल्कि एक सहज कवायद थी, जो किसी भी समाचार संस्थान पर बैठे किसी जिम्मेदारी पदाधिकारी को उठाना ही चाहिए। यह मामला है 17 जुलाई-10 का। उस वक्त मैं महुआ न्यूज चैनल का यूपी हेड हुआ करता था। महुआ न्यूज पर प्रसारित किसी खबर को लेकर रामपुर नगर पालिका परिषद के अध्यक्ष सरदार जावेद ने महुआ न्यूज पर रामपुर के सीजेएम की अदालत में मुकदमा कर दिया था। सरदार जावेद की शिकायत थी कि रामपुर के रिपोर्टर ओमपाल सिंह राज ने कोई एक खबर जारी कर दी है, जिससे सरदार जावेद की प्रतिष्ठा का हनन हुआ है। ओमपाल सिंह का कहना था कि उसने जो भी खबर दी थी, वह सरदार जावेद ने ही अपने मुंह से कही थी।
डीएम साहेब ! तुम चोर हो क्या ?
बहरहाल, सरदार जावेद ने अपने इस मुकदमे पर महुआ न्यूज के मालिक, प्रसारण प्रमुख और रिपोर्टर को प्रतिवादी बनाया था। जाहिर है कि ओमपाल की घिग्घी बंध गयी थी। उसे सपने में भी रामपुर जेल की चक्की दिखने लगी। उधर मुकदमे की नोटिस नोएडा तक पहुंच गयी। नोएडा में महुआ न्यूज प्रशासन को यह पता ही नहीं चल पा रहा था कि इस मामले में प्रसारण प्रमुख किस को माना जाए। इसी झंझट में ही एनबीडब्ल्यू भी जारी हो गया। हमारे संपादक श्री अंशुमान त्रिपाठी ने यह मामला मुझे सौंप दिया।
बलिया में दो-कौड़ी का डीएम: कर दिया “शूट द मैसेंजर”
ऐन वक्त पर मैं मामले की सुनवाई के दिन रामपुर स्थित सीजेएम अदालत पहुंच गया। वहां जाने का मेरा आशय इस पूरे मामले को समझना और उसे निपटाना ही था। हालांकि अदालत ने मेरे विरोध में कोई वारंट या हाजिरी के निर्देश नहीं दिए थे लेकिन चैनल के कतिपय वरिष्ठों और रामपुर रिपोर्टर ओमपाल सिंह राज और केबिल ऑपरेटर शोएब के भी नाम मुकदमा में होने की वजह से कुमार सौवीर ऐहतियातन कोर्ट पहुंच गए। ओमपाल सिंह राज मेरी मौजूदगी से काफी संतुष्ट और आश्वस्त था। हालांकि वकील तो ओमपाल सिंह ने ही तय किया था, उस वकील ने ही सारे कागजात तैयार कर अदालत में पेश कर दिया था। मैं और ओमपाल भी वहां मौजूद थे। वकीलों और वादकारियों की भारी भीड़ भी मौजूद थी।
इसी बीच मेरा मुकदमा लगा, आवाज लगी। मैजिस्ट्रेट ने अपने पेशकार को इशारा किया। पेशकार ने वहां मौजूद पुलिसवालों को इशारा किया। और इसके पहले कि मैं कुछ समझ पाता, पुलिसवालों ने पूरी अभद्रता के साथ मेरी बांह पकड़ी और मुझे अदालत के सामने बने एक जंगला-नुमा हवालात में बंद कर दिया। शोएब भी कठघरे में अंदर।
होहो कर चिल्लाये नंगे पुलिसवाले, “देखो नंगा पत्रकार”
मैं स्तब्ध। ओमपाल सिंह राज लापता। जैसे गधे की सिर में सींग। कुछ देर तक को मेरी समझ में ही नहीं आया कि यहां क्या हुआ और मुझे क्यों हवालात में बंद कर दिया गया। इसके बाद मैंने हवालात के बाहर तैनात एक सिपाही से माजरा पूछा, तो उसने मुझे गंदी गालियां दे कर मुझे चुप रहने की सलाह-नुमा आदेश जारी कर दिया। मेरी ही समझ में नहीं आ रहा था कि मुझे किस अपराध में यहां बंद किया जा रहा है। मैंने फिर पुलिसवाले से पूछा, तो वह फिर गालियां देने लगा।
बस्ती के पत्रकारों में बलियाटिक कदमताल। बोले, डीएम चोर है
इस पर मेरा सब्र टूट गया। मैंने सीजेएम को संबोधित करते हुए चिल्लाना शुरू कर दिया। यह शायद अचंभा ही था वहां की अदालत के इतिहास में। पूरी अदालत खामोश हो गयी। मैजिस्ट्रेट भी असहज हो गया। मैंने तेज आवाज में सविनय रूप से अदालत से कहा कि इस मामले में उनको कोई भ्रम है, मैं इस मामले में दोषी या अभियुक्त नहीं हूं। सीजेएम ने इशारे से पेशकार से कुछ कहा। पेशकार ने सिपाही को बुलाया। कुछ कहा। फिर वही पुलिसवाला जो मुझे गालियां दे रहा था, वह हवालात से मुझे बाहर निकाल कर पूरे सम्मान के साथ अदालत में एक कुर्सी खाली करने पर बैठा आया। शोएब भी बाहर आये। इसके कुछ घंटों बाद के बाद सीजेएम ने मुझे अपने चैम्बर में बुलाया। मैंने अपनी पूरी बात रख दी। उसके बाद में एकाध कागजों पर दस्तखत कराया गया। और मैं इस झंझट से मुक्त हुआ।
हालांकि बाद में फिर मुझे एक अदालती नोटिस मिली। न जाने कैसे और क्यों। लेकिन मैं रामपुर फिर गया। वहां भी एक दूसरे मैजिस्ट्रेट ने मुझसे कुछ इस तरह व्यवहार किया, जैसे मैं नटवर लाल हूं। मेरे वकील से उसका कहना था कि आइंदा तुम्हारा अभियुक्त टाइम से नहीं आया, तो वह मुझे उल्टा टांग देगा। यह बहुत अभद्र, आपत्तिजनक व्यवहार था। खास कर तब, जब वह मैजिस्ट्रेट न्याय की कुर्सी पर बैठा था।
बलिया के पत्रकार चाटेंगे शिलाजीत। पूंछ रखेंगे पिछवाड़े में
मैंने तत्काल इसका लिखित विरोध व्यक्त करते हुए साफ कहा कि इस मामले में वह तय करें कि मैं इस प्रकरण पर अभियुक्त हूं भी या नहीं। और अगर जब तक ऐसा नहीं होगा, मैं इस प्रकरण पर अदालत में नहीं जाऊंगा।
हैरत की बात है कि इस प्रकरण के बाद उस अदालत ने मेरे उस विरोध-पत्र पर कोई फैसला किया ही नहीं। हालांकि उस के बाद मैं रामपुर कई बार गया, लेकिन न तो अदालत का कोई वारंट आया और न ही मुझे कोई आदेश ही मिला।
अब बलिया का मामला है। अभियुक्त हैं पत्रकार। और अपने पायजामा का नाड़ा छुपा बैठा है अमर उजाला। तो पहले इस संस्थान को भी लानत भेजने की कोशिश कीजिए न।
बलिया में आज ही पीटे जाएंगे कुमार सौवीर
बाकी बात रही उस मसले की, कि वे पत्रकार वाकई पत्रकार हैं या भी नहीं, उस पर बातचीत बाद में कर ली जाएगी। वैसे भी मेरा मानना है कि ऐसे पत्रकार भी कम नीच नहीं होते हैं। अकेले बलिया में ही पत्रकारों ने मेरी बात पर जिस तरह का निकृष्ट व्यवहार किया, वह ऐसे तथाकथित पत्रकारों पर एक तमाचा ही नहीं, बल्कि भीगे जूतों से कम नहीं है। वह तो उस वक्त का पुलिस कप्तान और तत्कालीन डीआईजी ही था, जिसमें इतना साहस ही नहीं था कि वह इस मामले पर तनिक भी हस्तक्षेप कर सकता। वरना बलिया के ऐसे पत्रकारों को उसी वक्त जवाब दिया जा सकता था।
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