रांड़, सांड़, सीढ़ी, संन्यासी से मत बचो। यह सब दायित्व हैं

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

: आवा राजा बनारस, आज फिर घुसल जाओ बनारस मा : इसी गूढ़ार्थ के आधार पर ही तो आज जीवित है काशी :

कुमार सौवीर

लखनऊ : आइये, आज फिर घुसा जाए बनारस में। बनारस में घुसने को हला जाता है। मुझे पता नहीं कि यह हलना शब्द कैसे बना। शायद हल से बना होगा। हल वही, जो आर्यावर्त में कृषि का प्राचीन उपकरण रहा है। हल की प्रवृत्ति होती है कि वह उपज के लिए पहले जमीन को खोदता है, उसमें बीज के लिए स्थान बनाता है। एक नाली जैसा आकार देता है, जिसमें प्रस्फुटन की प्रक्रिया शुरू हो सके।

लेकिन हल की सबसे पहली जरूरत तो खेत से झाड़-झंखाड़ साफ करने में होती है। अगर खेत से खर-पतवार या झाड़-झंखाड़ भरा रहा तो, पूरी की पूरी खेती दक्खिन हो जाती है। चाहे उसमें लाख खाद-पानी पड़ चुका हो। ठीक यही हालत दिमाग और दिल के बारे में भी है। आपको किसी को समझने की कोशिश करने से पहले तो सबसे पहले आपने दिल-दिमाग के झाड़-झंखाड़ और जाले साफ करने ही पड़ेंगे। और खास तौर पर, जब आप बनारस में दाखिल हो रहे हैं।

तो सबसे यह समझ लीजिएगा कि गंगा नदी में सूरज की पहली किरणों को ही सुबह-ए-बनारस नहीं कहा-माना जाता है। अरे रजा बनारस, यह आध्यात्मिक नगरी है। यहां सुबह-ए-बनारस का मतलब होता है खुद में अध्यात्म को जागृत करना, उसे आत्मसात करना। और यह काम आप केवल किसी घाट पर ही नही, बल्कि कहीं भी कर सकते हैं।

लेकिन काशी में आध्यात्म की दिशा केवल हासिल करना ही नहीं है। बल्कि देना भी है। बनारस के बारे में आप को खूब सुनने को मिलेगा:- रांड़, सांड़, सीढी, संन्यासी। इनसे बचे, वो सेवै कासी। मतलब यह कि काशी का प्रवास केवल वही लोगों को सार्थक हो सकता है, जो काशी की रांड़, सांड़, सीढ़ी और संन्यासियों से बच सकें। इन लाइनों का अभिप्राय यह होता है कि चारों तत्व काशी के प्रवास में बाधा हैं। इसलिए यहां आने वाले प्रत्येक धर्मभीरू को इनसे बचना चाहिए।

लेकिन यह तो बनारस की आत्मा के सख्त प्रतिकूल है। प्रतिकूल क्या, अनर्थ है। यह अनर्थ तो वो फैलाते हैं, जो न काशी को जानते हैं और न उसे समझने की कोशिश ही करते हैं। वे लोग विशुद्ध विक्रेता हैं। काशी, आध्यात्म और धर्म से उनका कोई भी लेन-देना नहीं होता है। वे केवल बेचते हैं। जो भी समझ में आये, बेच देते हैं, जो भी फंस जाए, उसे थमा देते हैं।

लेकिन इस पंक्ति का वास्तविक अर्थ क्या है, आपको इसका जवाब भी बनारसी लोग ही देंगे। वे लोग, जो लोग काशी, धर्म और आध्यात्म को जीते हैं, उसके अर्थ का विश्लेषण करते हैं। ज्ञान की अनोखी धारा के निर्माण के लिए जमीन और खेत तैयार करते हैं। यह लोग न होते तो काशी न जाने कब की खत्म चुकी होती।

ओहिजा एगो बकलोल हवैं, नाम ह तिरलोचन सास्त्री। मानस मंदिर वाले त्रिलोचन शास्त्री प्रसाद। जी हां, आप उनसे समझिये। लेकिन यह लोग बकलोल नहीं, मर्म-ज्ञानी हैं। चाहे वे परम्परागत कर्मकाण्डी अवधराम पाण्डेय हों जो देश भर में दौड़-दौड़ कर काशी के झण्डे गाड़ते हैं, या फिर विशुद्ध व्यवसायी गोकुल शर्मा जो चौसट्ठी घाट पर गेस्टहाउस संचालित करते हैं। आइये, समझ लिया जाए इस मर्म को, जो इस काशी की जीवन्तता का इकलौता आधार है।

अच्छा, एक बात बताइये। पूरे बंगाल के पुरूषों के आभिजात्य संस्कारों ने खुद को खूब सम्पन्न किया। लेकिन बंगाली महिलाओं की जो दुर्दशा इन्हीं बंगालियों ने की, वह नरसंहार से कम नहीं था। उन्होंने अपनी विधवाओं की सुंदरता को खत्म करने के लिए न सिर्फ उनके केश मुंड़ा दिये, बल्कि उन्हें मरने के लिए काशी भेज दिया। अब आप जब यहां मोक्ष लेने के लिए काशी आये हैं तो यह आपकी जिम्मेदारी बनती है कि आप यहां की विधवाओं के लिए कुछ करें।

महादेवाधिदेव शंकर-शम्भू का नन्दी सांड़ काशी में सह-अस्तित्व का प्रतीक है, जो प्रच्छन्न घूमता रहता है। पूरे शहर में, पूरी संस्कृति में। इस संस्कृति का सम्मान करने के लिए सांड़ की आजादी की परम्परा है। उसे समृ‍द्ध कीजिए।

गंगा नदी के किनारे किसी पवित्र दामन-आंचल की तरह चार मील तक फैले हैं 84 घाट। इन घाटों पर बनी हैं असंख्य सीढियां। यह सीढियां ही तो माध्यम और प्रतीक हैं भौतिकता से बेमिसाल और प्रवाहमान गंगा नदी को मोक्ष तक पहुंचाने की। आइये, इन सीढियों को अपनाइये और उन्हें समृद्ध कीजिए न।

संन्यासियों और साधुओं ने काशी को एक माहौल उपलब्ध कराया है। सायास नहीं, अनायास। उन्हें काशी की जरूरत थी, इसलिए वे यहां आये। और उनकी भीड़ ने काशी में काशी आनेवालों के सामने एक गजब का औरा यानी प्रकाश-चक्र तैयार किया जो किसी भी प्राथमिक शिक्षार्थी को तत्काल आकर्षित कर देता है। तो फिर आप भी तो यहां के संन्यासियों और साधुओं के लिए भी कुछ कीजिए।

सदियों से मोक्षकामियों ने काशी के माध्यम से धर्म और आध्यात्म को समझने की कोशिश की है। और काशी को दक्षिणा देने के तौर पर किसी ने यहां घाट बनाये हैं, किसी ने सीढियां बनायी हैं, किसी ने पशुशालाएं बनायी हैं, किसी ने विधवाओं के लिए आश्रम बनाये हैं तो किसी ने साधु और संन्यासियों के लिए आश्रय-संस्थान बनाये हैं।

तो अब आप भी तो कुछ कीजिए न। काशी के लिए।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *