: कहते हैं सब कि यह रकम देश की है, लेकिन सब बेफिक्र : देश भाड़ में, देश में सवा अरब से ज्यादा दावेदार खामोश :
कुमार सौवीर
लखनऊ : एक तो बेहद समझदार, प्रबंधन-कुशल और त्वरा-निर्णय कर्ता होते हैं। जैसे विजय माल्या। जो कर्ज के नाम पर हजारों-लाखों करोड़ रूपया लेकर हमेशा-हमेशा के लिए विदेश निकल गये, और अब बाकी देशवासियों को गरिया रहे हैं कि खबरदार जो मेरे बेटे के बारे में कोई उल्टा-पुल्टा बोले। सोच लेना, मैं अभी जिन्दा हूं।
या फिर सुब्रत राय जैसे टोपी-मास्टर, जिन्होंने पब्लिक से करोड़ों-करोड़ों रूपया उगाह लिया और जमकर ऐयाशी की। उनका धंधा था:- इसकी टोपी, उसके सिर। देश-जनता की कमाई इसने विदेश में खपा दिया और अपनी बीवी-बच्चों को विदेश में सेटल कर दिया। खुद खुद भी भाग निकल पाने की जुगत में था सुब्रत, लेकिन अचानक अदालत ने उसे दबोच दिया। पिछले दो साल से तिहाड़ में आलीशान मौज ले रहा है सुब्रत राय। सुब्रत भी कह चुका है कि पैसा नहीं दे पाऊंगा, लेकिन पब्लिक खामोश है, क्योंकि वह पैसा भी पब्लिक का था नहीं। बाकायदा हराम की रकम थी, जो या तो घूस से आयी थी या फिर टैक्स-चोरी की। और आपको एक खास राज की बात बताऊं कि इस देश की जनता भी इतनी भी भोली-भाली नहीं है, जितनी दिखायी पड़ती है।
दूसरी श्रेणी के लोग वे हैं जो या तो नेता होते हैं या फिर अफसर। यह दोयम दर्जे के समझदार होते हैं, लेकिन होते हैं समझदार। सुब्रतों-माल्याओं के सामने अपनी पूंछ हिलाते हैं, उनके तलवे चाटते हैं। घूस देकर अफसर बनते हैं और फिर घूस खाते हैं, अनवरत। हवा-हवाई योजनाओं के लिए माल्याओं-सुब्रतों को लोन देते हैं और बदले में कमीशन खाते हैं। नेता लोग कौव्वे की तरह केवल निगहबानी करते हैं और माल्यों–सुब्रतों की पूंछ दबोच कर पैसा उगाह लेते हैं। बिना कुछ किये-धरे। माल्या-सुब्रतों की पोल खो जाए भी तो उन नेता-अफसरों का कुछ नहीं उखाड़ पाता है। यह लोग केवल मौज ही लेते हैं, हर हाल, हर वक्त।
और तीसरी श्रेणी के लोग होते हैं बेवकूफ। जैसे मैं और हम। हां हां, आप भी। न आपका पैसा डूबा होता है और न मेरा। न तो मैं माल्या-सुब्रत का रिश्तेदार हूं और न आप। न आपको उनसे कोई दुश्मनी है, और न मुझे। न जेल मैं गया हूं और न आप। न जेल से आपको बाहर निकलना है और न मुझे। लेकिन तसल्ली, न आपको हो रही है और न मुझे। रह-रह खिसिया और खौखियाय रहे हैं आप और हम।
किसका पैसा, किसने दिया, किसको दिया, क्यों दिया, कब दिया, काहे दिया, कब दिया, किसलिए दिया, कब वापसी होगी, कौन अदा करेगा, किसको अदा करेगा, सोच-सोच कर दिमाग खराब हो जाता है। तुर्रा यह है कि यह रकम न तो आपकी और मेरी है, और न ही इसकी वापसी आपको-मुझको मिल पायेगी। लेकिन दिमाग में धींगामुश्ती चल रही है। इसी को तो कहते हैं कि ठलुआ-चिन्तन।
अब क्या कहा जाए। हकीकत तो यही है कि देश ऐसे ही बकलोलों के चक्कर-घिन्नी बना घूम रहा है। विदूषक की तरह, जो रंगमंच पर आसमान में तलवार भांज रहा है।
हैरत की बात है कि खरबों-खरब रूपया इधर का उधर हो जाता है, लेकिन जनता पर कोई फर्क ही नहीं पड़ता। यह जानते हुए भी यह सारी की सारी रकम उसी की है, देश की है, लेकिन देश के सवा अरब वाले दावेदारों में से कोई भी शख्स बोल नहीं रहा है।
कम्म्माल है