: आज पापा की पुण्य-तिथि है : अच्छा ही रहा कि पापा 53 बरस की उम्र में दिवंगत हो गये : मौत हमेशा संदेहों, संशयों व शिकवा-शिकायतों को खत्म करती है : पितृ-दायित्वों को निपटा कर जल्दी ही दुनिया से विदा हो जाओ, तो दुनिया कोर्निश करेगी :
कुमार सौवीर
लखनऊ : मेरे पापा, यानी स्वर्गीय सियाराम शरण त्रिपाठी। सन-70 और सन-80 के दशक में पत्रकारिता के आसमान पर अडिग ध्रुव की तरह दमकते तारा, जहां से पत्रकारिता की दिशा तय होती है। केवल पत्रकारिता ही नहीं, पापा ने पत्रकारिता जगत को जगमगाने के लिए अपने आप को होम करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। पापा आईएफडब्ल्यूजे के राष्ट्रीय सचिव और यूपीडब्ल्यूजे के महासचिव थे। प्रदेश के अधिकांश जिलों में आईएफडब्ल्यूजे की जितनी भी इकाइयां हैं, उनका गठन पापा ने ही कराया। लेकिन आखिरकार पत्रकार-राजनीति और आईएफडब्ल्यूजे पर कुंडली मारे मठाधीश के-विक्रमराव ने पापा को करारी शिकस्त दे दी। पापा इस शिकस्त को बर्दाश्त नहीं कर पाये, और सन-85 की 27 जनवरी को ही उनका देहावसान हो गया।
पापा और मुझ में कई समानताएं रही हैं। मसलन, विचार-मग्न माहौल के दौरान वे अपने दाहिने या बायें हाथ की उंगलियों से अपने बायें माथे को हल्की सी खुजली करना शुरू करते थे। मगर एक टाइम में सिर्फ दो या तीन बार ही। मेरा हाथ भी उनकी ही तरह अचानक अपने माथे पर पहुंच जाता है। उनको भी गुस्सा खूब आता था, मैं भी अपने गुस्से पर काबू नहीं कर पाता। पापा को पढ़ने की आदत थी, मुझे भी है। उन्हें पचासों हजार कविता, शेर और गजलें मुंह-जुबानी याद थीं, मैं भी पापा के नक्श-ए-कदम पर था। वह तो 10 बरस पहले मुझ पर ब्रेन-स्ट्रोक हुआ, तो मेरी सारी याददाश्त ही दक्खिन हो गयी। दिमाग के कई सेक्टर हमेशा-हमेशा के लिए खत्म हो गये। लेकिन म्यूजिक, तरन्नुम और माउथ-ऑर्गेन आज भी मेरी जुबान पर चढ़ा है। वे संगीत के प्रेमी थे, और अक्सर गुनगुनाया करते थे।
पापा को सम-वैचारिक लोगों से मिलने का जुनून था। मुझे भी है, लेकिन पापा अपने इस जुनून में सलेक्टिव थे, जबकि मैं किसी के साथ भी एटरेक्ट कर सकता हूं। दोस्ती को हर कीमत पर निभाना मैंने पापा से ही देखा है, महसूस किया है और सीखा भी है। पापा को मैंने को बड़ी-बड़ी हैसियतदार शख्सियतों से मित्रता करते देखा है, लेकिन उनकी मित्रता में किसी स्वार्थ-भाव की प्रत्याशा मैंने कभी भी नहीं महसूस की। वे कई मुख्यमंत्री, मंत्री और वरिष्ठ अधिकारियों व हाईकोर्ट के जजों में भी नहीं, बल्कि अमृतलाल नागर जी के भी अभिन्न और लोकप्रिय रहते थे, वे आम आदमी की ही तरह और आम आदमी के मूल्यों की ही तरह अडिग दिखे। नागर जी तो कई बार मेरे घर आये।
मुझे भी अपनी बच्चों को दुनिया की सारी खुशियां लुटाने में आनंद आता है, पापा की ही तरह। लेकिन पापा के पास कभी भी आर्थिक-दौलत कभी जुट ही नहीं पायी, कि वे अपने परिवार की जरूरतों को पूरी तरह निभा सकते। ठीक उसी तरह जैसे मेरी औकात। कैसरबाग की सब्जी-मंडी में सबसे आखिर में पहुंचने वाले लोगों में पापा भी थे। अक्सर ही वे जडि़यल भिंडी या गोभी के पत्तों का बोरा लेकर घर पहुंचते थे कि हम लोगों के प्राण हलक में फंस जाते थे। लेकिन पापा तर्क दिया करते थे कि हरे पत्ते, साग और सब्जियां स्वास्थ्य के लिए सेहत के लिए बेमिसाल होती हैं। मैं भी सर्दियों में पचासों किलो सोया-मेथी का साग बेहद सस्ते में खरीदता था, उसे बीन कर उसका पाउडर बनवा कर डब्बा भरवा देता था। यह सोच कर कि आफ-सीजन होने पर बच्चों को साग खिला सकूंगा। लेकिन मैंने हमेशा देखा कि मेरे तर्कों से मेरे बच्चे अपना मुंह बिचकाते हैं।
पापा भी अमीरों की उतारन-वाले कपड़ों की बाजार यानी निक्सन-मार्केट में अपने लिए परिधानों को खोजते-टटोलते और मोल- भाव किया करते थे। मैंने भी अपने बच्चों के लिए ऐसी बाजारों से अभी कुछ बरसों तक सर्दियों के कपड़े खरीदा है। मेरा एक अनुज-वत है डॉ शशिकांत त्रिपाठी, उसका कहना है कि एमएचए कम्पनी के कपड़े सस्ते, आकर्षक, टिकाऊ और उच्चतम कोटि के होते हैं। शशिकांत के मुताबिक एमएचए यानी मरा हुआ अंग्रेज से उतारे गये कपड़े।
पापा भी अतिवादी थे, मैं भी हूं। भावुकता में मैं किसी भी सीमा के पार जा सकता हूं, लेकिन उसमें हिंसा या अराजकता तनिक भी नहीं। ठीक मेरे पापा की ही तरह। वे भी प्रयोगवादी थे, मैं भी प्रयोगवादी हूं। इश्क के मामले में भी मैं पापा की तरह बेहद डिमांडिंग हूं। लेकिन इश्क का मतलब केवल सेक्स नहीं, बल्कि बेहद इश्क के प्रति समर्पित भाव में जीने की फितरत थी पापा में, और मेरी भी है। दुराचार तो कत्तई नहीं। अब यह समीक्षा का वक्त या जरूरत नहीं है कि हालातों के लिए जिम्मेदार कौन था, लेकिन सच बात तो यही है कि पापा भी अपना बिखरा दाम्पत्य-जीवन भोगते रहे, मैं भी ऐसी ही बिखरी दाम्पत्य-विभीषिका का बुरी तरह रौंदा हुआ वजीर साबित हुआ।
लेकिन चाहे कुछ भी हुआ हो, कितने भी गम्भीर आर्थिक संकट रहे हों, पापा ने अपने बच्चों की जरूरतों को सर्वोच्च अहमियत दी। पत्रकारिता करते हुए मुझे 41 बरस हो चुका है, लेकिन इस पूरे दौरान मैं केवल 16 बरस ही नौकरी कर पाया। इसके बावजूद मुझे अपने आप पर पूरा गर्व है कि मैंने अपने बच्चों की जरूरतों के प्रति कोई भी कोताही नहीं की।
पापा भी अदम्य जिद्दी थे और मैं भी दुर्धर्ष जिद्दी। जो ठान लिया, सो कर लिया। पापा ने भी जीवन भर पत्रकारों को एकजुट करने में प्राण-प्रण की ताकत लगा दी, लेकिन आखिरकार उन्हें पत्रकारों की राजनीति ने धोबी-पाटा दे दिया। ठीक उसी तरह मैं भी अपनी पहली नौकरी साप्ताहिक सहारा से ही मजदूरों के लिए जूझने लगा। नतीजा हुआ कि सुब्रत राय ने मुझे नौकरी से निकाल दिया। लेकिन मजदूरों का बल मेरे साथ था, नतीजा यह हुआ कि आखिरकार सन-1984 की जुलाई में एक दिन हजारों मजदूरों ने मेरे अखबार को घेर लिया और उसी बीच मैंने सुब्रत के भाई जयब्रत राय को पटक कर जूतों से जमकर पीटा। मगर उसके बाद मेरी छवि विद्रोही पत्रकार की बन गयी, जिसका भारी नुकसान मुझे बाद की नौकरियों में भुगतना पड़ा।
पापा और मुझ में कई फर्क भी रहा है। मसलन, पापा अब महज 53 बरस की उम्र में ही अतीत में तब्दील हो चुके थे, जबकि मेरा दुर्भाग्य देखिये कि मैं अभी तक जिन्दा हूं। मैं जानता हूं कि यह स्थिति मेरे लिए निजी स्तर पर बेहद शोक और दुख-जनक है।
चाहे वह घरेलू मामलों की बात हो, या फिर नितांत घरेलू अथवा दाम्पत्य जीवन से जुड़ी दिक्कतें-शिकायतें, पापा ने कभी की मामले में किसी तीसरे से कोई भी शिकायत नहीं की। मम्मी से पापा की कभी नहीं निभी, और मम्मी ने बहराइच में जाकर प्रायमरी स्कूल की नौकरी शुरू कर ली। मम्मी हमेशा हम भाई-बहनों से पापा की बुराई किया करते थे, उनकी देखा-देखी मेरी मौसियों और नानी व मामा वगैरह ने भी पापा को उनकी गैर-मौजूदगी में ही सार्वजनिक रूप से जमकर कोसा। लेकिन पापा ने कभी भी हम सा किसी के सामने एक बार भी ऐसे लांछनों-आरोपों पर कोई जवाब नहीं दिया। वे लगातार जहर पीते रहे। और आखिरकार मौत के आगोश में चले गये। लेकिन मैं अपने जीवन की घटनाओं को लेकर पापा की तरह पूरी तरह खामोश नहीं हो पाया। पापा खामोशी का घूंट पीते हुए पल-पल मौत की ओर सरकते गये, जबकि मैंने कुछेक मौके पर अपनी व्यथाओं को अपने परिवार और दो-चार मित्रों के सामने जाहिर किया। हां, मेरी तरह पापा कभी भी खुल कर या ठठाकर नहीं हंस पाये, जबकि मैं बात-बात पर ठहाके लगाता रहता हूं। नतीजा, यह कि मैं जिन्दा रहने को अभिशप्त हूं, जबकि पापा मौत के एवरेस्ट से भी ऊपर चले गये।
मैं लाख मानता, करता या कहता रहूं, लेकिन मैं खूब जानता हूं कि मेरे बच्चों की नजर में मैं एक समग्र आदर्श-व्यक्ति नहीं बन पाया हूं। और पिता तो हर्गिज नहीं। यह मैं लाख समझाने की कोशिश करुं कि मैं अपने बच्चों को उनकी सारी अपेक्षाओं को इसलिए नहीं पूरा कर पाया, क्योंकि मेरी आर्थिक क्षमता ऐसी थी ही नहीं, कि मैं उनकी सारी जरूरतों को पूरा कर सकता। और आज जब मैं उनकी सारी जरूरतों-ख्वाहिशों को पूरा करने की कोशिश करता हूं, तो मैं खूब जानता हूं कि वे मेरे ऐसे प्रत्येक प्रयास को मेरे प्रायश्चित की तौर पर ही देखते-समझते हैं, जिसे किसी पाप को धोने की कोशिश के तौर पर किया जाता है। मैं जानता हूं कि मेरे बच्चों खूब पता है कि उन्हें मुझ से पिता-वत प्रेम नहीं मिल पाया। ऐसा प्रेम, जो समग्र होता। जिसमें एक परिपूर्ण परिवार होता, सभी सदस्य हंसते-खेलते हुए हर पल एंज्वाय करते। हर सदस्य एक-दूसरे से जुड़ा होता। एक-दूसरे की समस्याओं, कष्टों, विवादों पर एकसाथ बातचीत करता, उनके समाधान की कोशिश करता। जोकि मैं लाख कोशिश करने के बावजूद नहीं कर पाया।
अपने बच्चों के विश्लेषणों का सार को अगर मैं सच कहूं, तो मैं एक असफल पिता हूं। एक बुरी तरह पराजित, असहाय, और अशक्त योद्धा, जिसने अपने ही अस्त्र-शस्त्र से खुद को ही नहीं, बल्कि अपने पूरे परिवार को भी क्षत-विक्षत कर डाला। बेबस, और कई मामलों में निर्वीय और हेय-योग्य पिता।
इसके बावजूद मेरे और मेरे पिता की स्थिति में बड़ा फर्क है, जमीन-आसमान का फर्क। मूल्यांकन का फर्क, सोच का फर्क, और निष्कर्ष की क्रियाविधि का भी फर्क। बावजूद इसके कि पापा के व्यवहार के चलते ही मैं बचपन में अपने घर से भागा। करीब चार-साढ़े चार साल होटलों में कप-प्लेट धोने की नौकरी की, रिक्शा चलाया, मजदूरी की और इसके बावजूद आज एक मुकाम तक पहुंच गया हूं। मैं पूरे विश्वास और आस्था के साथ कहता हूं कि अगर हमारे पिता के गुण भी मेरी परिश्रम और सफलता तक पहुंचने में निर्णायक साबित कर पाये। लेकिन मैंने पापा को केवल पिता ही नहीं, बल्कि एक व्यक्ति के तौर भी देखा और उनका मूल्यांकन किया है। पापा से मेरा शुरुआती विवाद तो रहा, लेकिन मैंने पापा के सारे पहलुओं को बहुत करीब से देखा और महसूस किया है। दो-टूक बात तो यही है कि मेरी निगाह में मेरे पापा महान थे, और व्यक्ति के तौर भी बेमिसान इंसान थे। लेकिन जहां तक मैं समझता हूं कि मेरे बच्चों की नजर में मैं कभी भी एक ऐसा व्यक्ति नहीं बन पाया, जिस पर वे गर्व कर पाते। पिता के तौर पर भी उनका साफ मानना है कि मैंने अपने दायित्वों का निर्वहन केवल इसीलिए किया, कि मैैं या तो अपने दायित्व-भार को उतारना चाहता हूूं, या फिर अपने जीवन के फैसलों का प्रायश्चित।
ऐसा नहीं है कि मेरी हालत और मेरे पिता की हालत में कोई बड़ा फर्क था। वे भी तो अपने जीवन में यही और ऐसे हालातों से दो-चार होते रहे थे। पापा जितना भी कर सकते थे, कर गये। ठीक उसी तरह, जैसे मैं। पापा ने अपनी इहलीला को 53 बरस तक सिमटा लिया और प्रस्थान कर गये। लेकिन मैं अभागा था, कि अभी तक जिन्दा हूं। मौत हमेशा संदेहों, संशयों और शिकवा-शिकायतों को खत्म कर देती है।
काश ! मैं मर जाता, तो महान बाप बन जाता
“जनमत मरत दुसह दुख होई। अहि स्वल्पउ नहिं ब्यापिहि सोई।।“ जन्म ही अपार कष्टों का कारक है। मृत्यु होते ही सारे कष्टों से मुक्ति हो गयी।
अधिकांश जिलों में जो पत्रकार-संघ हैं, पापा की वजह से
पापा की मृत्य का कारण हैं विक्रमराव, पर हैं वे भी पिता-तुल्य
अरे काफ्का क्या बोलेगा ? पापा के बारे में मुझसे पूछिये ना
मिच्छामि दुक्कड़म: पापा बोले तो मैं फफक कर रो पड़ा
साधना मेरी नहीं, पापा के सपनों की रानियों में से थीं
पापा ! मैं साक्षात बुद्ध हूं, बुद्धू हर्गिज नहीं
पिता का मतलब तो सियारामशरण त्रिपाठी का बेटा जानता है। आई लव यू पापा
मंडी में फेंकी गयी सब्जियों का पहाड़ ढो लाते थे पापा, इससे सेहत सुधरती है
बेहद झकझोर देने वाला संस्मरण…. पढ़कर अच्छा लगा…. सादर चरण स्पर्श
अत्यंत मार्मिक चित्रण पढ़कर मन भाव विभोर हो गया आप एक सफल पिता भी हैं सफल व्यक्ति भी हैं और सजग राष्ट्रीय प्रहरी भी हैं ऐसा हम मानते हैं आपका जीवन पूर्णता सार्थक है दिशा युक्त है राष्ट्र को समर्पित है आप सामान्य वेश में एक सन्यासी हैं यह मेरा मानना है
अत्यंत मार्मिक चित्रण पढ़कर मन भाव विभोर हो गया। आप एक सफल पिता भी हैं सफल व्यक्ति भी हैं और सजग राष्ट्रीय प्रहरी भी हैं। ऐसा हम मानते हैं आपका जीवन पूर्णता सार्थक है दिशा युक्त है राष्ट्र को समर्पित है आप सामान्य वेश में एक सन्यासी हैं यह मेरा मानना है
सादर प्रणाम