: गोटियां साधने की कला मालिकों से सीखी, मालिक माहिर, कल्पेश कच्चे गोटियां खेल गया : 26 बरस तक एक ही संस्थान में, सर्वोच्च ओहदे तक पहुंचा कल्पेश। मौत भी उसी संस्थान में : ऐसे में कल्पेश की मौत पर शोक-सोग कैसे मनाया जा सकता है? : कल्पेश याग्निक- दो :
कुमार सौवीर
लखनऊ : ( गतांक-एक से आगे ) लेकिन सचाइयां बिल्कुल अलहदा हैं। अपने जीवन में कल्पेश को पत्रकारिता से कोई लगाव नहीं था। पत्रकरिता तो उसके लिए एक सीढी थी। धड़ाधड़ सीढ़ियां चढ़ने में यकीन रखने वाले कल्पेश याग्निक के पास वह सारे गुण मौजूद थे, जिससे आसमान को नापा जा सकता है। मतलब जिस भी सीढी के जिस भी पायदान पर रखकर कल्पेश आगे बढ़ते गए, उन्हें कल्पेश ने उसका मूल्य नहीं माना। और जिस भी ने इसमें मीन मेख निकालने की कोशिश की उसे सीढ़ी से खींच कर दूर फेंक दिया। कल्पेश का नारा था कि समाचार ही उनकी जिंदगी है और जिंदगी समाचार ही उनकी मौत होगी। लेकिन अपने 55 बरस की जिंदगी में कल्पेश ने 26 साल तक ही अपनी जिंदगी में पत्रकारिता को मौजूद रखा। लेकिन उसके ठीक बाद आज कल्पेश खबरों की दुनिया ही नहीं, बल्कि इंसानों की दुनिया से भी दूर चला गया। दुर्गुण तो खूब मौजूद थे ही, जहां एक झटके में ही कोई भी शख्स आसमान से सीधे जमीन पर धड़ाम से गिर सकता था। कल्पेश भी मौत मरा। लेकिन उसकी मौत केवल एक सामान्य आत्महत्या नहीं, बल्कि एक क्रूर-प्रशासक की आत्महत्या के तौर पर इतिहास में दर्ज की जाएगी।
मसलन कल्पेश को पता था कि उसे अपने मालिक की नस कैसे दबाए रखना है और इसके लिए कल्पेश को बड़े नेताओं और उद्योगपतियों को साधने में महारथी और इसके लिए कल्पेश ने अपने अखबार का इस्तेमाल खूब किया। यह मजाक नहीं है कि कल्पेश 10 साल तक इस अखबार मैं समूह संपादक बना रहा। कल्पेश की अराजकता को लेकर छोटे-बड़े सहयोगियों की खासी नाराजगी, मालिकों की नापंदगी, आखिर यह सब क्या है।
दैनिक भास्कर की मौत के बाद अखबार के कई संस्करणों में बाकायदा जश्न का माहौल था जैसे वह उस अखबार का समूह संपादक नहीं, कोई कुख्यात अपराधी या जघन्य मुजरिम के अंत के बाद जैसे हालात दिखाई पड़ने लगे हैं। एक पत्रकार ने बताया कल्पेश की सबसे खास अदा थी कि वह अपने अधीनस्थों पर सर्वाधिक हमले करता था। अपनी धमक को जमाने के लिए कल्पेश मनोवैज्ञानिक प्रहार करता था। मसलन, पुचकार कर बताता था कि उसके अधीनस्थ को यह काम अभी ठीक से सीखना ही पड़ेगा। सूत्र बताते हैं कि कल्पेश ने यह अदा दैनिक भास्कर के मालिकों से सीखी थी। गोटियां साधने की कला मालिकों से सीखी थी कल्पेश याग्निक ने। लेकिन बाजी पलट गयी। कारण यह कि मालिक तो इस खेल में माहिर और घुटा हुआ था, जबकि कल्पेश कच्ची गोटियां खेल गया।
कल्पेश याग्निक की आत्महत्या पर एक वीडियो अगर आप देखना चाहें तो निम्न लिंक पर क्लिक कीजिए:-
राज-सिंहासन से हटे, तो आत्महत्या
अपने किसी भी नापसंद व्यक्ति का भविष्य एक क्षण में ही काम-तमाम कर देने में माहिर थे कल्पेश याग्निक। ऐसे में कल्पेश की मौत पर शोक-सोग कैसे मनाया जा सकता है?
पत्रकारिता में एक खास जुमला औपचारिक तौर पर रहता है, वह है चड्डी का ढीला होना। कल्पेश इस जुमला पर बिल्कुल सटीक खरे उतरते थे। मुंबई की एक छोटी ट्रेनी महिला पत्रकार के साथ उनके प्रणय-निवेदन का ऑडियो इस समय खूब वायरल है। इस ऑडियो ने कल्पेश के लगातार संड़ाध मारते भविष्य को ठीक तरीके से फैलाया।
कल्पेश याग्निक ने पत्रकारिता में खूब पैसा कमाया। अकेले दैनिक भास्कर में ही उनका वेतन 18 लाख रूपया महीना के साथ ही साथ एवं अतिरिक्त अतिरिक्त भत्ते के तौर पर था यह बड़ी रकम इंदौर में बैठे किसी शख्स के लिए सपने से कम नहीं मानी जाती है। खासतौर से तब जब इतना वेतन तो दिल्ली में बड़े दिग्गज पत्रकार और संपादक भी नहीं उठा पाते हैं। जाहिर है कि कल्पेश याग्निक का वेतन उनकी पत्रकारीय योग्यता नहीं, बल्कि उनकी जुगाड़ पत्रकारिता का प्रतिफल था जिसका आनंद कल्पेश ने खूब उठाया। (क्रमश:)
कल्पेश याग्निक की मौत शोक मनाने का विषय कभी बन ही नहीं सकती। लेकिन कम से कम उससे पत्रकारिता में बड़े ओहदों पर कुण्डली मारे बैठे आला-सम्पादकों की असलियत को तो पहचाना ही जा सकता है। लेकिन तब, जब आप वाकई ऐसे बड़े पदों पर काबिज लोगों की दलाली और उनमें आकण्ठ डूबी आपराधिक साजिश, आतंक, दुष्चक्र और परपीड़ा सुख के सूत्र समझना चाहते हों। कल्पेश याग्निक की मौत एक विषय-विशेष के अध्ययन भर सीमित है। लेकिन है जरूर दिलचस्प, डरावनी और बाकी सब को समय रहते सम्भाल लेने लायक। कल्पेश याग्निक की बाकी कडि़यों को पढ़ने के लिए कृपया निम्न लिंक पर क्लिक कीजिए:-
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