कल्‍पेश याग्निक: अराजकता, साजिशें, मोटा कमाई, सेक्‍स और अंत

बिटिया खबर
: मालिक की छाती पर सर्वोच्‍च सम्‍पादकीय की कुर्सी पर बैठ कर कल्पेश मूंग दलता रहा : कल्पेश की निगरानी के लिए ओम गौड़ और नवनीत गुर्जर को लगाया गया, मगर बेमानी निकला : आखिरकार बेआबरू होकर निकलने के बजाय कल्‍पेश ने आत्‍महत्‍या का रास्‍ता अपनाया : कल्‍पेश याग्निक-तीन :

कुमार सौवीर
लखनऊ : ( गतांक-दो से आगे )लेकिन इधर कुछ समय से दैनिक भास्कर का प्रबंधन कल्पेश से काफी क्षुब्‍ध चल रहा था। कल्पेश का व्यवहार उसके संस्थान से बाहर के उसके रिश्ते और पत्रकारीय जगत से इतर व्यवसाय तथा क्रियाकलापों से प्रबंधन नाराज था। शिकायतों का अंबार लगा हुआ था। मालिक समझने लगे थे कि अब यह सही वक्त है जब कल्पेश के कद कुछ छोटा करना जरूरी होगा। और अगर का ऐसा न हो पाया तो भी उस पर पहरा लगाने होंगे।
इसलिए कुछ बरस पहले मालिकों ने कल्पेश की निगरानी के लिए ओम गौड़ और नवनीत गुर्जर को लगा दिया था। इन्हें कल्पेश के कमोबेश बड़ी हैसियत अता कर दी गई थी ताकि कल्पेश की हरकतों पर प्रभावी लगाम लगाया जा सके। लेकिन कल्पेश तो कल्पेश था। मालिकों की सोच से भी कोसों आगे। उसने अपने संपर्कों को खटखटाया और नतीजा यह हुआ ओम गौड़ इंदौर या भोपाल के बजाय रांची जैसे पिछड़े इलाके पर भेज दिए गए और नवनीत गुर्जर को उस गुजरात राज्य में भेज दिया गया जहां हिंदी अखबारों का कोई बड़ा नामलेवा नहीं माना जाता है। एक तरफ तो ओम गौड़ और नवनीत गुर्जर कुछ भी नहीं कर पाए, और दूसरी ओर दैनिक भास्कर के मालिक की छाती पर दैनिक भास्कर की सर्वोच्‍च सम्‍पादकीय की कुर्सी पर बैठ कर कल्पेश मूंग दलता रहा।

कल्‍पेश याग्निक की आत्‍महत्‍या पर एक वीडियो अगर आप देखना चाहें तो निम्‍न लिंक पर क्लिक कीजिए:-
राज-सिंहासन से हटे, तो आत्‍महत्‍या

लेकिन शायद मालिकों ने तय कर रखा था कि कल्पेश से हर कीमत पर पिंड छुड़ाना ही होगा। विगत 13 जुलाई को भोपाल में मालिकों ने सभी संपादकों को एक बैठक के नाम पर बुलाया गया था लेकिन हैरत की बात है कि इस बैठक की खबर तक कल्पेश को नहीं दी गई। हड़बड़ाए कल्पेश याग्निक की रूह फना होने लगी। उसे साफ लगा कि उसका काम अब तमाम होने को है। इसी आशंका से भयभीत कल्‍पेश ने कोई 10 दिन पहले मालिकों से बातचीत करने की कोशिश की लेकिन उनका फोन नहीं उठाया गया। उनके निजी सचिव और शुभचिंतकों से संपर्क करके कल्पेश से मालिकों की मुलाकात करने की समय मांगा लेकिन यह समय नहीं दिया गया।
कल्‍पेश की घड़ी की सबसे बड़ी सुई जब हमेशा कल्‍पेश के हुक्‍म पर चलती थी, अपने सीधी तनी भविष्‍य की डंडी पर अपना बैलेंस हमेशा बनाती रही दमकती-चमकती गेंद के लिए इससे बड़े घबराहट की बात और क्या हो सकती थी कि उसके ही मालिक उससे बातचीत करने से किनारा कर रहे हैं। तनाव कई तरीके के थे। संकट बहुआयामी हो गया, हर कोने से संकट ही संकट। कल्‍पेश के भविष्‍य पर काले और डरावने बादलों की घटाएं चीत्‍कार करने लगी थीं। कल्‍पेश के अस्‍ताचल होने की खबर पूरे संस्थान को चल चुकी थी। शिकायतों के अंबार बढ़ रहे थे। मुंबई की लड़की पत्रकार का ऑडियो लगातार वायरल होता जा रहा था, 18 लाख रुपए महीने की रोजी-रोजगार हमेशा के लिए हाथ से फिसल कर नाली में जाती दिख रही थी।
ऐसे में कल्पेश ने दैनिक भास्कर के इंदौर मुख्‍यालय के दोमंजिले भवन की छत की ऊंची मुंडेर पर चढ़ कर एक छलांग लगा दी।(क्रमश:)
और कल्पेश का दीपक हमेशा हमेशा के लिए जमीनदोज हो गया।
कल्‍पेश याग्निक की मौत शोक मनाने का विषय कभी बन ही नहीं सकती। लेकिन कम से कम उससे पत्रकारिता में बड़े ओहदों पर कुण्‍डली मारे बैठे आला-सम्‍पादकों की असलियत को तो पहचाना ही जा सकता है। लेकिन तब, जब आप वाकई ऐसे बड़े पदों पर काबिज लोगों की दलाली और उनमें आकण्‍ठ डूबी आपराधिक साजिश, आतंक, दुष्‍चक्र और परपीड़ा सुख के सूत्र समझना चाहते हों। कल्‍पेश याग्निक की मौत एक विषय-विशेष के अध्‍ययन भर सीमित है। लेकिन है जरूर दिलचस्‍प, डरावनी और बाकी सब को समय रहते सम्‍भाल लेने लायक। कल्‍पेश याग्निक की बाकी कडि़यों को पढ़ने के लिए कृपया निम्‍न लिंक पर क्लिक कीजिए:-

कल्‍पेश। शोक नहीं, किताब बन गया

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