कल्‍पेश याग्निक: स्‍वप्‍नों की लाश पर नाचने वाले कातिल पर आंसू कैसे ?

बिटिया खबर सैड सांग
: इंदौर के एक कांग्रेसी नेता की चाटुकारिता से जन्‍मे कल्‍पेश ने भास्‍कर के समूह सम्‍पादक की कुर्सी हथियायी : अब सोशल साइट्स साबित करने में जुटी है कि कल्‍पेश ने पत्रकारिता को शीर्ष तक पहुंचा दिया : फिर अपने सहयोगियों के सपनों-भविष्‍य को किसने लाशों में तब्‍दील किया : कल्‍पेश याग्निक- एक :

कुमार सौवीर
लखनऊ : जो काम आपकी निगाह में ही घटिया, जघन्य और नृशंस हो, तो फिर उसके दोष से आप कैसे बच सकते हैं? और खास तौर पर तब, जब आपने पूरा जीवन ऐसे ही जघन्य अपराधों के कुंड में गोते लगाए हैं। भले ही आप ऐसे कामों को लेकर अपने पक्ष में लाख दलीलें बुन और पेश करते रहे हों। आप कभी भी ऐसे कुकृत्‍यों से बरी नहीं हो पायेंगे। दैनिक भास्‍कर के समूह सम्‍पादक कल्पेश याग्निक की कहानी ठीक ऐसी ही रही है। कल्‍पेश ने तो अपने सहयोगियों के सपनों और उनके भविष्‍य को लाशों में तब्‍दील किया था, लेकिन आज वह खुद ही एक लाश बन कर खत्‍म हो गया। हमेशा-हमेशा के लिए।
धरातल से कोसों दूर कल्पेश याग्निक ने अपने जीवन में जो कुछ भी किया, उसे कम से कम उपासना-योग्‍य तो दूर, समर्थन-योग्‍य भी तो नहीं ही माना जा सकता। लेकिन कम से कम इतना जरूर किया जा सकता है कि हम ऐसे किसी भी व्यक्ति और उसके व्‍यक्तित्‍व ही नहीं, बल्कि उसके कृत्‍य और उसके परिणाम पर भी लानत भेजें। और अगर हम ऐसा नहीं कर सके तो हम खुद भी ऐसे ही गुनहगारों की पंक्ति में ब्रह्मभोज करते हैं दिख जाएंगे।
कल्पेश की कहानी यह एक ऐसे आधारहीन शख्स की है जो पत्रकारिता के चकाचौंध से प्रभावित हुआ और उसमें गहरे गोते लगाने को तत्पर हो गया। इसके लिए उसने बस कुछ ट्रिक्स सीख लीं। ऐसी ही ट्रिक्स में शामिल था खुद कुछ नया सोचने के बजाय दूसरों की बातचीत के मुख्य बिकाऊ मसलों को अपने जेब में रख लेना और फिर महंगी चमकदार कलम थाम ले कर कुछ भी लिख डालना। इतना ही नहीं, बल्कि पत्रकारिता का दमकता-रंग प्रतिष्ठित राजनीतिक और व्यावसायिक हस्तियों पर आजमाना-चमकाना भी खासा महत्वपूर्ण था।
तो इस मिशन की शुरुआत कल्पेश ने एक स्थानीय बड़े कांग्रेस नेता तुलसी मथानिया से शुरू की। तुलसी के बयानों को लिखने का और उसका बकायदा एक प्रेस नोट तैयार करने का जिम्‍मा कल्पेश ने थाम लिया। सच बात तो यह है कि पत्रकारिता से कोसों दूर थे कल्पेश उस वक्त। उनके खानदान में भी कभी कोई ऐसा व्यक्ति नहीं था जिसने कभी पत्रकारिता में अपना कोई भी छोटा-मोटा हाथ आजमाया हो। लेकिन कल्पेश ने यह दायित्व संभाल लिया। शुरुआती दौर में तो कल्पेश के लिखे प्रेस नोट काफी निहायत मूर्खतापूर्ण हुआ करते थे लेकिन जल्दी ही उसमें कुछ प्रवाह आने लगा।

कल्‍पेश याग्निक की आत्‍महत्‍या पर एक वीडियो अगर आप देखना चाहें तो निम्‍न लिंक पर क्लिक कीजिए:-
राज-सिंहासन से हटे, तो आत्‍महत्‍या
मगर तब तक तुलसी की सेवा के चलते और तुलसी के प्रभामंडल से जुड़े लोगों तक कल्पेश याग्निक का संपर्क हो चुका था।
कल्पेश व्यावहारिक था। प्रभावी नेताओं, अफसरों और उद्योगपतियों की हां में हां मिलाने का हुनर उसे खूब पता था। इसी गुण के चलते तुलसी के प्रभामंडल में कल्पेश ने अपने आप को स्थापित करना शुरू कर दिया। और फिर एक दिन हुआ जब कल्पेश ने दैनिक भास्कर के इंदौर कार्यालय में एक ट्रेनी के तौर पर अपनी सेवाएं देना शुरू कर दीं।
यह संभवत: मार्च 1996 की घटना है जब कल्पेश याग्निक ने पत्रकारिता की पहली सीढ़ी थाम ली और उसके बाद से कल्पेश याग्निक और दैनिक भास्कर हमेशा हमेशा के लिए एकाकार हो गए जहां किसी और की आवश्यकता हो भी नहीं सकती थी। अपने लक्ष्‍यों, माध्‍यमों को ठीक से बुना-सिला था कल्‍पेश ने। और अगर किसी भी सहयोगी को कल्पेश अपने एकाकार अभियान में सहयोगी नहीं माना या फिर इसमें कोई अन्य अड़चन लगाने वाली कोशिश हुई, तो कभी भी कल्पेश ने स्वीकार नहीं किया। ऐसे हर शख्‍स को भास्‍कर से बाहर कर दिया गया, और जो ज्‍यादा बवाल बन सकते थे, उनके साथ ऐसो भी व्‍यवहार किया गया कि वे बदनाम हो जाएं, ताकि उनका जीवन हमेशा-हमेशा के लिए खत्‍म-सा हो जाए।
लेकिन हैरत की बात है कि कल्पेश याग्निक की मौत के बाद सोशल साइट्स में कल्पेश के गुणगान की बेहिसाब गाथाएं पसरीं- फैलायी गयी हैं। ऐसे सच्‍ची-झूठी कहानियों का चटखारा स्‍वादिष्‍ट चाट तैयार कर यह साबित किया जा रहा है कि कल्पेश एक महान पत्रकार थे और इतिहास में पत्रकारिता की पहचान कल्पेश याग्निक के नाम से की जाएगी। (क्रमश:)
कल्‍पेश याग्निक की मौत शोक मनाने का विषय कभी बन ही नहीं सकती। लेकिन कम से कम उससे पत्रकारिता में बड़े ओहदों पर कुण्‍डली मारे बैठे आला-सम्‍पादकों की असलियत को तो पहचाना ही जा सकता है। लेकिन तब, जब आप वाकई ऐसे बड़े पदों पर काबिज लोगों की दलाली और उनमें आकण्‍ठ डूबी आपराधिक साजिश, आतंक, दुष्‍चक्र और परपीड़ा सुख के सूत्र समझना चाहते हों। कल्‍पेश याग्निक की मौत एक विषय-विशेष के अध्‍ययन भर सीमित है। लेकिन है जरूर दिलचस्‍प, डरावनी और बाकी सब को समय रहते सम्‍भाल लेने लायक। कल्‍पेश याग्निक की बाकी कडि़यों को पढ़ने के लिए कृपया निम्‍न लिंक पर क्लिक कीजिए:-

कल्‍पेश। शोक नहीं, किताब बन गया

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