का हाल बा बुजरौ के, कइसन हव्‍वा रजा बनारस ?

दोलत्ती

: पादने के लिए दायें-बायें अर्द्ध-गोला को हल्‍का उचकाना खांटी बनारसी स्‍टाइल है : चाहे कुछ भी हो जाए लेकिन मां, बहन या बेटी की गाली बनारस में वर्जित है : नंगा अवधूत-एक :

कुमार सौवीर

वाराणसी : बनारसी में सांड़ को लखनऊ का चिकन माना जाता है। जी हां, बनारस का रस ही कुछ इसी तरह बना है। अलग बोली, अलग भाषा, अलग भंगिमा, अलग अंदाज, अलग भोजन, अलग डगर, अलग कपड़ा-लूगा। हवाओं के झोंकों से उत्‍पन्‍न होने वाली वृक्षों की आवाजों के बजाय यहां दिन-रात भोंसड़ौ के, बुजरौ के, मुतनी के, छुल्‍ल-मुतनी के या भोंसड़ी के जैसी गालियों का सस्‍वर गान हर जगह दिख जाएगा। हां, चाहे कुछ भी हो जाए लेकिन माता, बहन या बेटी के प्रति अप्रतिम सम्‍मान करते हैं बनारसी लोग। इन रिश्‍तों से जुड़ी कोई भी गाली काशी में त्‍याज्‍य मानी जाती है। हां, बाहर से आये लोग या बाहर पढ़ कर लौटे लोग अपनी माता, बहन या बेटी के साथ ऐसा रिश्‍ता स्‍थापित करने वाली गालियों से परहेज नहीं करते हैं। बल्कि पिज्‍जा और डोनॉल्‍ड की तरह उसे नये स्‍वाद के तौर पर चटखारा लेते हैं। हां, पुराने माहौल वाले के लोगों के साथ ऐसी गालियां दे पाना ऐसी बाहरी या नयी पीढ़ी के लिए मुमकिन नहीं। पक्‍का महाल और आसपास के आसपास तो ऐसी गंदगी उगलते लोगों की गांड़ में डंडा पेलने के लिए बुड्ढे भी जवां-मर्द बनते दिख जाएंगे।

घाटों की सीढि़यों पर कमर में गमछा, और लंगोट कांधे पर रखने का रिवाज नहीं, जिद है। पुराने शौकीन लोग तो सुबह निबटने के नाव से उस पर रेती पर हगने जाएंगे। एक ही बार सही, लेकिन तसला भर हग्‍गत हैं। हाथ में लोटा भर पानी। गंगा तो मइया हैं, उनका गंदा नहीं करेंगे। लेकिन चौसट्टी घाट के आसपास मैंने साफ देखा कि घाट के कोने पर ही टट्टी फिर मारा, और फिर तहमद उतार कर झम्‍माके से नदी में कूद गये। सौंचने से भी फुरसत। लेकिन यह फितरत घृणा की नयी फसल में ज्‍यादा है।

लेकिन एक बात जरूर है कि इन चारों को घाटों की नस-नस और विदेशियों की कस-बल का खूब अंदाज है। घाटों की सीढियों पर भोर-सुबह पर्यटक ही नहीं, लफंडूरों की भी टोली अपना आसन आरक्षित कर लेती है। सीढी पर उकड़ू बैठे ऐसे बनारसी लोगों की कमर में लिपटा गमछा जब ज्‍यादा गोलिया दिया जाता है, तो वे लोग विदेशी पर्यटकों को देखते ही अपनी टांगें और ज्‍यादा चियार देते हैं। नतीजा, महादेव का नारा एक तरह, तिरलोक का दर्शन बिलकुल सामने, स्‍पष्‍ट और साक्षात। बेचने वाले लोग तो इसी दृश्‍य को बेचने को तत्‍पर होते हैं, और देखने वाले लोग उसे देखने को उतावले, उत्‍सुक और बेचैन। देखने वाले अपनी भाषा में क्‍या बोलते हैं, ऐसे लफंडूसों को इससे कोई मतलब नहीं। ठीक उसी तरह, जैसे यह लोग क्‍या बोल रहे हैं, उसे समझ पाना ऐसे पर्यटकों के वश की बात नहीं होती है।

आंत में भरी हवा को दफा करने के लिए पिछवाड़े के अर्द्ध-गोला को हल्‍का उचकउव्‍वा टेढ़ा करके वेंटीलेटर के तौर पर गजब स्‍टाइल बनाते हैं। एकाध-बार नहीं, दिन में पचासों बार। कुछ ऐसा ही अंदाज अमृतलाल नागर जी ने अपने उपन्‍यास पीढि़यां में दर्ज किया है। खास कर अड़ी यानी चौपाल के आसपास लोगों के साथ ही साथ सेठ जैसे दूकानदार लोग। पादने में तो कोई संकोच ही नहीं, कोई ज्‍यादा सुनता है या बहरा है, इससे उनका कोई लेना देना नहीं होता है। पादना है तो पाद मारेंगे। प्रतिक्रिया-हीन भाव में। कर्ता ही नहीं, कर्ता का दर्शक भी निस्‍पृह भाव में ऐसे भोंपू या पिपहरी पर कोई प्रतिक्रिया नहीं व्‍यक्‍त करता है। गंध होती ही नहीं, ऐसी हालत में ऐतराज होने का कोई प्रश्‍न ही नहीं उठता। बल्कि इस तरह की पदाई का हर स्‍वर अड़ी-चौपालों में चलती चर्चाओं में किसी मोहक थाप की तरह होती है, जैसे:- धिनक धिन धा। (क्रमश:)

वाराणसी को देखना, महसूस करना और उसे समझने के साथ उसे आत्‍मसात करना दुनिया का सबसे आसान काम है। बशर्ते उसके लिए लगन हो। और लगन के लिए केवल समर्पण ही एकमात्र मार्ग, डगर, रास्‍ता और अनुष्‍ठान है। उसके बिना बनारस को समझ पाना असम्‍भव है। बनारस को समझने के लिए आपको खुद को काशी जी का कण-कण महसूस करना होगा। तनिक भी हिचके, तो फिसले। दूर से नहीं, बनारस को लिपटा कर ही समझा जा सकता है।
मैं करीब पांच बरस तक वाराणसी में घुसा रहा, धंसा रहा। जितना भी देखा, भोगा और समझा उसे श्रंखलाबद्ध लिखने बैठा हूं। यह अभियान कब तक चलेगा, मैं नहीं जानता। शायद दम तोड़ने तक।
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नंगा अवधूत

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