सुबह-ए-बनारस? बाबा जी का घण्‍टा

दोलत्ती

: सुबह-ए-बनारस से नहीं, काशी की पहचान सर्वविद्या की राजधानी, विश्‍वनाथ मंदिर, संकरी गलियों व घाटों से विख्‍यात है : गाइड की बकलोली में देशी-विदेशी चूतिया जजमान जेब खोलते हैं : नंगा अवधूत- दो:

कुमार सौवीर

बनारस : (नंगा अवधूत-एक से आगे) विदेशी पर्यटकों का प्रिय स्‍थल है वाराणसी। हालांकि उनमें से ज्‍यादातर तो सारनाथ बौद्ध स्‍थल देखने जाते हैं, जहां महात्‍मा बुद्ध ने अपने आनंद समेत पांच शिष्‍यों को प्रकर्ष ज्ञान दिया था। वह स्‍थल बोधि-स्‍थल है। श्रावस्‍ती, राजगीर और बोधगया से भी ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण। लेकिन यह वाराणसी के बौद्धिक-वणिकों ने इतनी कुशलता के साथ इन पर्यटकों को काशी जी से जोड़ दिया है कि हैरत होती है। जैसे सुबह-ए-बनारस।
विश्‍वविख्‍यात है वाराणसी, लेकिन आपको बता दें कि पूरी दुनिया में आधिकारिक तौर पर वाराणसी की पहचान सुबह-ए-बनारस से नहीं है। गंगा आरती से भी नहीं। यह तो ताजा यूएसपी तैयार की गयी है बौद्धिक-बनियों द्वारा। बमुश्किलन तीन-चार दशक। इसके पहले तो बनारस की पहचान यहां सर्वविद्या की राजधानी और काशी नगरी के संकरी गलियों के साथ ही साथ द्वादश ज्‍योतिर्लिंग विश्‍वनाथ मंदिर के तौर पर विख्‍यात थी, जो आजकल लगातार धूमिल होती ही जा रही है। सिवाय विश्‍वनाथ मंदिर, जिसका डंका लगातार बजता ही जा रहा है। लेकिन वह भी सिर्फ कश्‍मीर और पूर्वोत्‍तर राज्‍यों को छोड़ कर बाकी देश में।

अब आइये, सुबह-ए-बनारस पर। तड़के सुबह यानी भोर से पहले तक झुंड के झुंड देशी-विदेशी पर्यटक यहां टूट पड़ते हैं। टूटते नहीं, बल्कि इन गाइडों की ओर खींचे जाते हैं। दिखाने के लिए, कि बनारस की सुबह कितनी दिव्‍य होती है, विश्‍व में अनोखी। लेकिन सच बात तो यही है कि किसी नाली-नाला, गढि़या, तालाब, झील या नदी में हर जगह पर उगते सूरज की छवि ठीक उसी तरह दिखायी पड़ती है, जैसे बनारस में। हां, भीड़ और 86 घाटों का अम्‍बार इसकी रौशनी को चकाचौंध जरूर कर देते हैं। ठीक यही हालत है दीप-दान की। किसी को पता ही नहीं होता है कि यहां दीपदान क्‍यों किया जाता है, उसका क्‍या लाभ या क्‍या आनंद है।

गाइड बकलोली करता रहता है, और किसी चूतिया जजमान की तरह देशी-विदेशी पर्यटक अपनी टेंट खोलते रहते हैं। व्‍यवसायी खुश है कि उनका धंधा झमाझम चल रहा है। जिला प्रशासन मस्‍त है कि चलो, चूतियों की भरमार तो है। सरकार मस्‍त है कि विदेशी मुद्रा तो मिल रही है। और स्‍थानीय बकलोल लोग अपनी नंगई का प्रदर्शन करते हुए अपने उजबक-पना का प्रदर्शन घाट पर करते रहते हैं। बाकी शहर तो अपनी मस्‍त में है, था और हमेशा रहेगा ही। गलियां संकरी भली हों, लेकिन शालीनता, ज्ञान और संधान का व्‍यवसाय तो बदस्‍तूर चलता ही रहता है यहां, बाकी शहर की चकाचौंध से परे।

लेकिन इसमें इतिहास के अमूल्‍य पल, क्षण, दिन, वर्ष और उसमें घटी गाथाओं के पन्‍ने फटने लगे। मसलन, अन्‍नपूर्णा देवी और उनकी वह जीवन्‍त प्रतिमूर्ति जो बंगाल से आयी और काशी विश्‍वनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार के साथ ही साथ काशी जी में भटकते भूखे-विह्वल लोगों के भूख मिटाने का अभियान छेड़ने लगीं। यह परम्‍परा आज भी वाराणसी में बाकायदा मौजूद है। इस रानी का नाम था रानी भवानी। दशाश्‍वमेध घाट के निकट बने काशी विश्‍वनाथ मंदिर परिसर से कुछ ही दूर माता अन्‍नपूर्णा का मंदिर है।

क्‍या पता, यह देवी शायद इन्‍हीं रानी भवानी ही रही हों, जो अपने जन-समर्पण के चलते आम आदमी में अन्‍नपूर्णा देवी जैसा दैवत्‍व समर्पित्‍ हो चुकीं। अब तो किंवदंतियां हैं कि अन्‍नपूर्णा को ही तीनों लोकों में खाद्यान्‍न की माता माना जाता है। कहते है कि माता ने स्‍वयं भगवान शिव को खाना खिलाया था। इस मंदिर की दीवारों पर ऐसे चित्र बने हुए हैं। एक चित्र में देवी कलछी पकड़ी हुई है। इस मंदिर में साल में केवल एक बार अन्नकूट महोत्सव पर मां अन्नपूर्णा की स्वर्ण प्रतिमा को सार्वजनिक रूप से एक दिन के लिए दर्शनार्थ निकाला जाता है। भारी भीड़ जुट जाती है उस वक्‍त। अब क्षुधा-पूर्ति और अन्‍नपूर्णा देवी माता वगैरह तो कहने की बात तो अलग है, लेकिन सच तो यही है कि बनारस में बिना पैसे मौत तक नहीं मिलती। कफन के धंधे में जुड़ कर डोम लोग डोम-राजा तक कहलाने लगे हैं। बड़े बनियों ने भोजनालय तो खुलवाया है, लेकिन बिना पैसा के यहां धेला भी नहीं मिलता। हां, यहां भोजन सस्‍ता जरूर है। (क्रमश:)

वाराणसी को देखना, महसूस करना और उसे समझने के साथ उसे आत्‍मसात करना दुनिया का सबसे आसान काम है। बशर्ते उसके लिए लगन हो। और लगन के लिए केवल समर्पण ही एकमात्र मार्ग, डगर, रास्‍ता और अनुष्‍ठान है। उसके बिना बनारस को समझ पाना असम्‍भव है। बनारस को समझने के लिए आपको खुद को काशी जी का कण-कण महसूस करना होगा। तनिक भी हिचके, तो फिसले। दूर से नहीं, बनारस को लिपटा कर ही समझा जा सकता है।
मैं करीब पांच बरस तक वाराणसी में घुसा रहा, धंसा रहा, दहाड़ता रहा। इतना, कि अघोरी बन गया। नंगा अवधूत। जितना भी देखा, भोगा और समझा उसे श्रंखलाबद्ध लिखने बैठा हूं। यह अभियान कब तक चलेगा, मैं नहीं जानता। शायद दम तोड़ने तक।
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नंगा अवधूत

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