: विद्या, धर्म और अध्यात्म के साथ ही साथ विश्वनाथ मंदिर, अन्नपूर्णा देवी और संकरी गलियों में पसरी संस्कृति व ऐतिहासिक सम्पदा वाली अंतहीन प्राचीनतम नगरी को समझने के लिए डूबना पड़ेगा गंगा जी में : नंगा अवधूत- दो
कुमार सौवीर
लखनऊ : (नंगा अवधूत-दो से आगे) तो, वास्तविकता तो यही है कि सुबह-ए-बनारस जैसा कोई शब्द अभी कुछ दशक पहले सुना तक नहीं गया था। यह शब्द-युग्म यानी ढोल-ताशा और मंजीरा जैसा गड़बड़ बेसुरा शब्द है, जो लखनऊ वाले शाम-ए-अवध की शैली में नवाबों-रईसों की ऐयाशी, रंग-नाच और ऐश्वर्य आदि को लेकर बुना गया था। लेकिन काशी जी की आत्मा-संस्कृति बेचने पर आमादा फेरी-रेहड़ी लगाने वालों ने आगे बढ़ कर एक नया शब्द गढ़ लिया:- सुबह-ए-बनारस।
तर्क यह कि जब शाम-ए-अवध मशहूर हो सकता है, तो फिर सुबह-ए-बनारस का डंका क्यों न बजाया जाए। पलिहर बांदर ही नहीं, इस चराचर जगत में नकलची बंदर भी खूब हैं। बंदरों की एक प्रजाति है बैबून। नकल उतारने में माहिर होते हैं यह बैबून बंदर। नकल उतारने वाली उनकी अदा जैसी तर्ज पर ही सरकारी संस्कृति में एक कर्मचारी श्रेणी का नाम ही पड़ गया बाबू। सरकारी दफ्त्रों में जो आप बाबू देखते हैं न, उनका नामकरण इन्हीं बैबून बंदरों के नाम पर पड़ा है। और उन्होंने ही शाम-ए-अवध की नकल में सुबह-ए-बनारस का नारा गढ़ लिया।
बहरहाल, वाराणसी की मूल संस्कृति और उसकी आत्मा के विपरीत धंधे में जुटे व्यावसायिक संस्कृति के ठेकेदारों ने सुबह-ए-बनारस वाले इस नारे को खूब उछाला, पर्यटकों को उंगरियाया। उंगरियाया तो काशी के लाखैरे उचक पड़े। उनकी व्यावसायिक बुद्धि जागृत हुई, तो हड़बड़ा कर चमकदार चटाई और खुशबूदार तेल का धंधा चकाचक होने लगा। एटीएम मशीन से खरखराते नोट फेंकने को तेल-चटाई बिछाने के लिए माहौल बनने लगा। नतीजा यह हुआ कि पर्यटक बनारस में फाट पड़े। लेकिन दिक्कत यह जरूर हुई कि अब बनारस आने वाले लोग इससे समझने नहीं, बल्कि उसे सरसरी तौर पर देखने पर मजबूर हो गये। उनकी जिज्ञासु निगाह वाराणसी में विद्या, धर्म और अध्यात्म के साथ ही साथ विश्वनाथ मंदिर, अन्नपूर्णा देवी और संकरी गलियों में संस्कृति और ऐतिहासिक सम्पदाओं वाले अंतहीन शहर नहीं, बल्कि पंचतारा-सातसितारा होटलों से घाट तक की सीमित दूरी तक सिमट गयी।
हालांकि सुबह-ए-बनारस के नाम में भी एक जबर्दस्त सकारात्मक भाव मौजूद है। सुबह-ए-बनारस और शाम-ए-अवध शब्दों की दार्शनिक व्याख्या उप्र सूचना विभाग के अधिकारी रहे मेरे बड़े सबसे बड़े भाई श्री आर्तिमान त्रिपाठी ने मुझे समझाया था। दरअसल, वाराणसी की खासियत यहां सुबह की किरणों से नहाई गंगा नदी से नहीं, बल्कि आध्यात्म और धर्म की ध्वजा फहराने से है। तो, धर्म और आध्यात्म की ध्वजा तो काशी जी में हमेशा से ही फहराती रही है। यानी धर्म और आध्यात्म का प्रस्फुटन ही तो सुबह-ए-बनारस है। जिसे समझने-समझाने की कोशिश कोई न तो करता है, और न ही उसको समझने की जरूरत समझता है। महात्मा बुद्ध, शंकराचार्य, महामना मदन मोहन मालवीय, बिस्मिल्ला खान जैसे लोग चूतिया नहीं थे, जिन्होंने काशी जी को देखा, समझा, भोगा और उसकी संस्कृति को लगातार संपुष्ट करने की भागीरथी प्रयास करते रहे। समझा तो मानवता के महानतम संत कबीर ने भी, लेकिन उन्होंने देह-त्याग के लिए गोरखपुर के निकट मगहर जैसे छोटे से कस्बे को चुना और वहीं प्राण-त्याग दिया। उनका हठ था कि काशी के अविमुक्तेश्वर क्षेत्र यानी मरने के बाद मोक्ष मिलने की संभावना सम्बन्धी जन-प्रचलित कथा-आस्था को ठोकर मार दिया जाए। लेकिन दुर्भाग्य तो देखिये कि काशी जस का तस रहा, जबकि मगहर कभी भी अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय ही नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश तक में अपनी कोई पहचान नहीं बना सका।
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय का कुल-गीत आप सुनिये, तो रोंगटे खड़े हो जाएंगे। गीत की पहली लाइन ही है कि यह है सर्वविद्या की राजधानी। गजब बात तो यह है कि यह बीएचयू का यह कुल-गीत लिखा है शांतिस्वरूप भटनागर जी ने, जो देश के प्रख्यात वैज्ञानिक थे। उनके इस योगदान को आप उनके शोध के मूल विषय से भी समझ सकते हैं जिसका शीर्षक है:- चुम्बकीय-रासायनिकी
मधुर मनोहर अतीव सुन्दर, यह सर्वविद्या की राजधानी। यह तीन लोकों से न्यारी काशी। सुज्ञान सत्य और सत्यराशी ॥
बसी है गंगा के रम्य तट पर, यह सर्वविद्या की राजधानी।
मधुर मनोहर अतीव सुन्दर, यह सर्वविद्या की राजधानी ॥ नये नहीं हैं ये ईंट पत्थर। है विश्वकर्मा का कार्य सुन्दर ॥
रचे हैं विद्या के भव्य मन्दिर, यह सर्वसृष्टि की राजधानी। मधुर मनोहर अतीव सुन्दर, यह सर्वविद्या की राजधानी ॥
यहाँ की है यह पवित्र शिक्षा। कि सत्य पहले फिर आत्म-रक्षा ॥
बिके हरिश्चन्द्र थे यहीं पर, यह सत्यशिक्षा की राजधानी। मधुर मनोहर अतीव सुन्दर, यह सर्वविद्या की राजधानी ॥
वह वेद ईश्वर की सत्यवाणी। बने जिन्हें पढ़ के सत्यज्ञानी ॥
थे व्यासजी ने रचे यहीं पर, यह ब्रह्म-विद्या की राजधानी। मधुर मनोहर अतीव सुन्दर, यह सर्वविद्या की राजधानी ॥
वह मुक्तिपद को दिलाने वाले। सुधर्म पथ पर चलाने वाले ॥
यहीं फले फूले बुद्ध शंकर, यह राज-ऋषियों की राजधानी। मधुर मनोहर अतीव सुन्दर, यह सर्वविद्या की राजधानी ॥
विविध कला अर्थशास्त्र गायन। गणित खनिज औषधि रसायन ॥
प्रतीचि-प्राची का मेल सुन्दर, यह विश्वविद्या की राजधानी। मधुर मनोहर अतीव सुन्दर, यह सर्वविद्या की राजधानी ॥
यह मालवीयजी की देशभक्ति। यह उनका साहस यह उनकी शक्ति ॥
प्रकट हुई है नवीन होकर, यह कर्मवीरों की राजधानी। मधुर मनोहर अतीव सुन्दर, यह सर्वविद्या की राजधानी ॥
तो सच तो यही है कि काशी जी की वैदिक संस्कृति के इस प्रवाह को आत्मसात करने को कोसों-योजनों दूर से आये विदेशी भले लाख कोशिश कर लें, तो भी इसका मर्म नहीं समझ सकते। जो चंद लोग समझने की कोशिश करते हैं, वे आध्यात्म और धर्म के बजाय यहां के साधुओं, अघोरियों के चरणों में लम्बलेट होकर गांजा-चरस का दम लगाते कुछ बरस बिता देते हैं। और उनमें से भी अधिकांश को जैसे ही यह अहसास होता है कि उनको इस मस्ती के चक्कर में एक झांट तक नहीं मिल पायी है, वे अपने देस वापस लौट जाते हैं। अरे, ठीक उसी तरह, जैसे मुम्बई में चकाचौंध में भविष्य खोजने आये प्रवासी लोग कोरोना-काल में हजारों मील की दूरी पैदल करने पर मजबूर हो गये थे।
हां, इतना जरूर है कि बनारस में ज्ञान भले न मिल पाये, लेकिन मस्ती तो भरपूर है और बाकायदा छलकती ही रहती है। इसीलिए बनारस का रस लगातार बना ही रहता है। दे टप्प, टप्प, और टपाटप्प (क्रमश:)
वाराणसी को देखना, महसूस करना और उसे समझने के साथ उसे आत्मसात करना दुनिया का सबसे आसान काम है। बशर्ते उसके लिए लगन हो। और लगन के लिए केवल समर्पण ही एकमात्र मार्ग, डगर, रास्ता और अनुष्ठान है। उसके बिना बनारस को समझ पाना असम्भव है। बनारस को समझने के लिए आपको खुद को काशी जी का कण-कण महसूस करना होगा। तनिक भी हिचके, तो फिसले। दूर से नहीं, बनारस को लिपटा कर ही समझा जा सकता है।
मैं करीब पांच बरस तक वाराणसी में घुसा रहा, धंसा रहा। जितना भी देखा, भोगा और समझा उसे श्रंखलाबद्ध लिखने बैठा हूं। यह अभियान कब तक चलेगा, मैं नहीं जानता। शायद दम तोड़ने तक।
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