: मानो बेर पर बेतरह चढ़ी अमर-बेल को किसी ने पशमीना शॉल पहनाया, मेरी जिन्दगी बेर से कम नहीं : तमाम झंझावातों, गालियां के साथ झूठे आश्वासन, दिलासा, वादों और कसमों के बावजूद कुमार सौवीर का वजूद बरकरार : बस, पीठ तेजी से मुड़ती जा रही है, कमर का दर्द असह्य होने लगा है, ब्लड-प्रेशर का असर साफ महसूस होने लगा :
कुमार सौवीर
लखनऊ : बेर जैसे पेड़ों में तो बेहिसाब कांटे होते हैं। मगर उसके कांटे उसकी सुरक्षा के लिए शायद कम, लेकिन दूसरों पर आश्रित लोगों के लिए ज्यादा मुफीद होते हैं। वरना बकरियां उसके बेर चंद मिनट में पेड़ समेत चर जाएंगी। इसीलिए बेर में जीवनी शक्ति ज्यादा होती है। जूझने में माद्दा बेहिसाब होता है।
लेकिन जीवनी-शक्ति में दूसरों के प्रति आकर्षण भी खूब होता है। किसी भी प्राणी में आकर्षण उपजता और भड़कता है। चुम्बक में भी होता है, और बेर में भी होता है। रूचि अलग-अलग होती है। चमकदार और चटकीले रंग ही नहीं, बल्कि प्रगाढ़ आलिंगन की प्रत्याशा और उसका स्पर्श छुईमुई ही नहीं, बेर भी महसूस करता है।
अब देखिये न इस बेर को। तीन साल पहले अमौसी के टीएसएम मेडिकल कालेज से वापस लौटते वक्त मैंने देखा कि सड़क के किनारे यह बेर का पेड़ खूब फल रहा था। हालत यह थी कि इसने सड़क का आधा हिस्सा तक कब्जा रखा था। पेड़ में अकड़ भी खूब थी, और फल भी बेहिसाब लदे थे। बच्चे डंडियां और ढेला मार-मार कर बेर झार रहे थे। मैं भी लालच में रूका, कुछ बेर तोड़े और आगे बढ़ गया।
दरअसल, मेरी जिन्दगी बेर से कम नहीं है। लोगों की पसंदगी-नापसंदगी का सवाल है मेरे बारे में। मुझे पसंद आया, तो चटखारा लिया, और ढेर सारे बेर तोड़ कर जेब के हवाले कर दिया। बखटा या कच्चापन महसूस हुआ या दांत में गुठली ने दर्द दे दिया, तो भरसक गालियां देते हुए चले गये।
पिछले बरस पहले मैं जब इस सड़क से गुजरा, तो लगा कि मानो किसी ने इस बेर को किसी पशमीना शॉल पहना दिया। इसी चमकीला शॉल में वह यह बेर खुद को समेटने और खुद को छिपाने-समाने की कोशिश में था। इसी फिराक में फलना तक बंद कर दिया था इस बेर के पेड़ ने। लगातार सिकुड़ता ही जा रहा था। गाड़ी रोक कर मैंने उसमें बेर खोजने की कोशिश की, मगर उस पेड़ की हालत बिसुक चुकी गाय जैसी हो चुकी थी। अब तो उसमें फूल तक नहीं आ रहे थे। पूछने पर स्थानीय लोगों ने बताया कि यह पेड़ को अमर-बेल से इश्क का रोग लग गया है। अमर-बेल यानी एक कातिल यानी जानलेवा खूबसूरत बला का असर। यह बेर पहले दूसरों को घायल कर दता था, अब वह बर्बाद होने के मुकाम पर है।
इसे बचाने का तरीका केवल यह है कि इसको तने से अगर काट दिया जाए तो भले ही यह बच सके। अन्यथा यह तो अब गया काम से। लेकिन सवाल यह है कि यह काम करे कौन।
दरअसल अमरबेल एक ऐसा आकर्षक, दिलकश, खूबसूरत बला जैसी बेल होती है, जिसमें तना ही तना होता है, पत्तियां एक भी नहीं होतीं। इसमें पानी का अंश सर्वाधिक होता है। हल्का दबाने में पानी की बूँदें छलक पडती हैं। हल्के से झटके से यह टूट जाता है। और उसका टुकड़ा जिस भी पेड़ पर गिरता है, वहां फिर वह अपना आशियाना बना लेता है, इश्क की एक नयी कातिल कहानियां शुरू हो जाती हैं, जिसका अंजाम हमेशा उस पेड़ की मौत पर ही खत्म होता है। या फिर उस सारी टहनियों और उसके मूल तना को काट अलग कर दिया जाए। मगर अमरबेल तक तक किसी न किसी दूसरे पेड़ की अंकशायिनी बन जाती है। और तब तक पौधे का चूसती है, जब तक पौधा-पेड़ मर न जाए।
परसों मैं फिर इधर से गुजरा तो यह पेड़ नहीं दिखा। पूछने पर लोगों ने बताया कि यह सूख गया था, इसलिए खेत मालिक ने पांच हजार रूपयों में उसे एक कसाई के हाथों बेच दिया। जाहिर है कि वह कसाई अब इसका बोटा कटवा कर उस पर गोश्त की बोटियां काट रहा होगा।
गनीमत है कि उस बेर के सूखने के बाद आसपास कोई दूसरा पेड़ मौजूद नहीं था। वरना इश्क की दुर्गति का अंजाम वाकई इस पूरे इलाके की हरियाली को खत्म कर देता।
इसीलिए ही तो कुमार सौवीर आज भी जिन्दा है। तमाम झंझावातों, गालियां के साथ झूठे आश्वासन, दिलासा, वादों और कसमों के बावजूद कुमार सौवीर का वजूद बरकरार है। बस, पीठ तेजी से मुड़ती जा रही है, कमर का दर्द असह्य होने लगा है, ब्लड-प्रेशर का असर साफ महसूस रहा है।
वह क्या कहते हैं न, कि कांटों में भी तो अदम्य जीवनी-शक्ति बेहिसाब होती है।
है न !
गर कुमार सौवीर झुक रहा है तो भी यह समझने की गलती कोई न करे कि यह नारियल का फल, बेरी का बूटा टूटने से बचने के जतन में है. सौवीर अपने लिए तो कभी भी झुक.नहीं सकता. हां दूसरों के लिए लेट भी सकता है, दूसरों के बोझ से झुक भी सकता है और दूसरे का दोष जानबूझकर अपने सर लेकर स्प्रिंग जैसे कंप्रेस भी हो सकता है. बेर की अमरबेल ही सही, इख बार सर चढा लिया तो चढा लिया. काशी के मरघट का डोम ही सही, इक बार गले लगा लिया तो साथ निभाने को मुर्दे के साथ भुना भरता भी खा लेगा.