बहेलिया के तीर की प्रतीक्षा में हूं। आज मेरा बर्थडे है

दोलत्ती

: जिस कृष्‍ण को आप गरियाता हैं, वही आपको दु:शासनों से बचाता है : आज का कृष्‍ण बांसुरी नहीं, माउथ-आर्गन बजाता है : चोली-दामन नहीं, जांघिया-पेटीकोट सम्‍भालने की कोशिश कीजिए :

कुमार सौवीर

लखनऊ : केक, मालपुआ, मिठाई और दीगर सुस्‍वादु भोज्‍य पदार्थ तो दूर की बात है, मेरे जन्म को लेकर न जाने कितने लोग पानी पी-पी कर कोस रहे होंगे, खुद मुझे भी इसका अहसास नहीं। लेकिन इत्ता जरूर है कि ऐसे लोगों की आह, हाय और बद्दुआएं मेरे साथ चोली-दामन की तरह नहीं, बाकायदा जोंक की तरह जरूर चिपकी होंगी। बिलकुल अपशकुन की तरह।

अरे किस शास्त्र में लिखा है कि चोली और दामन एकसाथ होता है? मेरा तो साफ मानना है कि चोली-दामन का एकसाथ होना अनिवार्य नहीं। इनमें से किसी एक के बिना भी दूसरे के अस्तित्व पर कोई फर्क नहीं पड़ सकता। हां, एकाध अंग खुल सकता है, या दोनों भी अंग खुल सकते हैं। लेकिन उससे क्‍या फर्क होता है। पाश्‍चात्‍य सभ्‍यता में तो अपना विरोध व्‍यक्‍त करने के लिए वहां की महिलाएं अपनी शर्ट, चोली नुमा बंडी, ब्रा वगैरह सरेआम खोल देती हैं। दामन का प्रचलन वहां होता ही नहीं, तो क्‍या किया जाए? दामन की जरूरत वे लोग समझते ही नहीं हैं।

तो भइया, साफ बात तो यह है कि निर्वस्त्र होने से बचने के लिए तो चोली और दामन के बजाय पेटीकोट और चड्ढी को पहने रहना जरूरी होता है। लेकिन न जाने क्यों लोगबाग हमेशा चोली-दामन पर ही झंझट या दंगा किया करते हैं। अरे काहे यार ? आप हिजड़ों को गौर से देखिये। सरेबाजार वे जब झुंझलाते हैं, तो चोली-दामन खोलने के बजाय सीधे अपनी धोती ही उठा लेते हैं। इसे ही कहते हैं आसमान सिर पर उठा लेना। दर्शकों को अपने नंगे होने से डर नहीं लगता है, बल्कि वे दूसरों की नंगई से भयभीत हो जाते हैं।

डरे हुए यह लोग व्यक्ति नहीं, महाभारत के दुःशासन होते हैं। द्रोपदी को निर्वस्त्र की कोशिश करते हैं। लेकिन यह पता लगाने की कोशिश तक नहीं करते हैं कि ऐसे प्रसंगों से निपटने के लिए ही कृष्ण ने द्वापर में ही साड़ी-धोती की बड़ी फैक्ट्री खुलवा रखवा दी थी। उधर दुःशासन ने द्रौपदी के बदन से साड़ी “हैंइचना” शुरू किया, कान्हा की फैक्ट्री ने साड़ी का उत्‍पादन धकाधक स्टार्ट कर सप्‍लाई सीधे द्रौपदी तक पहुंचाना शुरू कर दिया।
बहरहाल, जन्‍म-जन्‍मान्‍तरों के लफड़ों में फंसे होते हैं, जबकि मैं इसी जीवन में तीन-तीन जन्‍मों के बीच अरझा-फंसा हूं।

स्‍कूली प्रमाणपत्रों के मुताबिक मेरा जन्‍मदिन आज है। लेकिन हकीकत यह है कि मैं दुनिया में 12 फरवरी को अवतरित हुआ था। मगर बाद में मेरी एक बेटी की मृत्‍यु के उसी तारीख को हो जाने के चलते मेरे बच्‍चों ने मेरा जन्‍मदिन 11 फरवरी को मनाना शुरू कर दिया। लेकिन हर ऐसी घटना पर मेरे अंत की कामना सभी ने की। किसी अनुष्‍ठान की तरह, व्रत की तरह। कोई मुझे सरेआम पीट देने की साजिशें रचता रहा, तो कोई ऐलानिया ही कहता रहा कि कुमार सौवीर मेरे लिए मर चुका। किसी ने ठेंगा दिखाते बोला कि तिल्‍ली-पिल्‍ली भों। एक ने तो यहां तक कह दिया कि वे इस नहीं, सैकड़ों जन्‍मों तक मेरी शक्‍ल देना पसंद नहीं करेंगे। चूतिया तो इतने लोगों ने बनाया कि महान भारतीय गणितज्ञ आर्यभट्ट से लेकर श्रीनिवास रामानुजन तक गिनती भूल जाएं।

लेकिन इतना हमेशा ध्‍यान रखना कि जीत कभी भी अक्षौहिणी सेनाओं की नहीं होती, बल्कि कृष्‍ण सिर्फ जीतने के लिए जीता है। और जब मैदान छोड़ने की नौबत भी आ जाती है, तो दुनिया उसे रणछोड़ के नाम से भी सम्‍मानित करता है। चोरी भी करता है, तो तुम्‍हारी तरह किसी शातिर चोर-कृपण, लुटेरे-डकैत की तरह दूसरे के अधिकार अथवा संपत्ति की नहीं, बल्कि बाल-सुलभ व्‍यवहार मक्‍खन की।

अब ऐसे झंझावातों, विवादों और मुझ को लेकर चल रहे विरोधों के बीच अपना जन्‍मदिन मनाना अगर कोई चाहे भी तो ? खास तौर पर तब, जब अधिकांश लोग इसी कामना में अपना अधिकांश समय व्‍यर्थ करते हों कि कुमार सौवीर दिवंगत होकर महाप्रयाण कर लें, तो सारी दुनिया भर का झंझट ही खत्‍म हो जाए। ऐसे दौर में, जब ज्‍यादातर लोग यही मना रहे हों कि कुमार सौवीर निपटें तो उनको गाय की पूंछ थमा कर उनके वैतरणी पार कराने की सारी औपचारिकता निपटा कर गंगा नहान कर लिया जाए, ऐसे में कोई अपना जन्‍मदिन कैसे मना सकता है?

लेकिन मेरी बात दीगर है। मैं तो साक्षात कृष्‍ण हूं। आधुनिक कृष्‍ण, जो बांसुरी के बजाय माउथ-ऑर्गन बजाता है। और हमेशा प्रतीक्षा करता रहता है उस जरा नाम के बहेलिया की, कि वह आये और मेरे पैरों में अपना तीर चुभो दे।

खैर, मेरा जन्‍मदिन का खैर किसी अपशकुन की तरह बीत ही जाएगा। लेकिन आप सब के शुभ-जन्‍मोत्‍सव जब भी हों, मेरी ओर से टोकरी भर शुभकामनाएं और बधाइयां कुबूल करते रहियेगा। मिठाई का एक टुकड़ा मेरे नाम से भी खाते-चखते रहियेगा। पानी पी-पी कर मुझे गरियाते रहिये।

यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।

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