: याद आता है मंदिर, बंदर, घाट, गलियां, बेबाक भाषा, गालियां और बिंदास औरतें : जगदीश्वर चतुर्वेदी बेहाल है कोरोना के सन्नाटे के बीच मथुरा की खोज में :
जगदीश्वर चतुर्वेदी
कोलकाता : इन दिनों कोरोना के कारण मथुरा ध्वस्त पड़ा है। मंदिर, बाजार, प्रोहित सभी तबाह पड़े हैं।इस मथुरा की कल्पना कभी नहीं की थी। मैंने कोरोना काल के पहले जो मथुरा देखा था वह आज के मथुरा से एकदम भिन्न है।
मथुरा से निकले तकरीबन 35 साल से ऊपर गुजर गए, इस बीच मथुरा में बहुत कुछ बदला है,जिसका कायदे से अध्ययन करना मेरा लक्ष्य है, मैं इस बीच मथुरा आता-जाता रहा हूँ, लेकिन मात्र पर्यटक की तरह, मथुरा को नए सिरे से पाने, समझने और महसूस करने के लिए वहां कुछ समय गुजारना बेहद जरूरी है, निकट भविष्य में यह काम कर पाऊँ तो बेहतर होगा।
मथुरा के मंदिर, बंदर, घाट, यमुना का किनारा, गलियां, वहां के लोगों की बेबाक भाषा, गालियां, अनौपचारिकता, औरतों का बिंदास भाव मुझे बहुत अच्छा लगता है। चलते -फिरते मथुरा को जितना मैं देखकर समझ पाया हूँ उसमें मुझे एक नए किस्म की मानुषगंध मिलती है।
मथुरा पहले की तुलना में स्मार्ट हो गया है। वहां के लोग पहले की तुलना में ज्यादा आधुनिक बने हैं, बदले हैं, खासकर स्त्रियां तो पहचानने में ही नहीं आतीं। इन दिनों आधुनिकता के परिवर्तनों ने मथुरा की युवा लड़कियों को बहुत ही आकर्षित किया हुआ है।
पुराने शहर के बाहर विशाल नया मथुरा, नयी रिहाइश वाला मथुरा बस गया है। दिलचस्प बात है मथुरा की गंध, पुराने शहर के अंदर ही महसूस कर सकते हैं।पुरानी गलियों में ही पुराने शहर की भाषा, गंदी नालियों, बंदरों आदि को देखकर महसूस कर सकते हो।
मेरी दिली ख्वाहिश है कि मथुरा की गलियों और उनकी जीवंतता के वैविध्य पर जमकर लिखूँ। हर गली की अपनी विशेषता है,वहां के रहने वाले लोगों की अपनी निजी विशेषताएं भी हैं। मथुरा के बाहर रहते हुए मथुरा का मर्म धीरे धीरे मन से खिसक गया है। ब्रजभाषा बोल नहीं पाता,वहां जाने पर दो-तीन दिन रहने पर ब्रजभाषा बोल पाता हूँ।
ब्रजभाषा का सुख मथुरा का सबसे बड़ा सुख है।बाहर रहते हुए मुझे रोज एक-दो ब्रजभाषा कविता पढ़ने की आदत पड़ गयी, इस आदत को मैंने सचेत रूप से विकसित किया,जिससे मैं मथुरा से जुड़ा रहूँ। मथुरा में बड़ी संख्या में पुराने मित्र भी हैं जो बार-बार याद आते हैं।लेकिन मथुरा को हमेशा भाषा में ही पाता हूँ,वहां जाता हूँ तो भाषा सुनने में मजा लेता हूँ। मैंने अपने अनुभव से यही सीखा है कि यदि किसी शहर को पाना है तो वहां के लोगों को देखो और आत्मीयता से वहां की भाषा सुनो,शहर आपके मन में उतरता चला जाएगा।
कोलकाता में 27 साल से रह रहा हूँ और यहां पर मैंने बोलचाल की बंगला भाषा के जरिए बंगाल को महसूस किया है, घर से जब पढाने जाता हूँ तो रास्ते में बंगला में लोगों की बातें सुनते हुए बंगाल को पाता हूँ,उसी क्रम में बंगला का आस्वाद विकसित हुआ, बंगला समझने की क्षमता पैदा हुई। यहां तक कि नए बंगला शब्दों को भी मैंने बोलचाल की बंगला के जरिए ही अर्जित किया, सीखा।असल में जीवन तो भाषा से ही व्यक्त होता है।
मथुरा पर जब भी बात होती है आमतौर पर जीवनशैली में रचे-बसे पहलुओं पर बातें नहीं होतीं, मथुरा की जीवनशैली में दूध और दूधवाले गहरे तक रचे बसे थे। इधर 35साल में बहुत कुछ बदला, उसकी चर्चा मैं कभी फुर्सत से करूँगा। लेकिन मैं 1979 के पहले के समय को आज याद करता हूँ तो पाता हूँ शहर के विभिन्न गली-मुहल्लों के नुक्कड़ ,गली या मुख्य बाजार में कई दूधवालों की दुकानें थीं इनके ग्राहक बंधे हुए थे, इनमें हरेक के दूध का स्वाद भी अलग हुआ करता था। ऐसी भी दुकाने थीं जो मिलावटी दूध बेचती थीं , इनकी गिनती कम थी। लेकिन असली दूध बेचने वालों की दुकानें बहुत ज्यादा हुआ करती थीं।
मथुरा के सांस्कृतिक और व्यापारिक विकास को समझने के लिए इन दूध वालों का कायदे से अध्ययन किया जाना चाहिए। यह देखें कि इनमें से कितने व्यापार में आगे गए और कितने पीछे खिसकते चले गए या शहर छोड़कर चले गए। इन दूधवाले दुकानदारों द्वारा सृजित व्यापारिक संस्कृति का अध्ययन जरूर किया जाना चाहिए। इन दूधवालों की शहर में व्यापारिक ईमानदारी और निष्ठा ने ईमानदार संस्कृति को बनाने में बहुत मदद की। ऐसा नहीं है कि ये दूधवाले व्यापार करके मुनाफा नहीं कमाते थे, मुनाफा कमाते थे,लेकिन ईमानदारी के साथ। दूध के व्यापार में मुनाफे और ईमानदारी में संतुलन की कला के दर्शन मैंने इन दूधवालों के यहां किए।
दिलचस्प बात है कि हमारे मंदिर (चर्चिका देवी) पर तकरीबन सभी दूधवाले दर्शन करने आते थे। इनमें से सभी लोग बेइंतहा शरीफ और मधुरभाषी थे। इस तरह के जनप्रिय दुकानदारों में चौक में भरतपुरिया,द्वराकाधीश की गली में गोपाल पारूआ.छत्ता बाजार में भानु पहलवान आदि कुछ नाम ही फिलहाल याद आ रहे हैं। इन दूध वालों के यहाँ दूध का मजा असल में रात को आता था। जब आप गरम-गरम दूध कुल्हड़ में ऊपर से मलाई डालकर बाजार में खड़े होकर पीते थे। यह मथुरा के लोगों की खानपान की रात्रि संस्कृति का एक जरूर हिस्सा था। इधर वर्षों से यह दृश्य में उपभोग करने से वंचित रहा हूँ। जितनी बार मैं चौक या द्वारकाधीश की गली या छत्ता बाजार से निकला हूँ, दूध की पुरानी बड़ी कढाही नजर नहीं आतीं, रात की वह रौनक नजर नहीं आती।
आपकी दशा मैं नहीं जानता, लेकिन अपनी तकलीफ का एहसास मुझे है और यह एहसास ही मुझे बार-बार मथुरा की ओर खींचता है। आमतौर पर शिक्षा के बाद आदत है कि जहां पैदा हुए, पले-बड़े हुए वहां पर नौकरी करना नहीं चाहते, बाहर जाना चाहते हैं। लेकिन मेरा मन हमेशा इस बात से परेशान रहा कि मुझे मथुरा में उपयुक्त काम ही नहीं मिला वरना मैं जेएनयू से पढ़कर मथुरा लौट आता। मुझसे पूछें तो यही कहूँगा कि नौकरी दुनिया की सबसे बड़ी त्रासदी है। नौकरी की तलाश में जब शहर छूटता है तो आपसे बहुत कुछ छूट जाता है।अपने लोग, परिवेश, भाषा, चिर-परिचित संस्कृति आदि आपके हाथ से एक ही झटके में निकल जाते हैं।अधिकतर नौकरीपेशा लोग अपने काम-धंधे में इस कदर मशगूल हो जाते हैं कि इस सांस्कृतिक जमा पूँजी के हाथ से निकल जाने से होने वाली सांस्कृतिक क्षति से अनभिज्ञ रहते हैं। लेकिन आजीविका की तलाश में इस सांस्कृतिक क्षति को हम सबको उठाना पड़ता है।हमारे पास कोई शॉर्टकट नहीं है कि इस क्षति से बच सकें।जन्मस्थान से पलायन एक स्थायी नियति है जिससे आधुनिककाल में पूरा समाज गुजरता है।
मैं मथुरा से जेएनयू पढ़ने के लिए 1979 में निकला तो जानता ही नहीं था कि कभी वापस नहीं लौट पाऊंगा। पढ़ते हुए मन में यही आशा थी कि कहीं मथुरा के आसपास ही नौकरी लग जाएगी और मथुरा से संपर्क-संबंध बना रहेगा। लेकिन बिडम्बना यह कि जैसा चाहा वैसा नहीं घटा। नौकरी की तलाश में ढाई साल तक इधर-उधर दसियों विश्वविद्यालयों में इंटरव्यू दिए। जेएनयू से पढाई खत्म करके निकलने के बाद दि.वि.वि. के दो कॉलेजों में इंटरव्यू देने के बाद तय किया कि कॉलेज में इंटरव्यू नहीं दूँगा और न नौकरी करूँगा। यही वजह थी कि विश्वविद्यालय में ही नौकरी के आवेदन करता रहा, परिचितों से खारिज होता रहा और अंत में कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में नौकरी मिल गयी।
कोलकाता अप्रैल 1989 में आया और तबसे यहीं पर हूँ। यहां आने के पहले दिल्ली में था तो मथुरा जल्दी-जल्दी जाता था लेकिन कोलकाता आने के बाद मथुरा आने-जाने का सिलसिला टूट गया। अब साल-छह महिने में आना जाना होता है। इसके कारण मथुरा में नए दोस्त नहीं बने। पुराने दोस्त लगातार उम्रदराज होते गए और उनमें से अनेक थक भी गए हैं। मथुरा से दूर हुआ तो सबसे बड़ा अभाव मुझे का. सव्यसाची का महसूस हुआ। सव्यसाची सही मायने में मथुरा में रचे-बसे थे, वहां के लोगों से घुले-मिले थे,उनसे मिलकर हमेशा मजा आता था, उनकी अनौपचारिक बोलने की शैली और तीखी भाषा हमेशा अपील करती थी,वे मुझे कभी कॉमरेड नहीं कहते ”पंडितजी´´ कहकर बुलाते थे। पता नहीं क्यों उन्होंने मेरे लिए पंडितजी सम्बोधन चुन लिया, मैं नहीं जानता, जबकि मुझे कोई और पंडितजी नहीं कहता था।
सव्यसाची के पंडितजी कहने का असर अन्य लोगों पर भी हुआ,इसके कारण और भी कई मित्र पंडितजी कहने लगे। लेकिन इन चंद मित्रों को अलावा सब नाम से ही बुलाते रहे हैं। मेरे मित्रों का सीधे नाम से पुकारना और सव्यसाची जी का पंडितजी कहकर पुकारना अपने आप में मेरे व्यक्तित्व के उन पहलुओं को अभिव्यंजित करता है जो मुझे सामाजिक विकास के क्रम में मिले हैं, मेरे व्यक्तित्व में दो किस्म के व्यक्ति हैं। एक वह व्यक्ति है जो पिता और संस्कृत पाठशाला ने बनाया,दूसरा वह व्यक्ति जिसे मथुरा –जेएनयू के मित्रों और जेएनयू की शिक्षा ने बनाया। मजेदार बात है कि मैं इन दोनों को आज भी जीता हूँ। मुझे अपने बचपन के संस्कृत के सहपाठी और अग्रज जितने अच्छे लगते हैं उतने ही जेएनयू के मित्र और कॉमरेड भी अच्छे लगते हैं।
मुझे मथुरा का अतीत बार-बार अपनी ओर खींचता है, लेकिन जेएनयू नहीं खींच पाता। जेएनयू से पढ़कर निकलने के बाद 1989 से लेकर आज तक में मात्र 4 बार ही जेएनयू गया हूँ। लेकिन इस बीच मथुरा बार-बार गया, उन पुराने स्थानों पर बार- बार जाता हूँ जो मेरी बचपन की स्मृति का अंग हैं,या मेरी फैंटेसी का अंग हैं। अपने जीवन के तजुर्बे से यही सीखा है कि जन्मस्थान का मतलब कुछ और ही होता है,जन्मस्थान आपके रगों में, इच्छाओं और आस्थाओं में रचा-बसा होता है, वह आपके व्यक्तित्व के निर्माण में बुनियादी रूप से भूमिका निभाता है। वह कभी पीछा नहीं छोड़ता।
मथुरा की याद आती है तो सूरदास याद आते हैं,उनकी यह पंक्ति बहुत प्रिय है-“आजु कोऊ नीकी बात सुनावै ।” वैसे उनकी यह पूरी कविता ही बहुत सुंदर है-
आजु कोऊ नीकी बात सुनावै ।
कै मधुबन तैं नंद लाड़लौ, कैऽब दूत कोउ आवै ॥
भौंर एक चहूँदिसि तैं उड़ि-उड़ि, कानन लगि-लगि गावै ।
उत्तम भाषा ऊँचे चढ़ि-चढ़ि, अंग-अंग सगुनावै ॥
भामिनि एक सखी सौं बिनवै, नैन नीर भरि आवै ।
सूरदास कोऊ ब्रज ऐसौ, जो ब्रजनाथ मिलावै ॥
( प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रमुख रह चुके हैं। फिलहाल, कोलकाता से ही स्वतंत्र लेखन और स्वाध्याय के साथ ही साथ हथछुट पर्यटन। )
पंडित जी, कोलकाता से मथुरा लौट आते हैं तो कभी प्रवक्ता.कॉम को भी याद कर कुछ लिख दीजिये | छह वर्ष पहले “भारतीय मुसलमानों के पक्ष में” लिखा था | इस बीच श्री तनवीर जाफरी जी ने बहुत ही अच्छे निबंध प्रस्तुत किये हैं | आपको भी फिर से पढ़ना चाहूँगा | धन्यवाद |