जब जोश चढ़ा लसोढ़ा का, खदेड़ दिया वकीलों को

बिटिया खबर

: अपनी ही महिला अधिवक्‍ता साथी को न्‍याय-परिसर में द्रौपदी की तरह बेइज्‍जत करने पर आमादा थे वकील : जिला जज ने जो महिला शौचालय बनाया, वकील व पुलिसकर्मियों ने विशाल मूत्र-कुण्‍ड बनाया : युवा महिला अधिवक्‍ता को छेड़खानी पर निष्‍कासित, फिर माफी मांग कर वापस आये :

कुमार सौवीर

लखनऊ : लसोढ़ा वाकई कमाल की शै है। पदार्थों पर तो यह चमत्‍कार करता ही है, भावनाओं के मामले में तो उसका जोश किसी दहकते ज्‍वालामुखी की तरह बन जाता है। इतना ही नहीं, इस आक्रोश के दावानल से समाज में दूसरे पायदान पर खड़ी औरतों को कुछ इस तरह तपा देता है कि वे अपनी कमर कस कर योद्धा बन जाती हैं। ऐसी हालत में वे महिला योद्धाओं के सामने सैकड़ों वकीलों की भीड़ भी पूंछ दबा कर भाग निकलती है।
सच बात यही है कि वकीलों का अखाड़ा मानी जाती थी अदालत। चूंकि वहां कानून का रणक्षेत्र ही सही, लेकिन खुद को अपराजित योद्धा की तरह व्‍यवहार करते हैं वकील। योद्धा भी ऐसे, कि मर्दानगी में चूर। दो हजार वकीलों की भीड़ वाले न्‍यायिक परिसर में तब केवल सात महिलाएं ही थीं। महिलाओं का वहां पहुंच कर प्रैक्टिस के लिए आना अधिकांश वकीलों को नापसंद था। उन्‍हें लगता था कि उनकी थाली में वे छीनाझपटी करने आयी हैं। आप गौर कीजिए कि किसी भी सार्वजनिक स्‍थल या कार्यालय में महिलाओं को देखते ही मर्दों का लहजा बदलने लगता है। मैंने कई सरकारी दफ्तरों में देखा है कि वे अपनी महिला सहकर्मियों के बीच खुले, द्विअर्थी या सांकेतिक अंदाज में बातचीत करते हैं। अंदाज कुछ ऐसा कि उस महिला को उसका अहसास भी होता रहे। लेकिन वह महिला खामोश बनी रहती है, यह उसकी मजबूरी होती है।
ऐसा ही हुआ था करीब सात बरस पहले। मामला है जौनपुर की दीवानी कचेहरी का। अदालतों में महिला अधिवक्‍ताओं और वादकारी महिलाओं की बदहाली का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस अदालत में बनाये गये महिला शौचालय के सामने वकील और पुलिसवाले खुलेआम खड़े होकर पेशाब करते हैं। इसका लोकार्पण किया है तब के जिला जज ओमप्रकाश त्रिपाठी ने, लेकिन वह महिला प्रसाधन गृह अब विशाल मूत्र-कुण्‍ड में तब्‍दील हो चुका है। कोई भी महिला वहां फटकने का साहस ही नहीं सकती। बाकी महिला शौचालयों पर पुरुष ही फारिग होकर उसे गंदा करते हैं। जजों को आम वादकारी की आह का ही अहसास नहीं होता है, ऐसे में वे महिलाओं का क्‍या सोचेंगे।
खैर, इसी बीच एलएलबी पास कर जयमाला नाम की एक युवती वकालत करने गयी। एक दिन वेश्‍यावृत्ति में एक होटल पर पुलिस ने छापा मारा। कई महिलाएं भी पकड़ीं, तो पुलिस का दाना-पानी अदा करते हुए अखबारों ने उन महिलाओं का नाम भी छाप दिया। उनमें में जयमाला नाम की भी एक युवती थी, लेकिन उसका कोई भी लेनादेना उस वकील जयमाला ( परिवर्तित नाम ) से कत्‍तई नहीं था। चंद वकीलों को शरारत सूझी, तो उन्‍होंने उन पेपर कटिंग को पूरे अदालत परिसर में वायरल कर दिया। कुछ इस अंदाज में, कि जयमाला नामक वकील ही वेश्‍यावृत्ति में संलिप्‍त है। हंगामा मच गया। नयी वकील बनी जयमाला का जीना हराम कर दिया गया अदालतों में।
लेकिन यहां की पुरानी वकील मंजू शास्‍त्री सामने आ गयीं, उन्‍होंने जयमाला ( परिवर्तित नाम ) को सम्‍भाला। खुद जा कर जांच करायी। पाया कि यह तो फर्जी मामला है। अब तो यह जिन्‍दगी और मौत का मसला था, जिस पर हार मान लेना तो हमेशा-हमेशा के लिए खामोश हो जाने की तरह था। मंजू ने इस मामले को लिखित रूप से बार एसोसियेशन के अध्‍यक्ष को दिया। मंजू बताती हैं कि इसके पहले बार अध्‍यक्ष को भी भ्रमित किया जा चुका था, इसलिए वे भड़क कर बोले कि ऐसी गंदी चरित्र वाली युवतियों को वकील के तौर पर मान्‍यता नहीं दी जा सकती है। इस पर जम कर खिच-खिच और हो-हल्‍ला हुआ। लेकिन जब तथ्‍य सामने किये गये, तो अध्‍यक्ष और बार के बाकी पदाधिकारी भी सकपका हो गये। मंजू शास्‍त्री बताती हैं कि कि इसमें कुछ वकील ही गड़बड़ कर उस युवती को बदनाम करना करना चाहते हैं।
इतना ही नहीं, मंजू शास्‍त्री बताती हैं कि बार में सुनवाई शुरू होने के दिन डेढ़-दो सौ वकीलों ने हंगामा कर उस युवती को सरेआम परेशान करने फैसला किया था। मकसद यह था कि उस युवती वकील को तो सरेआम बेइज्‍जत तो किया ही जाए, साथ ही कुछ ऐसा कर दिया जाए, कि आइंदा कोई युवती अपने हुए किसी अपराध पर चूं भी न कर सके। लेकिन मंजू टस से मस नहीं हुईं। कोशिशें पुरजोर हुईं, और बार ने जयमाला को निर्दोष साबित किया।
ऐसा ही एक मामला और हुआ, जब एक युवती वकील को बार आफिस में ही एक शोहदे वकील ने उसके पैर से दबा लिया। शिकायत हुई, तो उस युवती का चरित्र-हनन शुरू कर दिया। लेकिन बाद में उस वकील का अपराध साबित हुआ। नतीजा यह हुआ कि उसे बार से ही निकाल बाहर कर दिया गया। वह तो बाद में उस वकील और उसके परिचितों और परिवारीजनों ने उस युवती वकील के साथ ही बार के पदाधिकारियों से लिखित माफी मांगी, तो उसका निष्‍कासन वापस हो पाया।
लेकिन दुख की बात यह है कि इन दोनों ही मामलों में शुरुआती दौर में बार प्रशासन का रवैया कड़ा पुरुष-वादी दिखा। गनीमत थी कि तहें खुलते ही वे खामोश हो गये। सवाल यह है कि जब एक वकीलों की शीर्ष संस्‍था पर काबिज लोग ऐसा रवैया अपनायेंगे, तो फिर महिला सहकर्मियों के अस्तित्‍व की सुरक्षा की गारंटी कौन देगा ?

जौनपुर का पुरुष-समाज फिलहाल तो पीडि़त महिलाओं के पक्ष में खड़े होने का न तो साहस रखता है और न ही कोई संवेदना।

( यह श्रंखला-बद्ध रिपोर्ताज है। लगातार उपेक्षा के चलते प्रकृति के लुप्‍त-प्राय पहरुआ के तौर पर। बिम्‍ब के तौर पर चुना गया है वृक्ष का वह पहलू, जिसका लसलसा गोंद ही नहीं, बल्कि पूरा पेड़ ही प्रकृति के लिए समर्पित है। लेकिन इसमें जोड़ने की जो अद्भुत क्षमता और दैवीय गुण है, उसके बहुआयामी आधार पर जोड़ने की कोशिश की गयी है। समाज में ऐसे गुणों को पहचान, उसके प्रयोग और समाज के विभिन्‍न क्षेत्रों में ऐसे गुणों की उपयोगिता और उपादेयता को केवल समझने-समझाने के लिए प्रयोग किया गया है। कोशिश की गयी है कि क्षेत्र के विभिन्‍न समूहों के प्रतिनिधि-व्‍यक्तियों को इसमें शामिल किया जाए। शायद आप उससे कुछ सीखने की कोशिश करना चाहें।
यह खबर www.dolatti.com पर है। लगातार सारे अंक एक के बाद एक उसी पर लगा रहा हूं, आपकी सुविधा के लिए। फिलहाल तो यह श्रंखला चलेगी। शायद पचीस या पचास कडि़यों में। रोजाना कम से कम एक। उन रिपोर्ताज की कडि़यों को सिलसिलेवार हमेशा-हमेशा तक समेटने और उसे खोजने का तरीका हम जल्‍दी ही आपको बता देंगे।
संवेदनाओं का लसोढ़ा–उन्‍नीस )

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