हस्तिनापुर: बेचैनी धृतराष्ट्रों, शकुनियों व दुर्योधनों की

दोलत्ती

: भीष्म व विदुर दोनों विवश, है असाध्य यह रोग :
दिनेश जुयाल
देहरादून : घोर कलयुग है इसलिए मैं पापी-अधर्मी भी अब धर्म के मार्ग पर जाने की सोच रहा हूं, आप भी ऐसा सोचें। लेकिन ठहरो…इस युग के अंतिम कल्याण के लिए प्रभु के नए वरदान इस इंटरनेट की नई चाल सोशल मीडिया पर ये क्या हो रहा है? ब्रेख्त, फैज, अदम, दुष्यंत ही नहीं जावेद अख्तर जैसे सनकी, बागी,जेहादी बताए जा रहे लोगों की कविताएं गाई जा रही है। और ये जावेद मियां क्या ललकार रहे हैं… ये भी लिख.. वो भी लिख.. नए नए कवि सामने आ रहे हैं … नवीन चौरे नाम का एक आईआईटियन स्याही लगी कटी उंगली पर कविता पढ़ते हुए क्यों रो रहा है? जगह जगह धरना स्थलों पर क्या हंगामा मचा रखा है? शाहीन बाग में सभी धर्मों को एक साथ बांचा जा रहा है…. इससे बड़ा अधर्म क्या हो सकता है..सारे धर्म एक साथ अपवित्र हो रहे हैं। देश के तमाम बड़े शहरों में नए शाहीनबाग बन रहे हैं… मैं पूछता हूं ये हो क्या रहा है ? ध्रुव राठी और रवीश जैसे क्या बक बक कर रहे हैं..? इनके नए नए अवतार पैदा हो रहे हैं। इन्हें फकीरी न दिख रही है न सूझ रही है.. जिसे देखो खुद को महाभारत का विदुर साबित करने पर तुला है… ये लड़के क्या गा रहे हैं ? आजादी.. आजादी.. कुटने के बाद भी नहीं सुधर रहे हैं। तौबा! तौबा.!.. ओह क्षमा करें..शिव! ! शिव… ये यक्ष प्रश्न कौन हल करे।
तो चलो राहत के लिए भगवान कृष्ण की लीला देखने द्वापर में चलते हैं। गूगल देव की मदद से मैं सीधे आपको बी आर चोपड़ा कृत महाभारत के एपीसोड 55 तक ले चलता हूं। यहीं पर यक्ष प्रश्न हुए। यक्ष ने युधिष्ठर से कई सवाल किए । धर्म के बारे में पूछे गए प्रश्नों पर य़ुधिष्ठिर के जवाब कुछ इस तरह है- दया श्रेष्ठ धर्म है। सब के सुख की इच्छा करना दया है। धर्म न तर्क में है, न ऋषियों की विचार धारा में। एक ऋषि की विचारधारा दूसरे से नहीं मिलती। किसी एक की विचारधारा में संपूर्ण सत्य नहीं। धर्म का संपूर्ण सत्य व्यक्ति के हृदय की गुफा में है। एक अन्य प्रश्न पर वह कहते हैं-अराजकता राष्ट्र की मृत्यु का कारण होता है।
शिवावतार कहे जाने वाले गुरु गोरखनाथ की पीठ के अधीश्वर धर्मध्वजावाहक योगी आदित्य नाथ देश के सबसे बड़े प्रदेश में धर्म का राज्य लाने के लिए प्रयत्नशील हैं। लोग जिसे जयद्रथी यलगार समझ रहे हैं वह धर्मविरोधियों को सबक सिखाने का उनका हुक्म था। एक दिन में न्याय, न्याय चिल्ला रहे हुजूम का हिस्सा दिखे करीब दो दर्जन लोगों को मौत की नींद सुला दिया। ऐसे लोगों को अब केले की तरह दर्जनों में ही गिने जाने का चलन है। विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे अज्ञानियों को वहीं घुस कर सबक सिखाया गया। धर्म की स्थापना के लिए पुलिस को धर्म सेना बनाया जा रहा है। कानपुर में अपने पेट की खातिर बर्तन मांज रहे गरीब सहित जो भी गोलियों की जद में आए उनके लिए दया का भाव रखने वाले युधिष्ठिर के संवाद में दया का नया अर्थ खोजें। बिना अपराध किसी की जान लेना भी श्रेष्ठ धर्म हो सकता है। सबके सुख की नहीं सिर्फ राजा के हित की इच्छा करना भी दया हो सकता है, क्योंकि राजा ही धर्माधिकारी है। बुद्ध, महावीर, ईसा मसीह, गरु नानक, मोहम्मद साहब के कुल भी हमारे सप्त ऋषियों की तरह चल पड़े हैं तो क्या हुआ उन्हें हम ऋषि नहीं कह सकते। और हां अपने ऋषि को ही श्रेष्ठ मानना धर्म है। अगर ऐसा नहीं करेंगे तो धर्मयुद्ध नहीं होगा और इसका न होना ही धर्म के विपरीत हो सकता है। जो बात धर्म ध्वजावाहक कह रहे हैं उसके विपरीत सत्य अगर हृदय में उपजता है तो ऐसे हृदयों की गति रोक देनी चाहिए। चाहे जय श्री राम कह कर मौत आने तक क्यों न लठियाना पड़े। प्रजा का सड़कों पर आना, राजा के लोगों की जवाबी ताल, ये हंगामें, ये रोना कलपना, शिक्षणशालाओं में पढ़ाई की जगह कुटाई, कश्मीर बनने की तरफ बढ़ रहे ये शहर… इन सब बातों को अराजकता नहीं कह सकते इसलिए राष्ट्र सुरक्षित हाथों में है।

आपके पास समय कम है। इसलिए शार्टकट से आपको एपीसोड के अंत की ओर ले चलते हैं। हस्तिनापुर में युद्ध के बादल छाने लगे हैं। संविधान प्रदत्त अधिकारों से लैश लेकिन कुछ भी हल खोज पाने में अक्षम आज के भारत की जनता की तरह भीष्म और अवार्ड वापसी गैंग के सरगना जैसे विदुर परेशान हैं। भीष्म कहते हैं- द्रुयोधन ऐसा तो नहीं कर सकता। विदुर बोले-आप भली भांति जानते हैं, दुर्योधन कुछ भी कर सकता है। वह तो अंधकार है। यदि उस अंधकार में रोशनी का अंकुर फूटने भी लगता है तो गांधार नरेश उस पर अपना अंधकार उंडेल देते हैं। युद्ध टालने के लिए विधुर पांडवों के अज्ञातवास के असफल होने तक की कामना करने लगते है। (यहां अगर कोई पाठक अपने इस दौर में दुर्योधन, शकुनि और अंधे राजा धृतराष्ट्र को आज के किसी पात्र चेहरे में देख रहा है तो मेरा दोष नहीं।)
फिर शुरू होता है पितामह का लंबा संवाद। कहते हैं- हम दोनों उन वृक्षों की तरह हैं जो चाह कर भी अपना स्थान नहीं छोड़ सकते, अपनी छाया पर भी वश नहीं रह गया है। हम केवल उस सौदामिनी की प्रतीक्षा कर सकते हैं जो हम पर गिर कर हमें भस्म कर दे ….धृतराष्ट्र और शकुनि जैसों के युग में जन्म लेना हमारे लिए अभिशाप है… हस्तिनापुर की राजनीति का आधार निहित स्वार्थ बन कर रह गया है, जिसमें देश प्रेम के लिए कोई स्थान नहीं है। हस्तिनापुर मेरे सपनों का खंडहर बन कर रह गया है… मेरी मातृभूमि मृत्यु शैय्या पर पड़ी है…उसकी औषधि राजनीति नहीं, देश प्रेम है। मैंने कभी नहीं सोचा था कि ये हस्तिनापुर एक दिन अपने धृतराष्ट्रों, शकुनियों और दुर्योधनों के हाथों का खिलौना बन कर रह जाएगा। हे मातृभूमि ! अपने इस गंगापुत्र को क्षमा कर दे। जो हो रहा वो मैंने सोचा भी नहीं था.. चाहा भी नहीं था। ( जाने क्यों मेरे आंसू बाहर आना चाहते हैं, शायद मुझे बुखार है।)
मातृभमि, देशप्रेम, राजनीति ये शब्द आज भी गूंज रहे है। जनता, राजा, राजा के दो पाए, चौपाए, स्वधर्मी, अधर्मी सब बोल रहे हैं। ये द्वापर में कलयुग जैसा सीन और वैसे ही संवाद देख कर हैरत नहीं होती! भीष्म ने तो हार मान ली थी। (भारत की आम जनता की तरह) आज के राजा इस बात को जानते हैं। वे जानते हैं कि कृष्ण युद्ध टाल सकते थे लेकिन उन्होंने नहीं टाला। इसलिए अपने इष्ट और अभीष्ट के प्रति आश्वस्त, वे मस्त हैं। लेकिन इस बेचैन जनता का क्या करें जो हंगामे कर रही है।
चलते चलते इस एपिसोड की आखिरी तान..
देशप्रेम पर स्वार्थ ने विष का किया प्रयोग
भीष्म-विदुर दोनों विवश, है असाध्य यह रोग
सीख हम बीते युगों से, नए युग का करें स्वागत….. करें स्वागत.. करें स्वागत…. महाभारत वो वो वो महाभारत…..
खटाक

दिनेश जुआल दैनिक अमर उजाला और हिन्दुस्तान के विभिन्न एडीशनों में संपादक रह चुके हैं। संप्रति देहरादून!

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