: पत्रकारिता में संपादक अगर ऐसा लम्पट हो, तो फर्श से अर्श तक इकदम्मै प्रमोशन हो जाएगा : होश फाख्ता हो गये पत्रकार के, सिर पर पैर रख कर निकल भागा केबिन से : सब को ठीक से दुहा-चूसा है इन लकड़बग्घों ने : किस्सा कल्पेश याग्निकों का- एक :
दोलत्ती संवाददाता
लखनऊ : लकड़बग्घा कथा एकः मोनिका लेवेंसकी और दो घंटे की ड्यूटी
मैं प्राचीन इतिहास विषय का छात्र हूं, और पाता हूं कि प्राचीन इतिहास में ऐसे खबर-धंधा पर पांव जमाये लकड़बग्घों का तो इसका जिक्र कोई खास नहीं है, लेकिन पिछले 45 बरसों के बीच सड़ाध मारती उप्र की पत्रकारिता में पत्रकारिता में गर्म-गोश्त पर जिन्दा ऐसे-ऐसे पत्रकारों ने अपने विष-दंश किये हैं कि पत्रकारिता ही विषैली हो गयी। ऐसे लोगों ने दिग्विजयी दारू-बियर के करीबी दोस्त विजय माल्या और बेशर्म सुब्रत राय को भी पीछे छोड़ दिया। यूपी में खबर-धंधों में जीवित लकड़बग्घों की गजब इंट्री हो चुकी हैं।
कुछ भी हो, चाहे वह टेलीग्राफ से लेकर केंद्रीय मंत्रालय में धंसे अकबर हों, इंदौर में दैनिक भास्कर वाले कल्पेश याग्निक हों, लखनऊ वाले घनश्याम पंकज हों, या फिर बरेली में ताजा-ताजा पैदाइश कर चुके लकड़बग्घा जी, इन सब ने अखबार के नाम पर ऐयाशी का जो हरम तैयार किया, वह दूसरों यानी मालिकों से लेकर सत्ता, उद्योगपति हों, व्यावसायी हों या फिर नौकरशाह, सब को ठीक से दुहा-चूसा है इन लकड़बग्घों ने। दिलचस्प यह है कि लकड़बग्घे की आए दिन की ऐयाशियों और हरम के बारे में मालिकों को सब कुछ पता है। वाट्सऐप के ग्रुप में लारा-लप्पा वाली तस्वीरें और मैसेज गलती से आदान प्रदान कर दिए जाते हैं, उसमें अखबार के मालिकान भी जुड़े हुए हैं। मालिकान ने लकड़बग्घे को हड्डियां चिचियाने के लिए क्यों आजाद छोड़ रखा है? यह बड़ा अहम राज है, जिस पर से शायद ही कभी परदा हट सके।
तो किस्सा यह है कि एक लकड़बग्घे के हरम में एक मोहतरमा हैं। दो साल पहले आईं थीं इंटर्नशिप करने के लिए। लकड़बग्घा उन पर ऐसा मोहित हुआ कि आठ हजार रुपये वेतन बांध दिया। इसके बाद तो उनका वेतन इस गति से बढ़ा कि सूदखोर का ब्याज भी नहीं बढ़ता। मोहतरमा के वेतन में हर महीने वृद्धि की जाती रही। वह भी दो-तीन हजार रुपये महीना। यानी की साल भर के भीतर मोहतरमा की सैलरी दो गुने से ज्यादा हो गई। मोहतरमा यहां से वहां दनदनाती घूमतीं। स्टूडियो में लोगों की मां बहन का सम्मान इस तरह से करतीं कि सुनने वाले दांतो तले उंगली दबा लेते।
लकड़बग्घा उन पर इस कदर मेहरबान था कि न उनके आने का कोई समय था और न ही जाने का। कार्यालय के लोग डरी डरी निगाहों से देखते और दबी जुबान से चर्चा करते। चर्चा इस बात पर भी होती कि आखिर यह माजरा क्या है? आखिर इस मेहरबानी की वजह क्या है? इंटर्नशिप करने आईं मोहतरमा साल भर में वेबसाइट की संपादक हो गईं और प्रिंट लाइन में उनका नाम तक जाने लगा। ऐसा तो मी टू के उस्ताद अकबर ने भी न किया था। न क्लिंटन ने ही।
तो मैडम का नाम प्रिंट लाइन में जाने लगा और अखबार के मालिक बिगड़ैल लौंडे की सारी हरकतें आंख मूंद कर देखते रहे। न कभी टोका न कभी रोका। खेल चलता रहा। अखबार का सर्कुलेशन उतना नहीं बढ़ा जितनी मैडम की सैलरी बढ़ गई। वह 25000 रुपये सैलरी पानें लगीं। यही नहीं अपने दसवीं फेल भाई को भी स्टॉफ फोटोग्राफर बनवा दिया। अति तब हो गई जब लकड़बग्घे की खुली छूट की वजह से मोहतरमा महज दो घंटे की ड्यूटी करने लगीं। यानी शाम को चार बजे ऑफिस आना और साढ़े पांच छह बजे रवाना हो जाना।
ऐसी ऐश देख कर कुछ जलनखोर पत्रकारों के सीने पर सांप लौटने लगा। वह खोजी पत्रकारिता में जुट गए, और फिर जो रिपोर्ट निकल कर आई उस से लोग चौंके कम, लेकिन चर्चा ज्यादा की। एक दिन एक पत्रकार ने केबिन में झांकने की जुर्रत कर डाली। देखा तो वो लेवेंस्की के कान काट रही थीं। इससे पहले कि लकड़बग्घा उस पत्रकार को देख पाता वह वहीं से नौ दो ग्यारह हो लिया। धीरे-धीरे यह चर्चा पूरे ऑफिस में फैल गई और फिर मीडिया के गलियारों में मारी-मारी फिरने लगी। किसी ने मालिकान को भी मैसेज कर दि., लेकिन मालिक सतुवा मुंह में डाले चभुलाते रहे और लकड़बग्घे का खेल जारी रहा।
जारी रहेगा पत्रकारिता में कल्पेश याग्निकों का किस्सा-गाथा