घरेलू अग्नि-प्रहारों पर अब खामोश नहीं है आज की औरत

बिटिया खबर

: लखनऊ सिविल अस्‍पताल के ये तीनों डॉक्‍टर वाकई धन्‍वन्‍तरि : मरीज को दिलासा देने में माहिर डॉ प्रदीप तिवारी, तीन मिनट में बतौड़ी लापता : शरीर को दवा से ज्‍यादा जरूरत होती है पोषक भोजन की, बताते हैं अशोक यादव : ढाई किमी की दूरी 17 मिनट में निर्विघ्‍न निपटायी, तो टीएमटी जांच क्‍यों। बोले डॉ आरके मिश्र :

कुमार सौवीर

लखनऊ : यह बीते जमाने की बात हो चुकी है कि कोई महिला बुरी तरह जलायी गयी हो, लेकिन वह अपने दर्द को अपने सीने में ही सिमटाये रहती हो, अपने होंठ सिले ही रहती हो। अब दौर बदल चुका है। आज की महिला ऐसे किसी भी हमले पर खुल कर बोलने लगी हैं। भले ही उनकी यह हालत कर डालने वाला उसके पति या ससुराल का कोई दीगर व्‍यक्ति ही क्‍यों न रहा हो। यह एक बड़ा बदलाव आया है ऐसे हादसों से घायल महिलाओं के भीतर। अभी आठ-दस बरस पहले की ही तो बात है, कि झुलसी महिला खामोश ही रहती थी, लेकिन अब उसने बोलना सीख लिया है, और अपराधियों पर सीधा हमला करना शुरू कर दिया है।
लखनऊ के सिविल अस्‍पताल माने जाने वाले श्‍यामाप्रसाद मुखर्जी अस्‍पताल में अपना पूरा जीवन मरीजों के प्रति समर्पित कर चुके डॉक्‍टर प्रदीप तिवारी ने आज एक बातचीत में यह बात कही। प्रदीप तिवारी का अनुभव है कि पिछले बरसों के दौरान ऐसे अग्नि-कांडों के तौर-तरीकों में भी बड़ा फर्क आया है। पहले तो ऐसे अग्नि-प्रहारों के घाव केवल महिलाओं पर ही पड़ते थे, लेकिन अब तो पुरुष भी घायल होने लगे हैं। बावजूद इसके कि ऐसे हादसों की संख्‍या अभी बेहद कम ही है। लेकिन एक बात और भी है कि ऐसे अग्नि-कांडों से पीडि़त महिलाओं के प्रति पुरुष भी काफी संवेदनशील और भावुक होने लगे हैं। वे अपनी मरीजों की देखभाल के तरीकों पर ज्‍यादा गम्‍भीर होने लगे हैं।
दरअसल, डॉक्‍टर प्रदीप तिवारी से यह बातचीत उनसे अचानक मुलाकात के बाद हुई। डॉक्‍टर के लिए अमीर मरीजों का रिश्‍ता लगातार मालामाल बनता जा रहा है। अब रोगी-सेवा नहीं, बल्कि मेवा-सेवी बन चुके हैं डॉक्‍टर। रकम का फ्लो भागड़ा-नंगल बांध की तरह डॉक्‍टरों की जेब आने लगा, तो डॉक्‍टरों की तुनुक-मिजाजी और तेवर-अंदाज सातवें आसमान पर बैठ कर गरीब या औसत मरीजों पर गुर्राने लगे। कहने की जरूरत नहीं है कि खास कर सरकारी अस्‍पतालों में डॉक्‍टरों का रवैया लगातार सख्‍त काबिले-ऐतराज होता जा रहा है। मरीजों के साथ तमीज के साथ बात करना और उनकी समस्‍याओं को समझना ही नहीं, बल्कि उसका समाधान करने में भी डॉक्‍टरों ने अपने हाथ सिकोड़ने का रवैया किसी परम्‍परा की तरह अख्तियार कर लिया है।
लेकिन राजधानी में कम से कम तीन डॉक्‍टरों को मैं निजी तौर पर जानता हूं, जो मरीजों के साथ बेहद आत्‍मीयता, करुणा और सदाशयता के साथ पेश आते रहे हैं। हैरत की बात है कि यह तीनों का ही ताल्‍लुक सिविल अस्‍पताल से ही रहा है। हालांकि मरीजों के दिल की बात समझने वाले डॉक्‍टर आरके मिश्र अब सहारा अस्‍पताल में अपना डेरा डाल चुके हैं, लेकिन प्‍लॉस्टिक सर्जन प्रदीप तिवारी और फिजिशियन अशोक यादव आज भी मरीजों के साथ युगों-युगों के संबंधों की तरह बंधे-बांधे हुए हैं। आप अगर उनसे मिलने गये हैं, तो आपको काफी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। हां, जब मिलेंगे आपसे, तो फिर फुरसत से ही मिलेंगे।
चिकित्‍साकर्मियों के साथ मेरा रिश्‍ता काफी मधु-मिश्रित रहा है, यानी खासा रसीला। रिपोर्टिंग के दौरान सबसे पहले मुझे मेडिकल कॉलेज की एक नर्स से इश्‍क हो गया, लेकिन चंद महीनों बाद ही वह लापता हो गयी। लेकिन इसी बीच मेरी भेंट वहां सीनियर रेजीडेंट रहे प्रदीप तिवारी और अशोक यादव से हुई। यह करीब सन-84 की बात है। लखनऊ विश्‍वविद्यालय समेत उसके सभी संबद्ध कालेजों और मेडिकल कालेज की रिपोर्टिंग का जिम्‍मा टाइम्‍स ग्रुप के दैनिक सांध्‍य समाचारपत्र के संपादक घनश्‍याम पंकज ने सौंपी थी। बाद में यही जिम्‍मा सन-86 के दैनिक जागरण में मिला। आत्‍मीयता का सिरा सबसे पहले मेडिकल कालेज के प्‍लॉस्टिक विभाग के एचओडी प्रोफेसर रमेश चंद्रा और सीनियर प्रोफेसर एसडी पांडेय से जुड़ा। वहीं प्रदीप तिवारी से घनिष्‍ठ भेंट हुई। मेरे माथे पर एक बड़ी बतौड़ी थी। एक दिन प्रदीप तिवारी ने अपना हाथ साफ करने के लिए मुझे बेड पर लिटा दिया और केवल तीन मिनट में ही बतौड़ी साफ। उसके बाद से ही रिश्‍ता स्‍थाई होकर आज तक पहुंच गया। फिर वे चिकित्‍सा की सर्वोच्‍च डिग्री हासिल करने के बाद सिविल अस्‍पताल में नौकरी करने आये, सन-20 में रिटायर हुए, और अब उसी सिविल अस्‍पताल में ही संविदा पर तैनात हैं। लेकिन मरीजों के प्रति उनका रवैया पहले के ही तरह आत्‍मीय और सहानुभूतिपूर्ण है। मरीज को टालते नहीं, बल्कि उनको और उसके सारे सवालों को पूरी तरह संतुष्‍ट कर देते हैं प्रदीप तिवारी।
प्रदीप तिवारी ने मुझे अपने जीवन में मरीजों को लेकर हमेशा कई महत्‍वपूर्ण जानकारियां सौंपी हैं। ठीक उसी तरह अशोक यादव ने। अशोक यादव सन-88 के दौर में मेडिकल कालेज में थे। पढ़ाई के साथ अशोक ने राजनीति के साथ दूरदर्शन में भी अपना हिस्‍सा बंटाया। वे कांट्रेक्‍ट में न्‍यूज-रीडर हो गये। फिर सिविल अस्‍पताल में उनका ठीहा बना। एक दिन मैं अशोक यादव से मिलने गया। उन्‍होंने मुझे बगल में बिठाया, लेकिन बतियाने लगे एक कमजोर बच्‍चे और पिता गरीब मुसलमान पिता के साथ। पिता चाहता था कि बच्‍चे को दवा दे दी जाए, जबकि डॉ यादव का कहना था कि दवा के पहले तो शरीर को पोषक तत्‍व जरूरी होते हैं। उसे दिन में एक नींबू, दो खीरा, साग, दाल, रोटी-चावल और पनीर, अंडा या गोश्‍त अनिवार्य रूप से खिलाओ। ऐसे वक्‍त में मरीज को संतुष्‍ट करने के लिए डॉक्‍टर लोग अपना स्‍टेथिस्‍कोप मरीज के घुटने तक पर लगा देते हों, ऐसे वक्‍त में अशोक यादव का मरीजों के साथ बेहद शांत चित्‍त में बात करना आश्‍चर्य ही तो है। उत्‍तर प्रदेश के सरकारी डॉक्‍टरों की यूनियन का अध्‍यक्ष बन चुके हैं डॉ अशोक यादव। दो महीना पहले ही वे रिटायर हो चुके हैं।
यही हालत है आरके मिश्र के साथ। तब मेरे पिता-तुल्‍य और सिविल अस्‍पताल के निदेशक रहे डॉ एचपी कुमार ने मेरा ब्‍लड-प्रेशर देख कर डॉ मिश्र को बुलाया और मुझे मिलाया। उसके बाद से ही दिल के मामले में डीएम की डिग्री लेकर सिविल अस्‍पताल आये डॉ मिश्र के साथ मेरी मित्रता हो गयी। रक्‍तचाप की दवाएं आज भी मैं वही खा रहा हूं, जो डॉ आरके मिश्र सुझाते हैं। कुछ समय के लिए स्‍वास्‍थ्‍य भवन में तबादले पर थे डॉक्‍टर मिश्र। सन-96 में उनसे मिलने मैं अपने पत्रकार मित्र उपेंद्र पांडेय के साथ स्‍वास्‍थ्‍य भवन गया। मुझे अपनी टीएमटी जांच करानी थी। तो पता चला कि वे वापस सिविल अस्‍पताल में कॉडियोलॉजी के मुखिया बन कर चले गये हैं। हम दोनों उनसे मिलने सिविल अस्‍पताल गये। डॉ मिश्र ने मुझसे दिक्‍कत पूछी। फिर पूछा कि आप कैसे आये हैं, हमने कहा कि पैदल। कितना वक्‍त लगा आने में। जवाब दिया कि 17 मिनट। कोई दिक्‍कत आयी। मैंने इनकार कर दिया। यह सुनते ही डॉ आरके मिश्र ने टीएमटी जांच कराने से इनकार कर दिया। बोले कि इतने वक्‍त में पैदल चले और कोई दिक्‍कत नहीं हुई, तो इसका मतलब है कि आपका दिल झक्‍कास है। उसे किसी दूसरे काम में लगाइये न। फिर चाय पिलायी और हम विदा।

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