दुनिया के संकटों का समाधान हो सकता है पर्यूषण परंपरा

दोलत्ती

: मिच्छामी दुक्कड़म : मुझे मेरी “…” दुष्टताओं के लिए क्षमा कीजिए, मुझसे भूल हुई : अहंकार को क्षण-भर में पिघला सकती है क्षमा-याचना :

त्रिभुवन

उदयपुर : जैन पर्यूषण परंपरा का यह महान वाक्यांश समूची दुनिया के संकटों का समाधान हो सकता है, लेकिन यह शून्य होकर रह गया है। आपने या मैंने यह वाक्य किसी को वाट्स ऐप किया होगा या क्षमा मांगी होगी। आपने या मैंने इस वाक्य को फेसबुक पर लगाकर सभी से क्षमा मांग कर अपनी मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त कर लिया होगा। आपने या मैंने अपने वाट्स ऐप के स्टेटस में इसे अच्छी हिन्दी या अंगरेज़ी में लगा कर अपने आपको अपने दोस्तों, परिचितों और आधुनिक सेलफोन के जाने-अनजाने कॉटेक्ट्स के बीच अपने आपको कुछ महान साबित करने की कोशिश की होगी। लेकिन क्या यही मिच्छामी दुक्कड़म है? नहीं। यह नहीं है। आप या मैं धोखे में हैं और लोगों को भी भ्रम में रख रहे हैं। आप या मैं क्षमा कतई नहीं मांग रहे। वे बोले और मेरी तरफ देखने लगे।
मैं उन दिनों 11वीं में था और वे मेरे पिता के एक मित्र थे। उस दिन घर आए और जैन दर्शन के बारे में समझाने लगे। मेरे पिता जैन धर्म और दर्शन को नास्तिक और मूर्तिपूजा का पाखंड फैलाने वाला धर्म मानते थे। दोनों मित्रों के बीच सुबह मेरे स्कूल जाने के समय शुरू हुई बहस स्कूल से मेरे लौटने तक जारी थी। दोनों में कोई टस से मस होने को तैयार न था। लेकिन मेरे पिता के मित्र बहुत ही शालीन, माधुर्य से भरे और ज़हीन-शहीन थे, जबकि मेरे पिता एकदम रफटफ। घोड़े पालने के शौकीन और संस्कृत के ग्रंथ पढ़ने के। वह भी धार्मिक, लेकिन सोच में बहुत ही तार्किकता और विवेकशीलता। हर पुरातनपंथ और रूढ़िवादिता का कड़ा विरोध और आधुनिकता की अवधारणाओं पर आधारित नई चीज़ों के समर्थक। लेकिन पिता के मित्र जैन दर्शन के ऐसे व्याख्याकार कि हर किसी को मुग्ध कर लें और पिता के तर्कों को भोंथरा बना दें। उस बहस के कुछ अंशों की अनुगूंज आज भी मिच्छामी दुक्कड़म के अवसर पर सहसा याद आ जाती है और मैं इस दर्शन के मूल संदेश को बहुत सहजता से समझने वाली उस घटना की धुंधली यादों में डूब सा जाता हूं।

पिता के मित्र या तो बिश्नोई थे और जैन हो गए थे या फिर जैन थे और बिश्नोई हो गए थे। लेकिन वे थे वे बड़े दिलचस्प इनसान। वे बताने लगे : मिच्छामी दुक्कड़म यानी दुनिया की हर समस्या का समाधान। हम दोनों की बहस का भी समाधान। वे उम्र में पिता से भी बड़े थे, लेकिन तीखी बहस की परिणति करते हुए पिता के पांवों की तरफ झुकने लगे और इस समय की बर्बादी के लिए सच्चे हृदय से क्षमा मांगने लगे तो हम सब के आंखों में गीलापन था। जाते हुए उन्होंने समझाया : मिच्छामी दुक्कड़म यानी आपने वाक़ई अगर अपने व्यवहार से किसी को ठेस पहुंचाई है तो उसके घर या उसके पास जाकर दिल खोलकर कहो : मैंने आपसे उस दिन यह दुष्टता की थी और मुझे अपनी उस दुष्टता के लिए क्षमा कीजिए। मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गई। उन दिनों पंजाब प्राब्लम चल रही थी और वे बोले : अगर आज इंदिरा गांधी पंजाब में जाकर पंजाब के नागरिकों के बीच अपनी ग़लतियों के लिए खुलकर क्षमा मांग लें तो बताओ समस्या रहेगी? मुझे लगता है, वे आज होते तो कहते, कश्मीर में अखबारों और मीडिया की आज़ादी छीनने वाले क्या इंदिरा गांधी की इमरजेंसी के बरअक्स इसकी तुलना करने का साहस करेंगे? माना कि कश्मीर में बहुत आतंक मचाया गया होगा, लेकिन क्या हमारे सुरक्षा बल कभी गलतियां नहीं करते? क्या शासक से कभी गलती नहीं होती?

वे आज होते तो बताते कि मिच्छामी दुक्कड़म का मतलब होता है : आप जब सड़क पर कार से जा रहे हैं तो आप पैदल चलने वाले को रोड क्रॉस करने की कोशिश करते समय स्पीड या हॉर्न से डराएंगे नहीं, क्षमा भाव से अपनी कार को धीमा करेंगे और विनम्र निगाहों से उसे इशारा करेंगे कि आप पहले सड़क क्रॉस कर लें, मैं फिर निकल जाऊंगा। आप अगर शासक या अफसर हैं और इस शहर में आपकी कुछ अहमियत है तो आप सबसे पहले इस शहर की सड़कों को आम पैदल नागरिक के लिए चलने लायक भी रखेंगे। उनके लिए फुटपाथ भी बनाएंगे। लेकिन आप जैन सड़क परिवहन मंत्री या जैन पीडब्लूडी मंत्री होकर भी कभी सोचते हैं क्या? आप जैन धर्म के नाम पर वोट बटोर कर गृह मंत्री या मुख्यमंत्री तो बन जाते हैं, लेकिन क्या कभी पुलिस या सुरक्षा बलों को इस बात के लिए तैयार करते हैं कि वे कम से कम निरपराध लोगों के साथ तो बिना हिंसा के भी पेश आ सकें। क्या कश्मीर समस्या मिच्छामी दुक्कड़म से नहीं सुलझ सकती? शायद सुलझ सकती है, लेकिन हम ऐसा नहीं करते, क्योंकि हमारा जैन के धर्म के इस महान सिद्धांत के प्रति सच्चा आदर नहीं है। क्या रिश्वत नहीं लेना या ज़रूरतमंद का बिना पैसा लिए और बिना परेशान किए काम कर देना मिच्छामी दुक्कड़म नहीं है? क्या अपने पत्रकार, पुलिस अफसर, प्रशासनिक अधिकारी या सत्ता में कुछ होने का दबदबा बनाकर काम निकलवाना या लोगों पर रुआब गालिब करना वह पाप नहीं है, जिसके लिए मिच्छामी दुक्कड़म कहा जाना चाहिए?

हम पति, पिता, भाई, पुत्र या बॉस अथवा सहकर्मी के रूप में क्या जाने-अनजाने अनेक बार दुष्टता नहीं करते? क्या हम धर्म के नाम पर दुष्टता नहीं करते? इस देश में सब बराबर के नागरिक हैं। लेकिन क्या कभी आपने सोचा कि सारा दिन मिच्छामी दुक्कड़म का रट लगाने वाले आप मैं अपने आपको अधिक सच्चा और अधिक पावरफुल नागरिक समझते हैं और दूसरे किसी को दोयम दर्जे का कमजोर और देश विरोधी? सिर्फ इसलिए कि उसकी संस्कृति या सांस्कृतिक वेशभूषा कुछ और है? क्या ऐसा नहीं है कि कुछ लोग एक जाति विशेष में जन्म लेने भर से अपने आपको 48 कैरेट का समझने लगते हैं और कुछ लोगों को कुछ जातियों विशेष में पैदा होने के कारण रोल्डगोल्ड या लौह अयस्क मानते हैं। लेकिन वे भूल जाते हैं कि सोना सिर्फ़ दिखावे की चीज़ है और हिंसा का मौका आ जाए तो लोहे को तलवार या भाले में बदलते देर नहीं लगती। लेकिन यह मानव जाति की आदिकालीन समस्या रही है कि तीर्थंकर बार-बार जन्म लेकर मिच्छामी दुक्कड़म और अहिंसा का पाठ पढाते रहे हैं, लेकिन हम सदा तीर्थंकरों की पूजा करते हुए भी उनके दर्शन को दरकिनार कर हिंसा का नग्न नृत्य करने वाले कृत्यों से अभिभूत होते हैं। तीर्थेंकरों ने और भगवान महावीर ने सैन्य शूरवीरों को अहिंसक सौम्य, सुशांत और सदगुणी बनाकर ही दम लिया, लेकिन हम देखते हैं कि आज भी बहुतेरे लोगों को वह दर्शन कम और सत्ता के सजाए वे स्वर्णघट अधिक भाते हैं, जिनमें विष भरा है। भगवान महावीर ने वही तो चेताया था।

जैन दर्शन के कारण एक खुशबू जो कभी हम लोगों की पलकों पर बस गई थी, वह आज लुप्तप्राय है। भगवान महावीर के साधक, जो दो हजार साल से भी अधिक समये से नग्न पांव चलते हैं, आज उनके लिए देश के किसी राह पर फुटपाथ तक नहीं हैं, लेकिन क्या कभी कोई मेयर, कोई मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री इस बात के लिए मिच्छामी दुक्कड़म बोलता है? कितनी ही वीतरागी साध्वियां सड़कों पर बेतहाशा वेग से भागते वाहनों तले दब कर कुचल दी जाती हैं, लेकिन क्या किसी को चिंता नहीं रहती। कहां तो हम बातें करते हैं कि साधुओं को वस्त्र पर चिपकी रह गई दूब की नोंक भी नींद में उनके चुभ सकती है और कहां हम उनके पांवों को दिए जा रहे संत्रासों तक पर परवाह नहीं करते। हालांकि मेरे लिए इस देश का हर नागरिक ही उतने ही महत्व का है, लेकिन मैं समझता हूं कि आप साधु का ही कल्याण करो तो उस नागरिक के दु:ख का भी समधान हो जाएगा, जिसकी कोई सुनता ही नहीं। लेकिन आप भी जानते हैं और मुझसे भी यह छुपा नहीं है कि हम इसी तरह हर साल मिच्छामी दुक्कड़म के संदेश अपने स्टेटस में लगाते रहेंगे या सेंड करते रहेंगे और मुग्ध हाेते रहेंगे। लेकिन कभी किसी से अपनी दुष्टता के लिए क्षमा की याचना नहीं करेंगे। आप भी मैं भी। फिर भी मिच्छामी दुक्कड़म …मुझे मेरे पापों और मेरी दुष्टताओं के लिए आप क्षमा करें।

पुनश्च :

मैं अपने उन सभी मित्रों से क्षमा चाहूंगा, हृदय से माफ़ी, जिन्हें मैंने इस जगह उनके विचारों के ख़िलाफ़ लिखकर चोट पहुंचाई है।

ज़ेनोफ़ोबिया की शिकार विचारधारा के उन सभी मित्रों से हृदय से क्षमा, जिन्हें मेरी पोस्ट्स ने विचलित किया है।

उन सभी मित्रों को सदैव नया बल और सामर्थ्य मिले, जो मेरे इन बॉक्स या अपने वाट्स ऐप स्टेटस के माध्यम से मेरे विचार व्यवहार से परेशान रहते हैं।

( त्रिभुवन उस पत्रकारिता के मजबूत पहरुआ हैं, जिनमें विचार, लेखन, पत्रकारिता ही नहीं बल्कि इंसानियत की बात भाती है)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *