मिच्छामि दुक्कड़म: … और मैं फफक कर रो पड़ा

दोलत्ती

 

: कभी भों-भों कर या दांतों से होंठों को भींच कर रोना शुरू कर देता हूं : पर्यूषण-पर्व पर पूरे गर्व के साथ आत्‍म-विश्‍लेषण कीजिए : बेधड़क और साफ दिल से कहिए कि मेरी गलतियों और अपराधों के लिए मुझे क्षमा करें : अपराध बच्‍चे ही नहीं, मां-बाप भी कर सकते हैं :

कुमार सौवीर

लखनऊ : “मिच्छामि दुक्कड़म, अर्थात मेरी गलतियों और अपराधों के लिए मुझे क्षमा कर दीजिए।”

बीते बरस आज ही की शाम को मेरी बेटी साशा ने भी मुझसे यही कहा, जब मैं लखनऊ की ओर लौट रहा था। अभी करीब दो महीना पहले भी मेरी बड़ी बेटी बकुल ने भी मुझसे ठीक यही बात कही। बोली कि मैंने आपको बहुत सताया है, मैंने बहुत गलतियां और अपराध किये, लेकिन आपने मुझे हर बार मुझे माफ कर दिया। लेकिन मैं उन सब गलतियों के लिए खुद को माफ नहीं कर पा रही हूं, इसलिए आपसे बार-बार क्षमा चाहती हूं।

उफ्फ। आर्त-स्वर और रुंधे गले से जब कोई बच्चा अपने बाप से यह कह दे, तो उसके पिता का फफक कर रो पड़ना स्वाभाविक है। जाहिर है कि उस वक्‍त मैं भी रो पड़ा। और केवल उसी वक्‍त ही क्‍यों, जब-जब भी मुझे उन घटनाओं की याद आती है, मैं फफक कर रो पड़ता हूं। कुछ लोगों अगर मौजूद होते हैं, तो अकेले में किसी दूसरे कमरे में या फिर बाथरूम जाकर रोने लगता हूं। कभी भों-भों कर या फिर कभी दांतों से होंठों को भींच कर रोना शुरू कर देता हूं।

हालांकि मैं शुरू से ही यह मानता रहा हूं कि अगर मैंने किसी के साथ कोई गलत या अपवित्र व्‍यवहार किया है, या फिर अनावश्‍यक अथवा अनाधिकार चेष्‍टा करते हुए उसका दिल दुखाया है तो मुझे उससे अपने व्‍यवहार के लिए क्षमा मांगने में पल भर की देरी नहीं करनी चाहिए। हां, जब मैं यह मानता हूं कि मेरा कोई व्‍यवहार वाकई सही था, भले ही सामने या किसी अन्‍य के दिल को ठेस पहुंची है, तो मैं उससे माफी नहीं मांगता। लेकिन बाकी हर मौकों पर मैं यही चेष्‍टा करता हूं कि अपने अपराधों के लिए तत्‍काल या यथासम्‍भव जल्‍दी से जल्‍दी पीडि़त व्‍यक्ति से क्षमा-याचना कर लूं।

और विश्‍वास मानिये कि ऐसे हर मौके पर मैं खुद को बहुत हल्‍का और पवित्र महसूस करता हूं। यह भी पाता हूं कि जिससे मैंने क्षमा की भीख मांगी है, वह भी न केवल खुद में मजबूत महसूस करने लगता है, बल्कि उसका व्‍यवहार भी मेरे प्रति अपरिमित रूप से प्रवाहमान होने लगता है। प्रेम, विश्‍वास और मजबूत की अगाध धारा दोनों में मजबूत होने लगती है और अक्‍सर यह भाव आंसुओं के तौर पर बहने लगते हैं।
यही तो है मिच्छामी दुक्कड़म। जिसे जैन-धर्म के प्रवर्तक महा-तपस्‍वी और अपरिग्रही संन्‍यासी महाबीर ने बुना था। अपने जैन समुदाय के पांच मूल व्रतों में से एक है अपरिग्रह। इससे मिच्छामी दुक्कड़म का भाव उमड़ता है। और जब मिच्छामी दुक्कड़म की डगर पर आप आगे बढ़ने लगते हैं तो स्‍वयं में अहिंसा अपने आप से हमेशा के लिए बाहर निकल जाती है।

जी हां, पर्यूषण-पर्व खुद को अपने भीतर झांकने का महानतम अवसर देता है। झूठे और आडम्बरयुक्त हर्ष-उल्लास के साथ नहीं, बल्कि दिव्य आनंदमय हर्ष-उल्लास के लिए। स्‍वयं और अपनी आत्‍मा को भी पवित्र बनाने का उपक्रम। विकारों का स्‍थाई निदान। मानसिक शांति का एकमात्र माध्‍यम। मानव के लिए मानव-कल्‍याण का इकलौता तोहफा। सच बात तो यही है कि जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान महावीर जी का समुदाय आज भले ही संसार में बहुत छोटा हो, लेकिन उसके आदर्श-स्तम्भ विशालतम हैं। अपनी गलतियों और अपराधों पर प्रायश्चित करने की अनूठी परंपरा इस धर्म को आध्यात्म और जीवन-आदर्श के क्षेत्र में शीर्ष तक पहुंचा देती है।

सोचिये न, कि दुनिया में कौन ऐसा है जिसने कोई गलती नहीं की। लेकिन वे चंद लोग ही होते हैं, जो अपनी गलती या अपराध के लिए क्षमा-याचना, स-संकल्प, कर लेते हैं। और ऐसा करते ही वे अशोक हो जाते हैं। महान सम्राट अशोक। महात्‍मा गांधी बन जाते हैं। और अंतत: साक्षात महावीर बन जाते हैं।

आइये, महसूस तो कीजिये, कि तब आप खुद को कितना हल्का, निष्पाप, सरल और नये संकल्प के साथ अप्रतिम स्फूर्तिमान महसूस करने लगेंगे।
सच बताऊं, मैंने भी पापा से ठीक यही प्रायश्चित किया था।

लेकिन ऐसा नहीं कि यह महावीर के बाद अगला महान व्‍यक्ति केवल मैं ही हूं। सच बात तो यह है कि मेरे पिता ने भी मुझे यही सिखाया था। पापा से असहमति के चलते मैं अलग ही रहता था। बहुत बचपन में ही पापा सियाराम शरण त्रिपाठी ( 36 बरस पहले स्‍वर्गीय हुए थे पापा) ने मुझे पीट दिया था। नतीजा मैं घर से भाग गया और बिना टिकट ही कानपुर पहुंच गया। वहां होटलों में कप-प्‍लेट धोने का काम किया, फिर रिक्‍शा चलाया, वगैरह-वगैरह। लेकिन उस बारे में काफी कुछ लिख चुका हूं, आगे भी लिखता रहूंगा। लेकिन फिलहाल तो मिच्‍छामि दुक्‍कड़म की शुरुआत का किस्‍सा सुनिये। यह अक्‍टूबर सन-84 की किसी सुबह की घटना है। लेकिन जब वे बीमार रहने लगे तो मैं अक्‍सर उनके पास पहुंच जाता था। एक दिन बिस्‍तर पर लेटे पापा ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझसे कहा कि, “मैंने तुम्‍हारे प्रति बहुत अपराध किया है। मैं शर्मिंदा हूं। अब यहां घर आ जाओ।”

उसके पहले टनों बोझ था मेरे मन पर, लेकिन पल भर में ऐसा चमत्‍कारिक अनुभव हुआ जैसे अवसाद की सारी केंचुल अपने आप उतर गई। कुमार सौवीर का जीते-जी पुनर्जन्म हो गया। एक अक्खड़, अभद्र, उजबक, जिद्दी व्यक्ति दूध से नहाए एक निष्पाप बच्चे की तरह किलकारियां भरने लगा। सारी प्रतिक्रियाएं एकसाथ उमड़ीं। लगा कि अचानक किसी ने मुझे आसमान से जमीन पर दे फेंक मारा है।

आंसू और रुलाई की सुनामी उठने लगी। मैंने उनका हाथ छोड़ा। अपनी सायकिल उठायी और सीधे हीवेट रोड वाले आफिस की ओर बढ़ गया। लेकिन घर से बाहर निकलते ही आंसू हिचकियों के तौर पर निकलने लगे। हनुमान सेतु वाले मंदिर के सुनसान कोने पर मैं फफक-फफक कर रोने लगा। करीब एक घंटे तक यही चलता रहा। फिर ऑफिस। फिर आलमबाग, जहां मैं रहना था। वहां से अपना सारा सामान बटोरा और देर शाम वापस अलीगंज वाले पापा के मकान पर। पापा तो चले गये, लेकिन मैं आज तक वहीं हूं।

किसी भी कर्म का आवलम्बन उसकी अनुभूतियों और सोच के साथ ही उसकी परिकल्पना की क्षमता पर ही निर्भर करती है।

अब मैं यह तो नहीं जानता कि मैं कितने गहरे में हूँ, लेकिन इतना तो यकीनन सच है कि साशा और बकुल निष्पाप ही नहीं, महान भी हैं। मुझसे कोसों-योजनों आगे। उनकी अनुभूतियों के लिए तो मैं ही जिम्मेदार हूँ न? और जिस दिन हम इस तथ्य को बच्चे की स्वीकारोक्ति के संदर्भ में अनुभूत कर लेंगे, तो मान लीजियेगा कि आप खुद को उबारने की कोशिश में जुट गए हैं।
और इसीलिए तो महावीर महान है। और मैं बाल-महावीर। महावीर सुलभ। जो अपनी गलतियों पर क्षमा-याचना में पल भर की देरी नहीं करता, लेकिन सच से एक इंच भी नहीं डिगता।

जय जिनेन्द्र

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