फूस के झोंपड़ों में विलासिता के प्रतीक थे खपरैल घर

दोलत्ती

 

:अलविदा बुजुर्ग खपरैल : कैल्शियम की सप्लाई का बड़ा आधार था गर्भवती महिलाओं के लिए खपरैल :
दिनेश कुमार गर्ग
लखनऊ : मेरी उम्र 62 वर्ष के आस-पास की है और चित्र में प्रदर्शित अधिकांश खपडे़ मेरी उम्र से भी सीनियर हैं । लगभग 2000 खपडो़ं मे से मात्र 10 से 15 प्रतिशत ही वार्षिक फेर-फार में डैमेज होने के कारण बदले गये और प्रतिस्थानीय खपडे़ भी मेरे बाबा जी के बनाये स्टाक से पूरे हो गये ।
खपरैल आज से 50 वर्ष पूर्व मेरे बचपन के गांव की विलासिता हुआ करते थे । उसके और भी पूर्व अतीत में जमीन्दारों की कचहरी , दोपहर का विश्राम गृह , मेहमानखाना , बारातखाना , रंगशाला आदि-आदि के काम आया करते थे । मेरे अत्यंत बचपन की धुंधली स्मृतियों में मेरे एक्स जमींन्दार बाबा पंडित शिवराम गर्ग जो सोशलिस्ट, कांग्रेसी , जनसंघी ,कम्युनिस्ट धाराओं के विनम्र प्रचारकों के अमोघ आश्रयदाता और कभी कदा वित्तपोषक भी हुआ करते थे के दरबार के चित्र आज इन खपडो़ के साथ उमड़-घुमड़ रहे हैं । आज आषाढ़ के प्ररम पक्ष की चौथ है और अभी से ही बादल और घाम दोनों की घाल-मेल से आषाढ़ के उमस भरे दिन और फुहारवाली रात का अनुभव हो रहा है।यशस्वी जमीन्दार मेरे बाबा जी का देहावसान सन् 1989 की जुलाई में आज से 31 वर्ष पूर्व हुआ था । यशस्वी इसलिए कि वह जमीन्दारों की दुष्टताओं और ऐबों से मुक्त इलाहाबाद के सोशलिस्ट और कांग्रेस के राष्ट्रीय नेताओं के शुभचिन्तक रहे और अपने बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए प्रेरित कर सके हालांकि वह स्वयं में मिडिल फेल थे सन् 1930 के आसपास के बोर्ड परीक्षा में फेल हुए थे। उनका जन्म सन् 1917 में वत्सराज उदयन की राजधानी कौशाम्बी से सटे मेडरहा गांव में वणिक कार्य से समृद्ध ब्राहमण परिवार में हुआ था पर ससुराल तब परगना अथरवन के सबसे बडे़ महाजन जमीन्दार के यहां हो गयी और निःसन्तान जमीन्दार के दूसरे घरजमाई बन गये थे। पहले घर जमाई उनके बडे़ भाई पंडित श्याम नारायण गर्ग थे। वे भी सदाचारी और विद्या व्यसनी थे इसलिए अपनी इकलौती बेटी को दारागंज के मणि त्रिपाठी वैद्यों के यहां दी और इकलौते बेटे को इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ने भेजा था।
खपडा़ मुझे सन् 1917 तक अतीत में पीछे ले गया । खपरैल जिसे आज भी मेरे गांव में बंगला बोलते हैं अब बंदरों के उपद्रव , मेरे पिता जी आचार्य पंडित रमाकांत के 2002 में और बडे़ पिता जी पंडित जागेश्वर प्रसाद के असामयिक निधन के बाद उपेक्षित रहने लगा । हम सरकारी नौकरों को उसकी छांव में बैठने , मुलकातियों को तृप्त करने , सामाजिक समारोहों को संपन्न करने का सौभाग्य नहीं मिल सका । हम नौकर थे नौकरों की तरह सेवा करते जीवन बिता दिया । मेरे पिता शिक्षक थे पर उनके ज्येषठतम बडे़ भाई जागेश्वर प्रसाद गर्ग अपने साठोत्तर जीवन तक ग्राम प्रधान रहे सो वह निर्वाचित जमीन्दार रहे। मुझे याद आता है कि उन्हे आजीवन लोग मालिक और प्रधान साहब ही कहते थे और मरत दम तक गांव के लोग उनके हुक्म की आरसी करते रहे हलांकि प्रधानी के पद को उन्होंने सन् 1985 के आस-पास ही छोड़ दिया था।
खपरैल गांवों का सबसे सस्ता लोकल प्राॅडक्ट और लोकल अनट्रेण्ड श्रमिकों से निर्मित व मेन्टेन कराया जा सकने वाला प्राॅडक्ट या विश्रामालय है। खपडे़ गांव के कुम्हारों का चौकस बिजनेस हुआ करता था । वे भी अब खपरैल के निवर्तमान होने से बिजनेस स्ट्रेस में आ गये हैं । खपडो़ का प्रयोग मैंने गांव की गर्भवती माताओं को कैल्शियम आपूर्ति के लिए उसके सोंधे टुकडो़ को चबाते भी देखा है। मैं अपने उस बचपन को याद करता हूं जब मैं केवल घुटनों पर रेंग सकता था या फिर पुजारी भाई की गोद में बैठकर खपरैल के बंगले तक पहुंच सकता था । अतः मैं इस खपरैल बंगले को यथारूप रखना चाहता था । पर कहावत है न कि मैन प्रपोजेस एण्ड गाॅड डिस्पोजेस ( खुदा की स्कीम मनुष्य की स्कीम से जुदा है ) । खुदा ने पिछले 7-8 वर्षों से कपि सेना मेरे गांव में भेज दी है जिन्होंने मेरा बहुत नुकसान किया । 500 लीटर की पानी की टंकी ध्वस्त कर दी , पानी की पाइप लाइन तोड़ दी , चम्पक वृक्ष का सत्यानाश कर दिया , बिजली की लाइनों का बुरा हाल कर दिया और खपरैल के 50 प्रतिशत खपडो़ को खेल-खेल में ध्वस्त कर दिया । निढाल मुझे अपने बाबा की स्मृति को संरक्षित करने के लिए अब फैक्ट्री मेड एस्बेस्टस सीट , आयरन शटरिंग आदि का सहारा लेना होगा और इस खपरैल को इतिहास बनाना पड़ रहा है। विदा प्यारे खपडो़ , भाव-भीनी विदाई।

( दिनेश गर्ग ने आधा से ज्यादा जीवन सूचना विभाग में खपाया है। खट्टे-मीठे अनुभवों के खजांची कह सकते हैं आप उनको। अभी अपमान, कभी खुशी। लेकिन अक्सर तो ऐसी खुशी अफसरों की कृपा से मिली। बाकी जगह तो कुशलता पर जुगाड़ ने भांज लिया। रिटायर होने के बाद वे तेज़ लिखने लगे हैं। हां, पहले तो ठीक थे, लेकिन अब उनमें हिंदुत्व के प्रति समर्पण हो चुका है, कभी हल्का आक्रामक भाव भी। हां, व्यवहारगत व्यवहार में भी काफी बदलाव आया है, मुस्कान में दृष्टिकोण बदलने-प्रदर्शित होने लगा है। भाषा में प्रवाह गजब है दिनेश गर्ग की कलम में। आजकल कोई किताब लिख रहे हैं)

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