डॉक्टर की मौत पर डीएम का पत्र अहम दस्तावेज है

दोलत्ती
: बेमिसाल योद्धा के लिए एक नायाब योद्धा का पत्र : अम्बेदकर नगर के मुख्य चिकित्सा अधीक्षक डॉ गौतम की कोरोना से हुई मौत : मौत पर आंसू बहाना, दुखी होना एक मानवीय प्रवृत्ति : सामाजिक क्रिया के साथ जाते यात्री पर सामाजिक चर्चा पवित्र दायित्व : 
कुमार सौवीर
लखनऊ : यह पहला मौका है, जब मैंने किसी आईएएस को अपने अधीनस्थ की मौत पर हुए सोग-शोक पर सार्वजनिक टिप्पणी करते देखा है। यह अचरज की बात तो है ही। वजह यह कि आम तौर पर आईएएस अफसर ऐसा नहीं करते हैं।
ऐसा नहीं है कि उन्हें अपने अधीनस्थों की मौत पर दुख नहीं होता होगा। कई अफसरों को तो जरूर ही होता होगा। अफसर के सीने में भी दिल होता है, और वह दिल धडकता भी होगा, रोता भी होगा और सिसकियां भी भरता होगा। लेकिन कुछ तो इस लिए खामोश रह जाते होंगे कि वे खुद को इतना कमजोर साबित करना नहीं चाहते होंगे कि अपने दुख, शोक और पीडा को सार्वजनिक रूप से जाहिर करें। वे सोचते होंगे कि इससे वे अपने आप को शासकीय दायित्वों के प्रतिकूल संदेश दे पडेंगे। ऐसे में खामोश रहना ही बेहतर समझते होंगे।
कुछ ऐसे आईएएस अफसर भी होंगे, जो यह समझते होंगे कि जीना-मरना तो दैव इच्छा होती है। जो गया, वह दैव इच्छा से गया, और जाएगा वह दैव इच्छा से ही आयेगा। इसमें हम क्या कर सकते हैं? अब तो यह हालत यह है कि अधिकांश कलेक्टरों का वक्त लोगों से पहाडा सुनने में बीतता है या फिर अपनी जुल्फी संवारने में।
मेरा मानना है कि यह नजरिया एक निष्ठुर सोच से उपजती है, जिसमें केवल स्व-संतोष और केवल अपना ही हित यानी स्वार्थ ही हिलोरें भरता होगा। ऐसे अफसरों को लगता है कि वे राजा की जाति में जन्मे हैं, और राजा को रोना, धोना या शोक केवल प्रदर्शन के स्तर पर ही करना चाहिए। निस्पृह भाव में। ऐसे लोग अपने पद-त्याग के बाद गजट यानी शासकीय डायरी में अपने अनुभवों को लिखने तक की जरूरत नहीं समझते हैं।
कुछ ऐसे अफसर होते हैं, जो अपने भावों को दबाये रखने में ही अपनी प्रशासनिक दक्षता, अपना कौशल और रणनीति मान कर उसे अपनी जीत समझते हैं। आपने अक्सर देखा होगा कि ऐसे अफसर किसी मौत पर उसके यहां जाते तो हैं, लेकिन अतिशय गम्भीरता के साथ सतर्क भाव में खडे होते हैं। वहां पहुंचे प्रभावशाली लोगों से भेंट के दौरान उनके मनोभाव उनके चेहरे और हावभाव में साफ परिलक्षित होते हैं। बेहद चैतन्य भाव में, लेकिन निहायत औपचारिक भाव में उनकी गतिविधियां दिखायी पडती हैं। दुखी परिवारीजनों के कांधे पर हाथ रख कर उसे दो-तीन बार थपथपा देना उनकी औपचारिक प्रक्रिया का अंग होता है। जो बार-बार घडी देखने और मोबाइल पर व्यस्त होने के अभिनय के साथ संचालित होता रहता है।
कुछ अफसरों का मानना होता है कि उनकी संवेदनशीलता का अर्थ उनके अधीनस्थ लोग अनर्थ तर्क पर देखना शुरू कर देंगे। जबकि कुछ ऐसे भी अफसर होते हैं, जो वाकई अक्सर रो पडते दिख जाते हैं। पीडित परिवारी जनों के प्रति शासकीय दायित्वों के लिए जुटे रहते हैं। उनके बकाया देयों का भुगतान कराने में जी-जान लडाये रखते हैं।
लेकिन बहुत कम ही लोग ऐसे होते हैं जो अपनी पीडा को जग-जाहिर कर देते हैं। अम्बेदकर नगर के जिलाधिकारी राकेश मिश्र जैसे लोग इसी प्रजाति के प्रतिनिधि हैं। वहां के मुख्य चिकित्सा अधीक्षक डॉ संत प्रसाद गौतम की कोरोना संक्रमण से हुई मौत पर राकेश मिश्र ने न केवल लखनऊ पहुंच कर पीडित परिजनों के साथ अपना हार्दिक शोक व्यक्त किया, बल्कि अंतिम संस्कार तक वे शवदाह गृह तक मौजूद रहे। राकेश केवल यही तक ही सीमित नहीं रहे। उन्होंने इस पूरे दौरान हुई अपनी पीडाओं को बाकायदा लिख कर व्यक्त किया। पूरी जिम्मेदारी के साथ, पूरी भाव-प्रवणता के साथ, पूरे भावावेश में।
उनका लिखा संदेश सकारात्मकता तो था ही, सकर्मकता से भी भरा हुआ था। संदेश साफ था कि वे केवल डॉ गौतम के प्रति ही अपना प्रेम, समर्पण और पुष्पांजलियां-श्रद्धांजलियां ही नहीं अर्पित कर रहे हैं, बल्कि इसी के साथ ही साथ वे अपने अधीनस्थों का हौसला भी बढा रहे हैं।
एक बेमिसाल योद्धा के लिए और एक नायाब योद्धा का यह पत्र वाकई एक अहम दस्तावेज है।

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