: कोरोना पर बकलोली, और आशा की शव पर फोटो खिंचवाना : चूतियापंथी वाले शौक के किस्से हर गांव-मोहल्ले में ढम्म-ढम्म :
कुमार सौवीर
लखनऊ : वंस अपान ए टाइम, देयर वाज ए डीएम। टोटली बकलोल, हू वाज मूतिंग ओनली दो-चार ड्रॉप, बट हिलाइंग मच मोर, जस्ट लाइक अंट-शंट, बेशर्म-ट्रम्प और किम जोन एण्ड ए अंग्रेजी में समझ लीजिए कि जब एक पीसीएस आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था हुआ करती थी। इसमें कुछ भी हो सकता था। राजा भिखारी हो सकता था। ताकतवर मंत्री जूता-पोंछ संतरी हो सकता था। रामपुरी चाकू की धार पर अफसरों को फिसलाने वाला सीतापुर जेल वाली अशोक वाटिका में आंसू बहा सकता था। और बीवी-बेटे पर भाजपाई वानरों के फेंके गये ढेले बर्दाश्त करता था। नेता पनेता बन सकता था। दिल्ली का ताज पहनने का ख्वाब पाले लोग रिंकिया के पापा की तरह रेंकना शुरू कर सकता था। पैरों की बिछिया नाक की नथुनी बन सकती थी। लल्लनटॉप झुमका बन सकता था पूंछ की गांठ। घोडे-गधे की टांग के नीचे लगने वाली लोहे वाली नाल गले की हंसुली बन सकती थी।
ऐसी हालत में अगर किसी जवान जिले में एक खूसट डीएम बन कर आ जाए, तो उसमें अचरज किस बात की। आ गया, तो आ गया। महिला डॉक्टर बताती हैं कि कभी-कभार में छह-सात महीने में भी ऐसी औलादें पैदा हो जाती हैं या बच्चा पैदा होने के बाद बच्चा के चूतडों पर चपत-थप्पड लगा कर उन्हें अगर रूलाया न जाए, तो बच्चे विकलांग हो जाते हैं। जाहिर है कि ऐसी औलादें बाद में अपने खानदान को मटियामेट कर देती हैं। कई बार तो ऐसा भी होता है कि राजू श्रीवास्तव वाला पेट-सफा टाइप पॉलिटिकल दवा के जोर से जब मैटेरियल निकलने लगा, तो मुख्यमंत्री हल्का हो गये। आखिर पेट भी तो पेट है, उसे भी तो हल्का होने की जरूरत है। अरे अगर वह नहीं निकला तो क्या, यह तो बरामद हो गया। है कि नहीं।
तो साहब जनता भी मजा लिया करती थी। जिले में मौज-ही-मौज हुआ करती थी। डीएम को सुनाने का शौक था, लेकिन दिक्कत बात यह थी कि उसकी फटीचर जैसी बातों को सुनने को कोई तैयार ही नहीं हुआ करता था। दरअसल, उसे बात-बात पर खौखियाते हुए उसे कुछ कर दिखाने जैसा अभिनय करने का शौक बहुत था। इसीलिए कभी किसी को निराश कर देता, तो किसी आशा को बर्खास्त कर देता। फिर जयपुरी तोप लेकर उस आशा की लाश पर अपना पांव रख कर फोटो खिंचवाता और उसे अखबारों में झमाझम छपवाता था। जिस दिन कोई काम धाम नहीं होता उसके पास, उस दिन किसी भी स्कूल, सडक, चौराहे, या किसी शौचालय में घुसे व्यक्ति को पकड कर उससे पहाडा सुनवाता था। पूछता, कि छक्का सत्ता कितना हुआ, या फिर 61 के बाद कौन सी संख्या आती है। बहुत शौक था उसे लोगों से पहाडा या गिनती सुनने में।
बगल में गोमती, मुंह में दोहरा, चरित्र में मक्कारी। नगर अध्यक्ष पूरी ईमानदारी के साथ अधिकांश योजनाओं का फाइलों पर ही पेमेंट कर दिया करता था। अफसरों में बंदरबांट होती थी। पता तो पत्रकारों को हो ही जाता है, लेकिन ऐसी खबरों को सुन कर जागरूक पत्रकार लोग पूरी निष्ठा के साथ डीएम के अंग-प्रत्यंगों पर तेल लगाया करते थे। डीएम ने जो भी पाखाना त्यागा दिया होता है, पत्रकार लोग उसे हाथोंहाथ लपक कर कैच करते थे और फिर उससे अपने हाथों में मल कर अपने चेहरे और वस्त्रों पर रगड-पोत कर खुद के पवित्र कर दिया करते थे। विज्ञापन में कमीशनखोर को पत्रकारों ने उसे महामंत्री बना दिया। था छंटा हुआ जन्मना छिनरा। किसी के घर जाने पर उस घर की महिलाओं पर लार टपकाता था। एक दिन उसे एक मेजबान ने इस पत्रकार की हरकत पर उसे जम कर लुलुहाया तो वह पत्रकार अपनी पूंछ अपनी पिछली टांगों के नीचे गुप्तांग में समेट कर कूं-कू करते भाग निकला। लेकिन अपनी टांगों के भीतर न जाने क्या-क्या सूंघने की आदत आज भी उसमें बदस्तूर है।
सीएमओ से बहुत डरता था यह डीएम, इसलिए कई पीएचसी में पांच-सात साल से डॉक्टरों की भी नियुक्ति नहीं की थी। ऐसे सारे डॉक्टर अपनी प्राइवेट प्रैक्टिस करते थे, और मोटी रकम सीएमओ तक पहुंचा देते थे। खुरचन मिल जाती थी डीएम को भी। जनता बेहाल थी, लेकिन क्या करती। माचिस लेकर अपने ही बाल सुलगाया करती थी। सीएमएस तो एक नम्बर का छिनरा निकला था। सरकारी अस्पताल में इलाज कराने वाले लोगों को आपरेशन कराने के लिए वह उन मरीजों को प्राइवेट अस्पतालों में रेफर कर दिया करता था। एक बार अपेंडिक्स का आपरेशन किया। अस्पताल के बाहर नाले के किराने एक मेडिकल स्टोर के शौचालय पर रखे स्ट्रेचर पर। फिर क्या सेप्टिक हुआ मरीज को और एकाध हफ़ते भर में ही रामनाम सत्य हो गया। मामला दबाने के लिए दस लाख रूपयों की डील हुई और तीन लाख रूपयों का भुगतान उपभोक्ता में अदा किया गया। इतना ही नहीं, इस शौकीन डॉक्टर ने एक महिला ने निजी अस्पताल में रेफर किया, और वहां छेडखानी शुरू कर दी। मरीज महिला ने निकाली चप्पल, और अपनी सैंडलों पर स्टार्टर लगा कर करीब दो घंटों तक हौंका। कई दिनों तक अस्पताल नहीं आया यह डॉक्टर। पूछने पर बताया कि इनफेक्शन ज्यादा हुआ है। (क्रमश:)
(कोरोनो वायरस से पूरी दुनिया मौत से दहलने लगी है। लेकिन इस डीएम का शौक-शगल बिलकुल अनोखा है। वह कोरोना पर नियंत्रण करने वाली रणनीतियों पर काम करने के बजाय जहां भी जाता है, पहाडा सुनाने की प्रतियागिता शुरू कर देते हैं। भूल जाते हैं कि दुनिया, देश, प्रदेश, जिला के जिलाधिकारी की प्राथमिकता भयावह बीमारी-संक्रमण से जिले की जनता को बचाना है, न कि स्कूली बच्चों, कर्मचारियों या खेतों अथवा चौपालों में बैठे बुजुर्गों से गणित, पहाडा वगैरह सुन टाइम खोटा कराना है।
बहरहाल, दोलत्ती संवाददाता की इस खबर की अगली किश्तों में आप पढेंगे कि कैसे बंदरों की तरह इस डाल से उस डाल तक कुलांचें भर रहा है बूढा वानर-राज)
बढ़िया सर, हम जैसे ग़ैर ज़िम्मेदार पत्रकारों की भी धुलाई होनी चाहिए थी।