दस हजार हरामियों की मौत इजएक्‍वेल डीएम स्‍टेनो का जन्‍म

दोलत्ती

: आइये, समझिये कि कैसे और कौन सम्‍भालता है डीएम का किचन और बीवी-बच्‍चों की डिमांड : डीएम की ईमानदारी व मर्यादा का कौमार्य वेरी सिम्‍पल : बलिया में महिला अधिकारी की आत्महत्या :
प्रेम कुमार
लखनऊ : ” सौ हरामी मरते हैं तो एक किरानी पैदा होता है और सौ किरानी मरते हैं तो एक डी एम साहब का ‘स्टेनो’ पैदा होता है”. आहत होने की जरुरत नहीं है क्योंकि 2004-05 जब मैं नौकरी में था तो जिले के प्रशासनिक हलकों में ये कहावत खूब प्रचलित थी.
हाल ही में बलिया जिले में एक युवती पीसीएस अधिकारी द्वारा आत्महत्या करने की घटना के बाद ढ़ेरों यादें अचानक से ताजा हो गई. प्रभु वर्ग अंग्रेजों द्वारा विरासत में हमने जो प्रशासनिक व्यवस्था पाई है उसमें आइ ए एस बिल्कुल ‘माईबाप’ वाली शक्तियों से लैस कर दिया गया है और वह उस शक्ति का प्रयोग आजाद भारत के लोकतंत्र में भी खूब लहालोट होकर करता है.
स्टेनो जिले में डी एम साहब की शक्तियों के गैरकानूनी प्रयोग का आतंकित करनेवाला पद है. जिले स्तर के विभिन्न विभागों के अधिकारियों के लिए डी एम साहब का ‘स्टेनो’ वो कटहा कुत्ता है जिससे सब नजर बचा कर निकलना ही चाहते हैं और मजबूरी में अगर सामना हो ही जाए तो उसे मन ही मन मादर-फादर करते हुए भी प्रत्यक्ष रुप में नाराज नहीं करना चाहते हैं. अक्सर मीटिंग,फाईलों से संबंधित बहस मुबाहिसों के बाद डीएम साब तो इंद्र की तरह मर्यादित बने चले जाते हैं लेकिन उनका स्टेनो शिकार में लग जाता है.
परम घाघ होने के कारण उसे सब पता होता है कि किस विभाग में कितनी कमाई हो रही है सो उसी अनुपात में वह डीएम कोठी के राजसी खर्चों को अधिकारियों के पिछवाड़े चिपकाता है. अक्सर डीएम कोठी के किचन से संबंधित सारा खर्चा जिला पूर्ति अधिकारी के मत्थे मढ़ा जाता है जो अकल्पनीय होता क्योंकि उसमें स्टेनो वृंद अपने खर्चे भी सटा चुके होते हैं।
आप यकीन करें या न करें बिहार यूपी के कम से कम पचासी फीसद जिलों के डीएम साब अपनी तनख्वाह से अपने बीवी बच्चों का पेट नहीं पालते हैं.
एक डीएम साब की बीवी के पसंद के रियल एक्टिव जूस के सौ रुपये के डिब्बे के लिए रेग्युलर श्रावस्ती से लखनऊ तक एंबेसडर कार आती जाती थी जाहिर है व्यवस्था कोई विभाग प्रमुख ही करता था।
डीएम साब के बच्चों के लिए मोबाइल, लैपटॉप जैसी चीजों के लिए स्टेनो साहब ए आर टी ओ,डी पी आर ओ जैसे किसी भी अधिकारी को पूरे हक से याद करते हैं और बेचारे पीसीएस स्तर के अधिकारियों की इतनी औकात ही नहीं होती कि वह सपने में भी डीएम साहब से कन्फर्म कर सकें कि सर सच में आपने मंगाया भी था. पीसीएस अधिकारी तो अपने घरों में भी डीएम साहब का फोन आ जाने पर बैठे हों तो हड़बड़ा कर खड़े हो जाते हैं और नहीं तो वो उनके द्वारा कुछ भी पूछे जाने पर यस सर की बजाय ‘सर सर’ ही कह पाते हैं। ऐसे में स्टेनो साहब कहर बने रहते हैं.
नेताओं द्वारा उत्पीड़न तो द्वितीयक स्तर है प्राथमिक तो अधिकारियों का आपसी उत्पीड़न ही है. जबकि जानवर होने के बावजूद कुत्ता कुत्ते को नहीं काटता यहाँ ये एक दूसरे का शिकार करते करवाते हैं.
यही वो नाजुक मोड़ होता है जहाँ नए अधिकारी टूट जाते हैं, भाग खड़े होते हैं या पूर्ण भ्रष्ट बनकर आगे जीवन भर की चोरकटई के लिए तैयार हो जाते हैं।
फिर तो घूसखोरी का स्वरुप एक चेन रिएक्शन वाला बना रहता है। और माईबाप बना आईएएस ऊपर से देख मुस्कियाते हुए long live bureaucracy का मन ही मन जाप करता रहता है।
मल्लब स्टेनो के मार्फत जम कर धंधा करते हुए भी डीएम साब अपनी ईमानदारी और मर्यादा का कौमार्य दुनिया की नजर में बरकरार रखते हैं। व्यवस्था ऐसे ही काम करती है। ये सारी बातें जानते सब हैं बस बोलता कोई नहीं. हम जैसे कुछ रणछोड़दास होते हैं जो किनारे खड़े बड़बड़ाते रहते हैं व्यवस्था को उससे …. फरक नहीं पड़ता।

( प्रेम कुमार ने जिन्‍दगी में दो ही काम किये। एक तो नाम के हिसाब से ही प्रेम, और पढ़ाई। इश्‍क मिल गया। उधर दिन-रात पढ़ाई करने का मकसद था सरकारी नौकरी हासिल करके देश और जनता की सेवा करना। नौकरी मिल गयी, लेकिन सरकारी कामकाज में जिस तरह की घिनौना नंगापन से साक्षात्‍कार किया, नौकरी से ही उससे घृणा भी हो गयी। हर ओर व्‍यभिचार और बेईमानी। अब हालत तो यह है कि खुद को सरकारी चाकरी से दक्खिन कर चुके हैं प्रेम, लेकिन जिन्‍दगी मस्‍त। इश्‍क तो सलामत है न, इसलिए। मुल्‍ला की दौड़ अब सिर्फ घर वाले बेगूसराय से लेकर परिवार के पास लखनऊ तक ही सिमट गयी है।)

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