अदालती सफलता के लिए ज्ञान नहीं, फितरतों की जरूरत ज़्यादा

दोलत्ती

: छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता कनक तिवारी का कुबूलनामा : कोर्ट व वकील समाज में परेशानी का बड़ा कारण : जनता में अपमान, असहायता, पराजय और घबराहट न दूर कर पाया :
कनक तिवारी
रायपुर : महाधिवक्‍ता रह चुका एक शख्‍स जब समाज के प्रति न्‍यायपालिका की असफलता की भूमिका पर बोलता है, तो साफ समझियेगा कि दिमाग ही नहीं, बल्कि दिल से भी बोल रहा होगा। इस शख्‍स का नाम है कनक तिवारी। खांटी गांधीवादी विचारधारा के सेनानी। आज बोले कि आज सोचा है कि अपने अहंकार में जी लूं। इसलिए आप से साझा कर लिया। कनक तिवारी का कटु अनुभव है कि अदालत की दुनिया में सफलता के लिए ज्ञान के अलावा अन्य कई फितरतों की ज़्यादा ज़रूरत है। वअदालतें और वकील समाजिक जीवन की परेशानी का सबसे बड़ा कारण हैं। यही बात तो सन 1909 में बापू ने हिन्द ‘स्वराज‘ में साफ कह दिया था। कनक तिवारी को हैरत है कि बापू की नस्ल के कालजयी लोग सच क्यों बोल देते हैं? अन्यथा हम कम से कम ग़फ़लत और ग़लतफ़हमी में ही जीते रहते। हालांकि पिटाई भी हमारी ही होती रहती। एक बेहद औसत वकील का यह मुलजिम बयान है। वह जनता में फैल गए अपमान, असहायता, निराशा, पराजय और घबराहट को दूर करने कुछ नहीं कर पाया।
संविधान के कारण रोजी रोटी 1971 में शुरू हुई। अचरज के साथ मुझे विधि स्नातक परीक्षा में स्वर्ण पदक मिला। 8-9 बरस की प्राध्यापकी को बहुत कम वेतन के कारण छोड़ना पड़ा। जिला अदालत से कभी कभार हाई कोर्ट जाता था। कुछ बरस बाद हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस गोवर्धनलाल ओझा औपचारिक कार्यक्रम के सिलसिले में मेरे गृह नगर दुर्ग आने पर घर आए। उन्होंने हाई कोर्ट जज बनने पिता की तरह समझाया। नौकरी से घबरा चुका भविष्य देखने में असमर्थ होने से उनकी बात नहीं मान सका। 1982 में विद्याचरण शुक्ल की चुनाव याचिका अपील में सहायता करने देश के धाकड़ वकील अशोक कुमार सेन की सोहबत मिली और बाद में एटार्नी जनरल रहे लाल नारायण सिन्हा से पिता जैसा स्नेह। धोखे में उनके बेटे को उनके ही दफ्तर में नहीं पहचानकर हड़का गया। वे भारत के मुख्य न्यायाधीश ललित मोहन शर्मा थे।
अन्य मामलों के अलावा गांधीवादी कार्यकर्ता हिमांशु कुमार और सुधा भारद्वाज के भी कारण छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट में जनहित याचिकाएं दाखिल कीं। मशहूर श्रमिक नेता शंकर गुहा नियोगी को राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम में निरोधित किया जाने पर राज्य सलाहकार बोर्ड के सदस्यों हाई कोर्ट जजों जगदीश शरण शर्मा और विपिनचंद्र वर्मा से उनके चेम्बर में घुसकर अपनी बात कह गया। समाजशास्त्र की प्राध्यापिका नंदिनी सुंदर से सलवा जुडूम वगैरह की याचिकाओं को लेकर बातचीत के बाद नंदिनी ने सीधे सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर जस्टिस सुदर्शन रेड्डी की बेंच से नागरिक अधिकारों का फैसला हासिल कर लिया।
डाॅ. राममोहन लोहिया ने वचन लेकर दिमाग में ठूंस दिया था कि अंगरेजी के प्राध्यापक और अंगरेजी जुबान में वकालत करने के बावजूद संविधान वगैरह पर हिन्दी ही हिन्दी में लिखें। शीर्ष विधिशास्त्री डाॅ.उपेन्द्र बख्शी और न्यायिक भीष्म पितामह जस्टिस कृष्ण अय्यर से बातचीत का परिचय रहा है। विख्यात लेखिका अरुंधति राॅय को ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन‘ के सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट से सजा होने पर लंबा लेख कड़ी भाषा में लिखा। हिन्दी में लिखने के कारण बच गया अवमानना कानून से। कभी वड़ोदरा में वहीं के मूल नागरिक रहे सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस पी. एन. भगवती के साथ कार्यक्रमों में शामिल हुआ। पितातुल्य स्नेह उमड़ता एक प्रमाणपत्र वाला पत्र मुझे मिला।
रायपुर के हिदायतुल्ला नेशनल लाॅ युनिवर्सिटी के सामान्य और कार्यपालिक परिषद के सदस्य जस्टिस एस. बी. सिन्हा ने संविधान पर ग्रेनविल आॅस्टिन को पढ़ लेने से संविधान की समझ मुनासिब संदर्भों में व्याख्यायित करते अच्छी जिरह के बिन्दु समेटे। छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में वकालत के दौरान चीफ जस्टिस अनंग कुमार पटनायक ने तंज किया हर बार सुप्रीम कोर्ट की नजीरें दिखाते हैं। क्या हाई कोर्टों ने अच्छे फैसले नहीं किए हैं। हाई कोर्टों के फैसलों के संबंध में धारणा बदल गई। उन्होंने मेरी किताब ‘संविधान की पड़ताल‘ की भूमिका लिखी। उसके पहले ‘संविधान का सच‘ की भूमिका भारत के मुख्य न्यायाधीश रमेशचंद्र लाहोटी ने लिखी। उनसे भी सोहबतों में रहा जो वकील या जज नहीं रहे हैं लेकिन जिन्हें संविधान का विचारक समझना चाहिए। धर्मपाल, निर्मल वर्मा, गोविन्दचंद्र पांडे, नरेश मेहता, भवानीप्रसाद मिश्र, डाॅ. ब्रम्हदेव शर्मा, प्रभाष जोशी, माणिक सरकार, सीताराम येचुरी, दिलीप चित्रे और कई अन्य। विकासशील समाज अध्ययन पीठ के लिए छह खंडों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञान की एनसाइक्लोपीडिया में हिन्दी में लिखने के कारण सम्पादक मित्र अभयकुमार दुबे ने मेरी प्रविष्टियों को उत्साहजनक होकर छापा।
प्रशांत भूषण के अतिरिक्त सुप्रीम कोर्ट के ख्यातनाम वकीलों राजीव धवन, इंदिरा जयसिंह, दुष्यंत दवे, वृन्दा ग्रोवर, कोलिन गोन्जालविज, कामिनी जायसवाल वगैरह को नजदीक से देखता सुनता रहा हूं, अभिषेक मनु सिंघवी, कपिल सिब्बल, मुकुल रोहतगी, अरुण जेटली वगैरह के साथ साथ। कुछ नौजवान और अन्य वकीलों को जिज्ञासा से बाहर नहीं रखता। उनमें अनुपम गुप्ता, मनु सेबेस्टियन और गौतम भाटिया तथा ‘फ्रंटलाइन‘ के काॅलमों के कई बेहद ज़हीन लेखक शामिल हैं। ए.जी. नूरानी और फैजान मुस्तफा को खूब पढ़ना खूब अच्छा लगता है। चौथी किताब ‘संविधान और ‘हम भारत के लोग‘ कुछ महीनों में आधार प्रकाशन से आ रही है। कोशिश की है कबीर से कहूं कि ओढ़ी हुई चादर को त्यों की त्यों रखी है। लेकिन क्या करूं! वह चादर कुछ मैली कर दी है।
मेरी शुभ शकुन वाली नज़र तो गांधी, नेहरू और अंबेडकर के संवैधानिक ज्ञान के संदर्भ में सुकरात, प्लेटो और अरस्तू को तिकड़ी समझकर फड़कती रहती है। पूछता रहता हूं संविधान के सूर्य को असमंजस के अदालती झगड़ों के बादलों ने क्यों ढक रखा है? संविधान के निर्माता ‘हम भारत के लोग‘ जानते हैं सूर्य के चरित्र में ऊष्मा बरकरार है। कोई कहता रहे लेकिन बादलों से तो राडार नहीं छिपते तो सूर्य कैसे छिपेगा? अपनी असुरक्षा को लेकर न तो मुझमें कोई गर्व है और न ही कोई कोफ़्त। मुअक्किलों की सूची में मुख्य चुनाव आयुक्त जेम्स लिंगदोह से बात करना, जजों में सलवा जुडूम के लेखक जज सुदर्शन रेड्डी से उनके ही फैसलों पर बतियाना स्फुरणशील रहा है।
अंत में सच यही है कि यह एक बेहद औसत वकील का यह मुलजिम बयान है। वह जनता में फैल गए अपमान, असहायता, निराशा, पराजय और घबराहट को दूर करने कुछ नहीं कर पाया।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *