जातिपांत को तोड़ बुल्ला शाह ने दलित को बनाया मुरशद
गुरू ही होता है मौला, आशिक, रांझा, साजण और मालिक
जन-जन के कवि बन गये पंजाब के सूफी संत बुल्लाशाह
नबी के खानदान का लड़का जब अछूत अराई जाति के फकीर के चक्कर में पड़ा, तो विरोध तो होना ही था। लेकिन लड़के ने साफ ऐलान किया कि अगर किसी ने मुझे सैयद कहा तो वह जहन्नुम में जाएगा और अराई कहा तो सीधे स्वर्ग में झूला झूलेगा।
जेहड़ा सानूं सैयद आखें, दोजख मिले सजाइयां।
जो कोई सानूं, राई आखें, भिश्ती पींगा पाइयां।
नतीजा, खानदान से बेदखल कर दिया गया वह।
लेकिन उसे इसकी फिक्र ही कहां थी। वह तो अपने गुरू में अपना आशिक, रांझा, साजन ओर मालिक वगैरह सभी कुछ देखता था। बस गुरू के प्रति इसी भक्ति भाव ने उसे इतना महान बना दिया कि आज उनके साढ़े तीन सौ साल बाद भी उनके और उन पर बनाये गये मस्त गीत आधुनिक संगीत संग्रह की साइट यू-ट्यूब पर बेहिसाब हैं। पाकिस्तान का एक अंधा गायक जब उनके गीत अपने साथियों के साथ पारंपरिक आदिवासी वेशभूषा और पुराने वाद्य यंत्रों पर नाचते-गाते हैं तो देखने वाले झूम उठते हैं।
पांच नदियों वाले पंजाब की जमीन की सौंधी खुशबू में गूंजा सूफी भक्ति-परम्परा का एक ऐसा नाम, जो माटी पर ही मौजूद रहा लेकिन अपने नाम को फलक तक पहुंचा गया। यह थे भारतीय सन्त परम्परा के महान कवि बुल्ला शाह। पंजाब में जन्मे, पले, बढे लेकिन उनकी ख्याति पूरे देश में फैली।
बुल्ला या बुल्ले शाह का असली नाम था अब्दुल्ला शाह। लेकिन यह मशहूर हुए अपने मुरशद के दिये नाम पर। बुल्ला शाह का जन्म सन 1680 में गीलानियो में हुआ। इनके पिता शाह मुहम्मद मौलवी थे। अरबी, फारसी और कुरान शरीफ का उन्हें महारत थी। हालांकि रोजगार के लिए उन्हें परिवार सहित कसूर (पाकिस्तान) के दक्षिण पूर्व के करीब पांडो के भट्टिया नाम के गाँव में बसना पड़ा। तब बुल्ले शाह छह साल के थे। उनका पूरा जीवन कसूर में ही बीता। शाह मोहम्मद का बड़ा सम्मान था। पिता का प्रभाव बुल्ले शाह पर खूब पड़ा। उस्ताद थे मशहूर गुलाम मुर्तजा। अरबी, फारसी के साथ ही इस्लाम और सूफी धर्म ग्रंथों के गहरे जानकार। नतीजा, यह कि बुल्ला शाह को परमात्मा खोजने की जिद सवार हो गयी और यही जिद उन्हें तब के एक बड़े फकीर इनायत शाह के डेरे लाहौर ले आयी। मगर दिक्कत यह हुई कि वे निम्न जाति अराई से थे। पिता ने इस पर ऐतराज किया तो बुल्ले शाह ने बगावत कर दी। उन्होंने इस बारे में अपने परिवार के ऐतराज और अपने फैसले को इन पंक्तियों में जाहिर किया।
बुल्ले नूं समझावण आइयां, भैणा ते भरजाइयां।
मन्न लै बुल्लिआ साडा कहणा, छड दे पल्ला, राइयां।
आल नबी औलाद अली नूं, तूं क्यों लीकां लाइयां ?
मतलब कि तुम्हारा खानदान नबी से है और तुम अली के वंशज हो। ऐसे में अराई की शरण में जाने से लोकनिंदा होगी। मगर गुरू के लिए बुल्लाशाह से सब ठुकरा दिया।
बुल्ले शाह व उनके गुरु के सम्बन्धों को लेकर बहुत बातें हैं। किंवदंतियों में। लेकिन कई रोचक दास्तानें हैं जो गुरू-शिष्य के बीच आध्यात्मिक रिश्ते का ताना-बाना बुनती हैं। एक दिन बुल्ले ने मुरशद से कहा: मैं रब को पाना चाहता हूँ।
साईं फौरन बोले: बुल्लिहआ रब दा की पौणा, एधरों पुटणा ते ओधर लाउणा। दो टूक लफ्जों में गुरु ने चेले को रूहानियत का सार समझा दिया। बोले: मन को संसार से हटाओ, अल्लाह से जोड़ो। रब खुद ही मिल जाएगा। बुल्ले को सतगुरु मिला तो मनवा बेपरवाह हो गया। बेखुदी की सीमाएं खत्म।
एक बार बुल्ले ने मदीना में जियारत का मन बनाया। परंपरा के अनुसार इससे सीधे रसूल अल्लाह से भेंट होती है। मुरशद बोला: तीन दिन और ठहरो। बुल्ले शाह को तीसरे रात ही सपने में देखा कि हजरत रसूल के दाहिनी ओर मुरशद को बैठे देखा। बुल्ला ने नजरें झुका लीं। जब नजरें वापस उठीं तो बुल्ले को लगा कि रसूल और मुरशद की सूरत बिल्कुल एक जैसी है। वह पहचान ही नहीं पाया कि दोनों में से रसूल कौन है और मुरशद कौन। मन चंगा हुआ तो गंगा भी कठौती में ही समा गयी। मदीना जाने का इरादा छोड़कर गुरू में ही अल्लाह को देखना शुरू कर दिया। बुल्ला ने कहा:
हाजी लोक मक्के नूं जांदे, असां जाणा तख्त हजारे।
जित वल यार उसे वल काबा, भावें खोल किताबां चारे।
प्रेम मार्ग में छोटी सी भूल नाराजगी का कारण बन जाती है। बुल्ले शाह की किसी छोटी सी भूल से एक दिन उनका मुरशद नाराज हो गया। यह परीक्षा की घड़ी थी। बुल्ले शाह का बाग ही उजाड़ होने लगा। अलौकिक प्रकाश मिलने का स्रोत अंधेरे में और अब तक मिलीं खुशियां गम में बदल गयीं। यह भीषण संताप था। इतना ही नहीं, मुरशद ने उन्हें अपना डेरा छोड़ने का हुक्म दे दिया। विरह की आग में बुल्ले का बुलबुला फूटने लगा। तड़प उठी। उधर मुरशद तो चेले की परीक्षा ले रहा था। उसने जब देखा कि वियोग की आग में तप कर बुल्लाशाह खरा सोना बन चुका है तो उन्होंने उसे सीने से लगा लिया। बुल्ले शाह की अंतरात्मा एक नये अंदाज में सतगुरु की आत्मा के रंग में डूब गई। सारा क्लेष, भेद मिट गया। अपनी इस हालत को बुल्ला ने कुछ यूं व्यक्त किया है:
रांझा-रांझा करदी नी मैं आपे रांझा होई।
रांझा मैं विच मैं रांझे विच होर ख्याल न कोई।
बुल्ले शाह सन 1757 ईस्वी में अल्लाह को प्यारे हो गये। लेकिन जो भक्ति की जो अलौकिक लौ बुल्ला शाह ने जलायी, वह पंजाब में सूफी काव्य परम्परा में सर्वाधिक ऊंची मानी जाती है। बुल्ला के अलावा किसी अन्य सूफी ने अपने मुरशद के प्रति ऐसी श्रद्धा नहीं दिखायी। उन्होंने अपने गुरू को सजण, यार, साईं, आरिफ, रांझा, शौह आदि रौंद डाला और अल्लाह और रसूल की खोज अपने गुरू में ही की। ऐसी नजीर सूफी परम्परा में शायद ही कहीं और देखने को मिले।
बुल्ले शाह ने अपनी सारी बातें पंजाबी बोली और मुहावरों में ही कही। यह एक नया तरीका था। इस मायने में पंजाबी सूफियों ने नये आयाम स्थापित किये। उन लोगों ने न केवल विशुद्ध पंजाबी छवि को बरकरार रखा, बल्कि पंजाबियत व उसकी लोक संस्कृति को भी पूरी तरह सुरक्षित रखा। कहने वाले तो यहां तक कहते हैं कि यह रणनीति के तहत सूफी संतों ने किया। वजह यह कि लड़ाकू कौम माने जाने वाले पंजाबी लोगों के घावों पर मलहम लगाना भी सूफियों ने अपनी सबसे बड़ी जिम्मेदारी मानी। वे जानते थे कि इस तरह से ही वे पंजाबी जनमानस में अपनी जगह बना पायेंगे। पंजाबियों ने इस अंदाज का दिल खोल कर स्वागत किया। आखिर लड़ाकू कौम को भी तो शांति और तसल्ली चाहिए थी। बुल्ले शाह की बातें काफियों के तौर पर हैं। हिन्दी पदों से मिलता-जुलता काव्य है। यह भी जाहिर है कि काफिया का तरीका तीखी बातें भी सीधे-सादे तौर पर दिलों में उतारी जा सकती थी। बुल्ला के काफियों में बहुत से रागों की बंदिशें भी हैं। अवाम ने भी फौरन ही इसे अपनाया और भक्ति की एक नयी अविरल धारा बह निकली। बुल्ला के काफियों में अरबी, फारसी के शब्द और इस्लामी धर्म ग्रंथों के मुहावरे भी खूब हैं। लेकिन भरमार तो उसमें स्थानीय बोली, मुहावरे और सद्भाव के रंगों की है।
लेखक कुमार सौवीर जाने-माने पत्रकार हैं। उनका यह लेख लखनऊ से प्रकाशित दैनिक जन संदेश टाइम्स में छप चुका है। वहीं से साभार लेकर इसे यहां प्रकाशित किया जा रहा है।