औरत: दावे आसमान पर, हकीकत रसातल में

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

स्‍त्री का आदर्श सीता-सावित्री नहीं, द्रौपदी है: लोहिया

यूपी और भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में बदहाली

अफगानिस्‍तान में होती है 80 फीसदी जबरिया शादी

हाल में महिलाओं की स्थिति को लेकर चौंकाता हुआ एक सर्वे प्रकाशित हुआ है, जिसमें बताया गया है कि अफगानिस्तान, कांगो, पाकिस्तान, भारत और सोमालिया में महिलाओं की हालत बहुत खराब है. इन देशों को महिलाओं के लिए खतरनाक भी बताया गया है. पहले स्थान पर अफगानिस्तान है, जहां 87 फीसदी महिलाएं निरक्षर हैं, और 80 फीसदी का विवाह जबरदस्ती कराया जाता है.

100 में से 11 की मौत प्रसवकाल के दौरान हो जाती है. दूसरे स्थान पर कांगो है, जहां हर साल चार लाख महिलाएं बलात्कार का शिकार होती हैं. तीसरे पायदान पर पाकिस्तान है, यहां भी महिलाओं की स्थिति बहुत खराब है. यहां हर साल एक हजार को ‘ऑनर किलिंग’ का शिकार होना पड़ता है. सोमालिया में भी महिलाएं निरक्षरता और बलात्कार की शिकार हैं. वहां उनकी स्वास्थ्य सेवाओं में भी भारी कमी है.

लेकिन विचित्र स्थिति तो भारत की है, जिसे चौथे स्थान पर रखा गया है. यहां भी महिलाएं मानव तस्करी, वेश्यावृत्ति, कन्या भ्रूण हत्या जैसी कुप्रथाओं और अपसंस्कृतियों का शिकार हैं, जिनके चलते पिछली शताब्‍दी में पांच करोड़ महिलाएं लापता हो गईं. सर्वे में आज की इस स्थिति पर भी चिंता जताई गई है. गौरतलब है कि ऐसा तब है जब कि देश की राष्ट्रपति, कई प्रदेशों की मुख्यमंत्री, जिनमें सबसे अधिक आबादी वाले सूबे की दलित मुख्यमंत्री भी शामिल हैं, देश की सबसे बड़ी पंचायत की अध्यक्ष, सदन में विपक्ष की नेता और केंद्र में सत्तारूढ विभिन्न पार्टियों के गठबंधन यूपीए की मुखिया और गठबंधन में सबसे बड़ी पार्टी की अध्यक्ष भी महिलाएं ही हैं. दरअसल, स्थितियों के इस द्वंद्व या विरोधाभास को अभिव्यक्त करती कई हालिया खबरें भी सर्वे के साथ ही सुर्खियां बनीं.

पहली है उत्तर प्रदेश में महिला मुख्यमंत्री मायावती के राज में महिलाओं पर अत्याचार की घटनाओं का लगातार बढ़ना. लखीमपुर खीरी के निघासन पुलिस स्टेशन में पिछली 10 जून को 14 साल की किशोरी का लटका हुआ शव मिलना ऐसी ही घटना है. इसे आत्महत्या बताकर पुलिस द्वारा मामले को रफा दफा करने की कोशिश जिसमें गलत मेडिकल रिपोर्ट भी शामिल है-  हमारी पूरी सामाजिक प्रशासनिक व्यवस्था की पोल खोलती है. बाद में मामले के तूल पकड़ने पर दूसरी मेडिकल रिपोर्टों में युवती के शरीर पर चोट के निशान और गला घोट कर उसकी हत्या की बात सामने आती है. तब कहीं जाकर जिले के पुलिस कप्तान समेत 12 पुलिसकर्मी निलंबित होते हैं. स्पष्ट है कि युवती के साथ दुराचार की आशंका भी है, जैसा कि उसके परिजनों का आरोप है. सवाल है कि ऐसे कितने मामले होते हैं, जिनके तूल पकड़ने पर फिर से मेडिकल होता है और फिर जनता और मीडिया के दबाव में कार्रवाई. प्रायः ऐसे मामलों को व्यवस्था के ठेकेदारों द्वारा रफा दफा कर दिया जाता है. अब इस मामले में किशोरी के परिजनों द्वारा सीबीआइ जांच की मांग पर मुख्यमंत्री मायावती द्वारा तर्क दिया जा रहा है कि सीबीआइ ने आरूषि हत्याकांड मामले में क्या किया? कुछ नहीं. प्रदेश में जांच सही दिशा में चल रही है. हांलाकि मायावती मामले के राजनीतिक नफे नुकसान को देखते हुए सीबीआइ जांच का विरोध कर रही हैं, लेकिन उनके तर्कों को एकदम से खारिज भी नहीं किया जा सकता है.  वजह ये है कि सीबीआइ भी तो हमारी इसी सामाजिक-प्रशासनिक व्यवस्था की ही पैदाइश है. राज्य पुलिस – सीआईडी हो या फिर सीबीआइ, सांपनाथ और नागनाथ का ही अंतर है.

तो ये है हमारे समाज का ताना बाना, जो दावा करता है विकास और प्रगति का, लेकिन उसकी कथित प्रगतिशीलता की पोल खुद उसकी दकियानूसी मानसिकता ही खोलती है.  उदाहरणार्थ कृपया गौर करें-  महाराष्ट्र के कोहापुर में पुरूष महिला अनुपात पर. यहां 2001 की जनगणना के हिसाब से यह अनुपात दुनिया भर की नजर में खतरनाक स्तर पर पहुंच गया. भारत में जहां एक हजार पुरूष पर 927 महिलाएं थीं, और महाराष्ट्र में महिलाओं की संख्या औसत से थोड़ी नीचे 913 थी, वहीं कोहापुर में यह संख्या 839 के खतरनाक स्तर पर पहुंच गईं. धर्म और परंपरा से बंधे समाज ने भ्रूण हत्या के उस योजनाबद्ध कृत्य को देखा, जब दोषी माता पिता हों या फिर इसे अंजाम देने वाला डॉक्टर, या फिर दोनों –  उनकी कथित समृद्धि या अमीरी पर कोई असर नहीं पड़ा, बल्कि यह बढ़ती ही रही. ये तो भला हो वहां के कर्तव्यनिष्ठ प्रशासन और समाज के जागरूक तबके का जिसकी पहल पर नियोजित हत्याकांड की इस प्रवृत्ति पर विराम लग सका. और संयोग देखिए कि महालक्ष्मी मंदिर के लिए दुनिया भर में विख्यात कोहापुर में लक्ष्मियों के इस संहार को रोकने की शुरुआत कोहापुर के कलेक्टर लक्ष्मीकांत देशमुख और उनके अमले की अगुवाई में ही हो सकी. और इसी का नतीजा रहा कि 2010 में यह लिंग अनुपात 839 से 876 पर पहुंच सका. स्पष्ट है कि हमारी व्यवस्था में सब कुछ सड़ गया हो या फिर सिर्फ बुराइयां ही हों, ऐसा नहीं है. अनेक अच्छाइयां भी हैं, जिनका अनुकरण ही जरूरी नहीं है, बल्कि अपेक्षित यह है कि उन्हें प्रोत्साहन भी दिया जाना चाहिए. इसमें कोहापुर का यह उदाहरण भी शामिल है.

दरअसल, दक्षिण एशिया में प्रभावी ऐसे नजरिये को प्रमुखता देती हाल में पाकिस्तान के मुख्तारन माई की खबर सुर्खियों में रही. राजस्थान की भंवरी देवी पर हुए अत्याचार से मिलती जुलती कहानी मुख्तारन की भी रही है.  वो भी सामूहिक बलात्कार, सामाजिक शोषण और कट्टरपन की शिकार रहीं, लेकिन न्याय की आकांक्षा में किए गये उसके संघर्ष को दुनिया में मान्यता मिली. उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित किया गया. लेकिन विडंम्‍बना देखिए! शोहरत हासिल कर चुकी मुख्तारन माई और उसके भाई ने हाल में पाकिस्तान की कबीलाई पंचायत के जरिए एक शर्मसार करने वाला फैसला सुनवा दिया. एक बलात्कारी युवक की बहन को पीडित युवती के पिता के हवाले करने के फरमान को आखिर और क्या कहा जा सकता है. और फिर मुख्तारन जैसी कट्टरपंथ से खुल कर लड़ने वाली बहादुर महिला से ऐसे फैसले की उम्मीद किसी को नहीं हो सकती.

दरअसल, हमारी पूरी सामाजिक व्यवस्था का सांस्कृतिक भार हमेशा से महिलाओं के कंधों पर ही रहा है. आज जागरूकता, शिक्षा के विस्तार, लोकतांत्रिक पहल के साथ ही सांस्कृतिक स्तर पर भी नई सोच की जरूरत है. एक और घटना की ओर ध्यान आकृष्ट करना चाहूंगा-  आज से लगभग 50 साल पहले डॉ. राममनोहर लोहिया से यूरोप में उनकी एक अंग्रेज महिला प्रशंसक अपनी बेटी के साथ मिलीं, और उन्होंने कह दिया कि, ‘लोहियाजी मेरी शादी न हुई होती तो मैं आपसे शादी कर लेती.’  इस पर लोग चौंके. लेकिन लोहिया ने मुस्कुरा कर कहा था- ‘कोई बात नहीं, अभी भी कुछ खास बिगड़ा नहीं है… तुम अपनी बेटी की शादी किसी नीग्रो से करना.’  दरअसल, यह उसी सांस्कृतिक दृष्टि को बदलने की बात है, जो महिला को हमेशा शोषित और उपेक्षित रखना चाहती है. और, शायद इसीलिए लोहिया ने जब नर-नारी समता का मुद्दा उठाया तो ये भी साफ कहा कि ”दुनिया भर की महिलाओं का आदर्श महाभारत की द्रौपदी ही हो सकती है, सीता या सावित्री नहीं. क्योंकि यह द्रौपदी ही थी, जिसने हमेशा पुरूषवादी मानसिकता के खिलाफ आवाज उठाई. उसने हमेशा अन्याय की मुखालिफत ही नहीं की, बल्कि पांचों पांडव पतियों को भी गलतियों पर कठघरे में खड़ा करने में कभी संकोच नहीं किया.”  लेकिन यहां पर ठहर कर ये विचार करना भी जरूरी है कि न्यायसम्मत, लोकतांत्रिक और विवेकी दृष्टि को भी इतनी मजबूती मिलने की जरूरत है कि मुख्तारन माई की तरह फिर से किसी को मजबूरी में उसी रुढि़वादी – कट्टरपंथ के रास्ते पर न चलना पडे़, जिसके विरोध की वो विश्व स्तर पर प्रतीक बन चुकी थी. इस बाबत भारत समेत अनेक देशों में बदलावकारी जम्हूरी पहल को बढ़ावा देने की ही जरूरत है.

लेखक गिरीश मिश्र लोकमत समाचार के संपादक हैं. उनका यह लिखा लोकमत समाचार में प्रकाशित हो चुका है, वहीं से साभार लेकर इसे यहां प्रकाशित किया गया है.

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