ब्रिटिश लाइब्रेरी: बंदी की वजह तो नीरज था

दोलत्ती

: किताबें चुराना उसका खास शगल था, वाक्‍पटुता में बेमिसाल : कमलेश्‍वर को भी झांसा दे आया, एक पन्‍ने का संपादकीय लिख मारा :
कुमार सौवीर
लखनऊ : हाईकोर्ट के एक सीनियर एडवोकेट हैं आईबी सिंह, यानी इंद्रभूषण सिंह। आज उन्‍होंने लखनऊ से संबंं‍धित एक फेसबुक ग्रुप में अमेरिकन लाइब्रेरी के बारे में कुछ लिखा है। उसी के संदर्भ में मैं लखनऊ की लाइब्रेरियों में नीरज बख्‍शी और ब्रिटिश लाइब्रेरी को खोजने और उसके पन्‍ने पलटने लगा हूं। और आपको बता दूं कि अमेरिकन लाइब्रेरी के बारे में तो मुझे कोई याद नहीं है, लेकिन ब्रिटिश लाइब्रेरी से जुड़ा एक किस्सा खूब याद ही नहीं, संजोए आज भी हूं।
तो हुआ यह कि बावजूद इसके कि मुझे अंग्रेजी की किताबें बस हल्की-फुल्की ही समझ में आती हैं, लेकिन मेरे एक मित्र-कलंक मित्र के साथ मैं कई बार ब्रिटिश इंग्लिश लाइब्रेरी जा चुका था। वो पढ़ते थे, और मैं वहां पढ़ते, आते, जाते लोगों को निहारा करता था। वहां आने वाली तितली-जैसी फुदकती युवतियों को खासी दिलचस्पी के साथ, लेकिन बेहद शालीनता के साथ। नीरज बख्‍शी किताबें खोजता था, जबकि मैं युवतियां निहारा करता था। जाहिर है कि तब की वे युवतियां आज बाकायदा अधेड़ महिलाएं बन कर अपने नाती-पोतों को सलीका सिखाती होंगी, मस्‍त होंगी, यादें में गुनमुन करती होंगी। खैर, उससे मुझे क्‍या लेनादेना। वह वक्‍त गया, उनसे जुड़ी यादें भी बीत गयीं। बात खत्‍तम।
यह 35 साल पहले का किस्सा है। और तब मैं जवान हुआ करता था, मसें भींग चुकी थीं। बल्‍ले फड़कने लगे थे।
उफ्फ, छोडि़ये भी उस किस्‍से को। वह तो मेरी निजी जिन्‍दगी के पुराने पन्‍ने भर हैं। न जाने कितनी बार नाजनीनों में मुझे दुलराया, ठुकराया, और, और, और….।
खैर, मेरे उस मित्र-कलंक का नाम था नीरज बख्शी। पिछले साल मई में उनका दुनियावी हिसाब-किताब चित्रगुप्त, अल्लाह के जिन्न और युहन्ना ने फाइनली कंप्लीट कर दिया, जब वो देवीपाटन मंदिर क्षेत्र वाले तुलसीपुर में 28 बरस से अकेले रह रहे थे। पांच साल से उनको दाहिने शरीर पर फालिज मार चुका था। लेकिन एक बात तो है ही, कि जीवट गजब था नीरज बख्‍शी में।
गजब किस्म की शख्सियत थी नीरज में। वाक्पटुता में भी बेमिसाल। एक बार मिल ले, तो अगला तब तक मुरीद ही बन जाता था, जब तक उसकी कलई न खुल जाए। और कलई तब ही खुलती थी, जब वह अपने शिकार को नाश्‍ता-भोजन के तौर पर कौर बना कर अपने गले के नीचे उतार न लेता था। वरना मजाक ही नहीं था कि वह शख्‍स कमलेश्वर को इतना प्रभावित कर गया कि उन्होंने नीरज पर पूरे एक पन्ने का संपादकीय लिख मारा था। नीरज पढ़ाकू भी था, बात-बात पर ऐसी-ऐसी बातें लिख मारता था, कि लोग दांतो तले उंगलियां काट लें।
लेकिन आदमी था बड़ा डिस्ट्रक्टिव।
न जाने कितनी किताबें के सहारे उसने कई लेख लिख मारे थे। इतना ही नहीं, किताबें चुराना उसका एक खास शगल था। सिर्फ मैं ही नहीं, उसके सारे परिचित और मित्र भी उसकी इस सफाई पर हैरत में पड़ जाते थे कि नीरज बख्‍शी ने आज फलां किताब पार कर ली। सिफत की बात तो यह है कि आज तक वह पकड़ा नहीं गया। आज तक से मेरा आशय उस वक्‍त तक का है, जब यह ब्रिटिश लाइब्रेरी को अंग्रेजी सरकार ने हमेशा-हमेशा के लिए बंद न कर दिया।
पिछले साल मैं तुलसीपुर गया था। खास तौर पर उससे मिलने ही। भेंट में अपनी संतुलित हंसी के बीच उसने अपने कई पुराने राज का पर्दाफाश किया, लेकिन उस पूरी चर्चा के दौरान उसमें एक बार भी ग्‍लानि का भाव हर्गिज नहीं था। अपनी बेटियों का मुंडन मैंने तुलसीपुर के देवीपाटन मंदिर में ही कराया था। और उन दोनों ही अवसरों पर नीरज बख्‍शी मौजूद ही नहीं रहा, बल्कि हाथ ही बंटाता रहा।
और अचानक उसकी मौत की खबर आयी।

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