बिहार के स्वास्थ्य मंत्री के पास है कोरोना का चमत्कारिक उपाय ?

दोलत्ती

: हालत भयावह है बिहार में : लाशों के साथ जिंदा मरीज भी वार्ड में ठूंसे गये : भतीजी संक्रमित तो सीएम आवास बना अस्‍पताल, हल्‍ला मचा तो आदेश ही वापस : कई डॉक्‍टर व गैर-डॉक्‍टर संक्रमित, विभिन्‍न संवर्गों में 66 फीसदी तक पद खाली :

दोलत्‍ती संवाददाता

लखनऊ और पटना : जरा बिहार के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय का ये ट्वीट देखिए और जानने की कोशिश कीजिये कि आखिर ऐसी कौन सी सरकारी व्यवस्था होती है, जिसके चलते कोरोना से संक्रमित मरीज ज्यादा तेजी से स्वस्थ हो सकते हैं! इतनी बड़ी जानकारी तो पूरे देश और दुनियाभर की अन्य सरकारों को भी बताई जानी चाहिए। बिहार के स्वास्थ्य मंत्री के दावों के आधार पर पूरे विश्व के वैज्ञानिकों को अनुसंधान करना चाहिए। बिहार में विपक्ष भले राजनीति कर रहा हो लेकिन सरकार की तरफ से राज्य के स्वास्थ्य मंत्री द्वारा सार्वजनिक रूप से इतना बड़ा दावा भी बिना आधार नहीं किया गया होगा!
क्या बिहार के स्वास्थ्य मंत्री ये कहना चाहते हैं कि बिहार में राज्य सरकार ने कोरोना से संक्रमित मरीजों को जल्दी स्वस्थ करने के किये कोई विशेष तरीका या इलाज ढूंढ लिया है? क्या 12 करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले राज्य के स्वास्थ्य मंत्री को ये भी मालूम नहीं कि बिहार जैसे राज्यों में मरीजों के जल्दी स्वस्थ होने के पीछे उनकी अपनी शारीरिक इम्यूनिटी (रोग प्रतिरोधक क्षमता) ही सबसे बड़ा कारण है! या फिर ये समझा जाए कि बिहार सरकार के स्वास्थ्य मंत्री अपने आधिकारिक ट्वीट के जरिये ये कहना चाह रहे हैं कि बिहार सरकार ने बिहार में कोरोना से निपटने के लिए ऐसी अद्भुत और चमत्कारिक व्यवस्था की है कि जिससे यहां के लोगों की इम्यूनिटी इतनी बढ़ जा रही है कि लोग जल्दी ठीक हो जा रहे हैं।
अभी 2 दिन पहले ही बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के आधिकारिक आवास पर उनकी भतीजी के कोरोना संक्रमित पाए जाने के बाद वेंटिलेटर के साथ 24 घंटे 2 फिजीशियन, 2 निश्चेतना विशेषज्ञ और 3 नर्सों की ड्यूटी के साथ विशेष अस्पताल बनाने की खबर सामने आई थी। मीडिया और सोशल मीडिया में खबर फैलने के बाद विपक्ष के साथ-साथ आम जनता का विरोध देखते हुए पीएमसीएच के अधीक्षक द्वारा जारी आदेश को रद्द करना पड़ा। इसके पहले जब नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जेडीयू की ही लालू प्रसाद यादव की पार्टी के साथ गठबंधन रहते हुए सरकार थी, तब लालू यादव के सुपुत्र तेज प्रताप यादव ने भी खुद के स्वास्थ्य मंत्री रहते हुए सरकारी डॉक्टरों और अन्य सहायक कर्मचारियों की ड्यूटी लालू यादव के इलाज के लिए उनके सरकारी आवास पर लगा दी थी।
खैर, बिहार की वर्तमान स्थिति कोरोना को लेकर भयावह हो चुकी है और यह स्पष्ट मालूम पड़ने लगा है कि बिहार सरकार ने इससे निपटने के लिए अभी तक कोई वैकल्पिक योजना ठीक से नहीं बनाई है। कल ही पटना के कोविड-19 के इलाज के लिए डेडिकेटेड नालंदा मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल (एनएमसीएच) का एक वीडियो वायरल हुआ है जिसमें 2 दिन पहले कोरोना से मर चुके रोगियों के शवों के साथ दूसरे जीवित मरीजों को वार्ड में बिना किसी चिकित्सकीय सहायता के विवश होते देखा जा सकता है।
पटना के सूत्रों के मुताबिक बड़ी संख्या में चिकित्सक और अन्य चिकित्सा कर्मी भी कोरोना के संक्रमण के शिकार हुए हैं। बिहार भर में कुल पदों की उपलब्धता के मुकाबले महज 40 फीसदी पदों पर ही चिकित्सक कार्यरत हैं। नर्सिंग एवं सहायकों के भी करीब 66 और 33 फीसदी पर रिक्त हैं।
कायदे से स्वास्थ्य मंत्री को कोरोना से लड़ने की रणनीति पर बात रखनी चाहिए थी लेकिन उसकी जगह वे जनता को कुछ और ही समझाते नज़र आते रहते हैं। कोरोना संक्रमण बढ़ने की इस भयावह आशंका के बीच जनता को ये बताया जाना चाहिए था कि संक्रमितों के इलाज और चिकित्साकर्मियों के स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए सरकार आगे क्या करने जा रही है? अस्पतालों में पीपीई किट, मास्क समेत और कितने बेड तथा वेंटिलेटरों की व्यवस्था की जा रही है? ज़िला अस्पतालों और प्रखंड के रेफेरल अस्पतालों, स्वास्थ्य केंद्रों पर रोगियों के इलाज की क्या तैयारी है? टेस्टिंग की संख्या कब और कितनी संख्या तक बढ़ाई जाएगी?
यदि बिहार के मुख्यमंत्री, उप-मुख्यमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री आपस में तय करते हुए जिलेवार अस्पतालों और चिकित्सा व्यवस्था का क्रमिक मुआयना करते रहते तो कम से कम चिकित्सा व्यवस्था की हालत इतनी ज्यादा नहीं बिगड़ती। इस मामले में उत्तर प्रदेश जैसे बड़े पड़ोसी राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के काम करने के तरीके से भी बहुत कुछ सीखा जा सकता था लेकिन जब खुद अपनी पीठ ही थपथपानी हो तो कोई उम्मीद रखना भी बेमानी है। सरकारी अस्पतालों और बड़े चिकित्सकीय संस्थानों के अंदर से भी आपसी राजनीति, तालमेल और सरकार के उचित मार्गदर्शन की कमी की खबरें अंदरखाने सबको मालूम हैं लेकिन कोई इस पर खुलकर बोलना नहीं चाहता।
खुली हकीकत यह है कि 12 करोड़ से भी ज्यादा जनसंख्या वाले बिहार में अभी तक कोविड टेस्टिंग की संख्या प्रतिदिन 10 हजार से भी कम है। बावजूद इसके अब संक्रमितों की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है। यही कारण है कि मजबूरी में पटना, भागलपुर जैसे शहरों में फिर से लॉकडाउन की घोषणा करनी पड़ी है। ये आंकड़े सिर्फ सरकार की तरफ से जारी आधिकारिक टेस्टिंग वाले हैं, जबकि वास्तविकता में संक्रमण कितना ज्यादा फैल चुका है, इसका अनुमान लगाना मुमकिन नहीं। कहने को तो जिलों में टेस्टिंग के लिए ट्रू-नेट मशीनें पहुंचाई गई हैं लेकिन वे भी हर जगह और पूरी क्षमता से काम नहीं कर पा रही थीं। जबकि कायदे से इन मशीनों को बहुत पहले आ जाना चाहिए था। कहीं ऑपरेटर की दिक्कत तो कहीं वोल्टेज या दूसरी तकनीकी परेशानियों की बात सामने आई है। हालांकि, इन ट्रू-नेट मशीनों की वजह से टेस्टिंग में औसतन करीब 1500 टेस्ट प्रतिदिन ज्यादा होने लगे हैं, फिर भी टेस्टिंग की कुल संख्या बहुत ही ज्यादा कम है।
बिहार में आरटी-पीसीआर टेस्टिंग बढ़ाने के साथ ही तत्काल बड़े पैमाने पर रैपिड ऐंटीबॉडी टेस्टिंग भी होनी चाहिए। कई जगहों पर कुछ हफ्ते पहले पूल टेस्टिंग और बाद में रैंडम सैम्पलिंग की गई है लेकिन उसका दायरा बहुत सीमित रहा है और इलाका भी ज्यादातर शहरी ही रहा है। दूसरे राज्यों से मजदूरों के बिहार, यूपी जैसे अपने गृह राज्यों में वापसी को लेकर केन्द्र सरकार ने ही स्वीकार किया था कि जो मजदूर अपने गृह राज्यों में लौट रहे थे, उनमें से 30 प्रतिशत संक्रमित हो सकते हैं। (मीडिया रिपोर्टों से मिले अपुष्ट अनुमान के मुताबिक बिहार में करीब 30 से 35 लाख मजदूरों के वापस आने की खबर थी।)
बिहार के गांवों की असल हालत क्या है, इसकी पड़ताल भी बिना टेस्टिंग बढ़ाये नहीं की जा सकती। सभी क्वॉरंटीन केन्द्र भी 14 जून 2020 के बाद बन्द किये जा चुके हैं। हजारों मजदूर फिर से दूसरे राज्यों में जा चुके हैं, बाकी अभी भी जा रहे हैं।
8 जुलाई 2020 की शाम 4 बजे तक बिहार सरकार के स्वास्थ्य विभाग के मुताबिक अब तक बिहार में महज 2 लाख 75 हजार 554 लोगों का ही टेस्ट हुआ है। बिहार सरकार रोज के अपडेट में अब तक कितने संक्रमित मरीज ठीक हुए और बिहार के रिकवरी रेट का प्रतिशत कितना हुआ, इसी जानकारी पर ज्यादा जोर देकर अपनी पीठ खुद थपथपाने में लगी हुई है। अस्पष्ट या संदिग्ध कारणों से अचानक स्वास्थ्य विभाग के तत्पर और सक्रिय रहने वाकई वरिष्ठ आईएएस अधिकारी प्रधान सचिव संजय कुमार के तत्काल प्रभाव से दूसरे विभाग में स्थानांतरण के बाद नए प्रधान सचिव की कार्यशैली भी सुस्त मालूम देती है।
अब, जो कुछ भी हो रहा है उसकी जानकारी सीमित रूप से ही सामने आ पा रही है। रोज के टेस्टिंग के परिणाम भी देर से आ रहे हैं और अब 24 घंटों में सिर्फ 2 अपडेट दिए जाते हैं। टेस्टिंग बढ़ने की वजह से यदि सुविधा के लिहाज से सिर्फ 2 अपडेट जारी होते हैं तो गलत नहीं है लेकिन पहले और दूसरे अपडेट के बीच में ही पिछले 24 घंटों के आंकड़े घुसा दिए जाते हैं। जैसे यदि टेस्टिंग में मिले संक्रमितों का पहला आंकड़ा दिन में 11:00-12:00 बजे आता है और दूसरा आंकड़ा रात 8:00-9:00 बजे आता है और इन दोनों के बीच शाम 4:00 बजे पिछले 24 घंटों के अन्य आंकड़े घुसा दिए जाते हैं। कायदे से ये बीच वाले 4:00 बजे के आंकड़े सबसे आखिर में दिये जाने चाहिए। इससे समझने में सहूलियत और स्पष्टता होती है।
अभी के आंकड़ों के मुताबिक रिकवरी रेट ठीक है, यह बताना गलत नहीं है लेकिन सरकारी आंकड़ों के अनुसार मौजूदा संक्रमितों की संख्या के अलावा वास्तविकता में संक्रमित लोगों की संख्या कितनी होगी या हो सकती है, बिना टेस्टिंग बढ़ाये ये अंदाज लगाना सम्भव ही नहीं। संक्रमितों की संख्या की जानकारी बढ़ेगी तब रिकवरी रेट कितना होगा, ये भी मायने रखता है। वरना, कौन जाने सामान्य मृत्यु से मरे लोग जिनका अंतिम संस्कार हुआ या होगा, उनमें भी बड़ी संख्या कोविड संक्रमित लोगों की हो! ऐसे में रिकवरी रेट का प्रतिशत क्या हो जाएगा, सोचना चाहिए। ये भी सही है कि 100 प्रतिशत टेस्टिंग होना संभव नहीं लेकिन यहां तो करीब 100 दिनों के बाद भी 10 फीसदी आबादी तक का टेस्ट नहीं हो पाया।
गौरतलब है कि राज्य के स्वास्थ्य मंत्री करोड़ों लोगों की स्क्रीनिंग कई हफ्ते पहले ही पूरा होने के दावों का ट्वीट किए जा रहे थे। अगर, दावों के मुताबिक पूरे राज्य में हर व्यक्ति की स्क्रीनिंग सम्पन्न हो गयी (जो कि वास्तविकता में नहीं हुई क्योंकि सीमित संसाधनों में यह सम्भव नहीं) और अगर यही पैमाना भी है (जो कतई संतोषप्रद नहीं माना जा सकता) तो स्थिति ऐसी होनी ही नहीं चाहिए थी। सोचिये कि 25 मार्च 2020 को लॉकडाउन की शुरुआत से सवा 3 महीने बीत जाने के बाद तक कुल टेस्टिंग की यह संख्या और स्थिति क्या संकेत करते हैं? मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खुद करीब 90 दिनों के बाद विपक्ष के हो-हल्ला मचाने और मीडिया में सवाल उठने के बाद अपने आधिकारिक सरकारी बंगले से चंद मौकों के लिए बड़े विवश होकर बाहर निकले।
सूबे के मुख्यमंत्री को खुद के कोरोना से संक्रमित होने की इतनी चिंता है लेकिन राज्य की 12 करोड़ से भी ज्यादा की आबादी के संक्रमण की चिंता कौन करेगा? राजधानी पटना में ही हालत यह है कि कोविड के मरीजों को रखने के लिए जगह की कमी होने लगी है। बिहार के बाकी शहरों की हालत भी आगे और अधिक बुरी होने की पूरी आशंका है। शारीरिक दूरी, मास्क के प्रयोग से बिहार के अधिकांश राजनेता और आम जनता का जुड़ाव अब तक नहीं हो पा रहा। ज्यादातर लोग यही सोच रहे हैं कि कोरोना का संक्रमण उन्हें नहीं, दूसरों को होगा। शादी-विवाह, श्राद्ध आदि में भी लोग तय संख्या से कहीं अधिक संख्या में पहुंच रहे हैं। लोगों को सामाजिक बाध्यता अब भी विवश कर रही है। पटना के पालीगंज के विवाह की खबर और उसमें शामिल लोगों में से करीब 100 के कोरोना से संक्रमित हो जाने से पूरी घटना से बड़ा उदाहरण क्या होगा!
आधिकारिक रूप से सील किये गए कंटेन्मेंट जोन के लोग दूसरों के घर आ-जा रहे हैं, दूसरे इलाकों के लोग भी कंटेन्मेंट जोन में चले जाते हैं लेकिन कहने को सब सही है। प्रशासनिक अधिकारी इन इलाकों में गश्त भी करते हैं। फिर भी ये खबरें सामने आती रही हैं।
भारी बारिश की वजह से कई शहरों में जलजमाव इतना ज्यादा हो गया है कि लोगों के घरों के अंदर भी पानी लगा हुआ है। तमाम छोटे-बड़े नाले कबके ओवरफ्लो हो चुके हैं, या यूं कहिए कि सालों भर भरे ही रहते हैं। अब बरसात के पानी के साथ नाले का भी गंदा, बजबजाता पानी मिल जाने से स्थिति ऐसी हो चुकी है कि लोग कोरोना से बचने को अगर घर से न भी निकलें तो इस जलजमाव की वजह से कोरोना खुद उनके घरों और दरवाजों तक पहुंच जाएगा। ऐसी हालत में कोरोना के संक्रमण के और तेजी से फैलने एवं साथ ही अन्य बीमारियों के भी होने का अनुमान स्वाभाविक तौर पर भयावह लगता है। बिहार के लगभग सभी शहरों के नालों की पूरी व्यवस्था ध्वस्त होने से जमा हुए पानी की निकासी का भी कोई रास्ता नहीं है।
ये भी जानना जरूरी है कि बिहार सरकार के नगर विकास मंत्रालय से लेकर बिहार की तमाम नगर पालिकाओं और नगर निगमों की नाकामी बरसों से खुलेआम अलग मुंह चिढ़ाती आ रही है लेकिन बेसुध बिहार सरकार, इसके निकम्मे और सुस्त अधिकारी और इन नगर पालिकाओं और नगर निगमों के लापरवाह सदस्यों, अधिकारियों ने पूरे बिहार की स्थिति को नारकीय बना डाला है। जो बची-खुची कसर है, वह यहां की सतत विद्रोही मानसिकता की अति जागरुक जनता पूरी कर देती है लेकिन यदि व्यवस्था चुस्त हो, विकल्प दुरुस्त हो और लोगों में दंड का भय हो तो लोग सुधरने को विवश हो जाते हैं।
फिलहाल तो न व्यवस्था है और ना ही विकल्प! रही दंड की बात तो हां, इसकी कमी जब-तब जनता के प्रति मनमाने दंडों और डंडों से जरूर पूरी की जाती है। कभी पुलिस लोगों पर लाठी चलाती तो कभी पैसे उगाहती तो अक्सर बालू लदे या अन्य ट्रकों आदि से जबरन अवैध वसूली करती जरूर पाई जाती है। अवैध वसूली के नाम पर एकाध पुलिस वाले सस्पेंड होते हैं, कप्तान सीना फुलाये मीडिया को बाइट देते हैं और फोटो खिंचवाते हैं। फिर वही क्रम चलता रहता है।
कोढ़ में खाज यह कि इतनी बड़ी आपदा और अव्यवस्थाओं के साथ ही बिहार में अभी से ही बाढ़ का खतरा भी सिर पर मंडराने लगा है। ये हालत तो अभी जून का महीना खत्म होने तक की है। जुलाई, अगस्त की बारिश अभी बाकी है। इसके अलावा डेंगू, चिकनगुनिया जैसी बीमारियों की शुरुआत भी होने का समय आ चुका है। उन मरीजों का क्या होगा, भगवान ही जाने!
सोचिये, हमारी सरकारें किस प्राथमिकता के आधार पर काम कर रही हैं। इतनी सारी मुसीबतों के बावजूद राज्य की सभी राजनीतिक पार्टियां डिजिटल चुनाव प्रचार की तैयारियों में जुटने लगी हैं। बिहार के सत्ताधारी एनडीए गठबंधन में विशेष रूप से भाजपा के मंत्री, विधायक, नेता दूसरों के मुकाबले ज्यादा ही व्यस्त हैं। बिहार के साथ-साथ उन्हें प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी, उनके नेत्तृत्व वाली केन्द्र की सरकार के कार्यों के प्रचार और पार्टी के निर्देशों का पालन करते हुए बिहार के आसन्न चुनाव के लिये अभी से व्यस्त देखा जा सकता है।
अब ऐसे में अगर चुनाव की घोषणा हुई और संक्रमण यूं ही बढ़ता गया तो स्थानीय स्तरों पर विभिन्न पार्टियों के उम्मीदवारों, नेताओं, समर्थकों, कार्यकर्ताओं समेत चुनाव में खपने वाली पूरी मशीनरी, तमाम अन्य कर्मचारियों, पुलिस, सैन्य, अर्ध-सैनिक बलों, होमगार्ड के जवानों, आम नागरिकों और वोटरों तक में कितने संक्रमित होंगे, कितने सुरक्षित बचेंगे, इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा! लोग भले त्रस्त रहें, मरते रहें और व्यवस्थाएं ध्वस्त रहें फिर भी बिहार में चुनाव करवाना ही राजनेताओं की पहली प्राथमिकता है।

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