: खाटू और हैदरी निर्माण की जमीन पर ऐसे युवतियों का यह व्यवहार किसी को भी डरा सकता है : मैं भी एक पिता हूं, समझता हूं कि यह मसला गम्भीर है : विरोध, अशांत, असंतोष, अराजकता और आखिरकार अवसाद का ऐसा हर रास्ता हमेशा आत्मघाती ही होता है :
कुमार सौवीर
लखनऊ : एक बड़ा खाटूं-श्याम मंदिर बना दिया गया है लखनऊ में। बहुत पैसा लगा दिया डॉ दिनेश शर्मा ने अपने महापौर होने के दौरान। गोमती नदी के किनारे। न्यू हैदराबाद वाले बंधे पर, जहां पीएसी वाले तैराकी का अभ्यास करते हैं। खास कर मारवाडि़यों कहे जाने वाले राजस्थानी बनियों ने, जो लखनऊ में बसे हुए हैं। यह जाने-बिना कि पाली-मारवाड़ में रहने वालों को मारवाड़ी कहा जाता है, न कि पूरे राजस्थानी लोगों को। बहरहाल, उनका देखा-देखी अग्रवाल समेत पूरा बनिया-समुदाय इस खाटूं-श्याम मंदिर पर धन-वर्षा करने दौड़ पड़ा। जब भजन और नृत्य पर विश्व-गुरु बनने की दौड़ हो चुकी हो, तो ऐसी हालत में दिन-रात अजान पर लोगों को बुला कर उन्हें असली मुसलमानी होने का प्रमाण लाउडस्पीकर पर जारी करने वाले मुसलमान कैसे मौका चूकें। नतीजा यह हुआ कि मंदिर के सटी हुई एक मस्जिद भी बन गयी। नाम है हैदरी-मस्जिद।
अभी तीस बरस पहले तक इस बंधे पर शाम होते हुए लोगों की आमद-रफ्त खत्म हो जाती थी। न कोई मंदिर, श्रद्धालु या कोई अजानी-मुल्ला। लेकिन अब दिन-रात जमघट बना रहता है। अब यह अगर शोध और शर्म की बात है कि गोमती नदी के इस कैचमेंट एरिया के भीतर यह आलीशान मंदिर और अजीमुश्शन मस्जिद कैसे बन गया और किसने बनवाया। यानी यह सरकारी जमीन अब वह धार्मिक गतिविधियां फल-फूल रही हैं, जो बाद में या तो खाटू-श्याम से हुए रावण और फिर द्वापर में जरासंघ के वाले युद्ध के किस्से से प्रस्फुटित होने लगेंगे, या फिर इस्लाम का कोई बड़ा आला-आलिम मौला चूंकि अतीत में आया होगा जिसने इस मस्जिद को तामीर किया था, इसलिए मुसलमान वहां नमाज कर उस मौला की कदमबोसी के लिए वहां एकजुट होने लगे। यह फोटो मूल नहीं, प्रतीक है। काल्पनिक है।
बहरहाल, आज की चर्चा इस धर्म-स्थलों के बजाय उसके आसपास विकसित हो रही उस नयी संस्कृति पर है, जो हमारी नयी पीढ़ी को एक अजीबोगरीब मोड़ की ओर ले जा रही है, जिसका हश्र सोच कर भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इसका रास्ता अंतहीन पीड़ा से लिथड़ा पड़ा महसूस हो रहा है। जहां पूरा समाज ही सिसकता दिखायी पड़ेगा।
चाहे वह मस्जिद हो, या फिर मंदिर। सच बात तो यही है कि वहां लोग जुटाये जाते हैं, न कि लोगों को शांत क्षेत्र मुहैया कराने का दायित्व समझा जाता है। वजह सिर्फ इतनी ही है, अपने निष्ठुर स्वार्थों को मजबूत करना, भले ही किसी निर्दोष की मौत का बायस बन जाएं। खास कर नयी पीढ़ी के लिए।
इसके ठीक सामने एक रेस्टोरेंट बना है। चाय, टोस्ट और हल्का-फुल्का नाश्ते जैसा थोड़ा-बहुत भोजन-सामग्री है। सात-आठ मेज हैं, जिस पर कुलमिला कर करीब 25-तीस कुर्सियां हैं। बेहद सस्ती किस्म की कुर्सियां, बदहाल इतनी कि हल्का सा भी मोड़ आये तो एकाध पाया धंसक कर आपको मुंह के बल लिटा सकती है। दरअसल, यह रेस्टोरेंट के बजाय केवल सिगरेट-कैफे ज्यादा दिखता है। हर मेज पर एक माचिस है, और जहां-तहां फेंके गये सिगरेट के टुड्ढे बिखरे हैं।
इसी के एक कोने पर एक युवती बैठी है। उम्र होगी करीब 25-28 बरस की। एक्टिवा से आयी है वह, हेलमेट विहीन। कपड़े बहुत महंगे नहीं हैं, लेकिन फैशनेबुल जरूर हैं। चेहरा भी औसत से कम ही है, लेकिन स्टाइल बेहिसाब। हाथ पर एक महंगी सिगरेट की डिब्बी है। बायें पैर पर दाहिना पैर चढ़ा हुआ है। नये दौर की पैंट पहने है। जैसे आज दौर के वहाबी लोग अपनी सलवार टखने के ऊपर तक चढ़ा लेने में ही अपनी सारी मुसलमियत का इजहार मानने को इतिश्री मान लेते हैं। युवती के बायें पैर की एड़ी से ऊपर वह टोटका बंधा हुआ है, जो आजकल बहुतायत में दिखने वाले विश्वगुरू शैली वाला समाज में दिखायी पड़ने लगा है।
एक बेहद जरूरी काम के चलते मैं रंजीत के साथ कल पहुंचा। करीब 20 मिनट मैं यहां बैठा, और पाया कि इस पूरे दौरान उस युवती ने तीन सिगरेट सुलगायी और बड़े अंदाज में वह जितने भी ऐंगल्स में धुआं छोड़ सकती है, करती रही। मेरा अनुमान है कि यह प्रति सिगरेट की कीमत करीब 35-40 रुपये तो रही ही होगी। इस पूरे दौरान वह युवती किसी न किसी से लगातार फोन पर सक्रिय ही रही। लेकिन किसी भी किसी व्यक्ति के साथ बातचीत में उसके चेहरे पर न तो कोई हर्ष दिखा, न कोई उल्लास, और नहीं कोई आनंदातिरेक। वह न तो एक बार भी मुस्कुरायी और न ही उसने एक ठहाका ही लगाया। जबकि किसी एक के बार एक कई आये फोन पर वह सहज तो हो सकती थी, जो कि वह ऐसा नहीं कर रही थी। वह तो किसी की ठीक से प्रतीक्षा भी नहीं करती दिख रही थी। लेकिन उसका अंदाज इतना जरूर था कि वह किसी न किसी मसले पर असंतुष्ट है, क्षुब्ध है। इसके बावजूद उसका स्वर लाख कोशिश के बावजूद सुनायी नहीं पड़ा। हो सकता है कि वह नहीं चाहती रही हो कि उसकी बात किसी दूसरे के कानों तक पहुंच सके।
खैर, इस झंझट से हमें कोई मतलब नहीं है। यह उसका निजी मामला है कि वह इस दोपहर तीन बजे के आसपास कहां है, क्या कर रही है और किसकी बातचीत का मसला क्या है, उसकी दिशा क्या है और उसमें आनंद या उल्लास की हीनता होने का कारण क्या है। मैं भी एक पिता हूं और उस उम्र के बच्चों के पिता-समान व्यक्ति के तौर पर मैं समझ गया कि यह एक गम्भीर मसला है। घर से बाहर भी कोई युवती अगर हर्ष, प्रतीक्षा या आनंद की अनुभूति नहीं कर रही है तो यकीनन वहां एक भयावह संकट पैदा होने वाला है। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि महज बीस मिनट के वक्त में उसका तीन सिगरेट पी लेना साबित करता है कि वह बच्ची तनाव में है।
अब आखिरी बात, जो हमें डरा रही है। वह है असंतोष के बीच उसका लगातार सिगरेट पीते रहना। इस बात की व्याख्या तो मनोविज्ञानी लोग ही कर पायेंगे, लेकिन मैं साफ देख रहा हूं कि अगर उस बच्ची का तनाव कुछ और बढ़ा, तो वह समाधान के लिए नये रास्ता खोजने के बजाय पूरी तरह सिगरेट के साथ ही दीगर तनाव-ग्रस्त कर देने वाली प्रक्रियाओं की पाइप-लाइन में खुद को प्रवेश करा देगी। यहीं से विरोध, अशांत, असंतोष, अराजकता और आखिरकार अवसाद की ओर बढ़ने लगेगी। और यकीनन ऐसा हर रास्ता हमेशा आत्मघाती ही होता है।
देख लीजिए, कहीं आसपास-पड़ोस में ऐसे कोई बच्चे एकांगी तो नहीं दिखने लगे हैं। अगर ऐसा हो रहा है तो विश्वास मानिये कि आपकी जिम्मेदारी बढ़ने लगी है। समाज का हर ऐसा बच्चा आपका खुद का बच्चा है, इसलिए उसको देखने, समझने और उसे ऐन-केन-प्रकारेण वापस लाने की जिम्मेदारी आपकी भी है।