गर्भवती को अस्‍पताल दिलाना डिप्‍टी सीएम की पहल नहीं, दखल है

बिटिया खबर

: उपमुख्यमंत्री की ‘पहल’ लिखना शर्मनाक है, यह पहल नहीं, दखल है : अगर प्रसूति के लिए कोई महिला उपमुख्यमंत्री तक गुहार कर रही, तो कोरोना में इन जैसे अस्पतालों ने कितने गरीबों को निगल लिया होगा : सरकारी अस्‍पताल में अराजकता को सफलता बताया जागरण ने :

दीपक उमाशंकर यादव

मुम्‍बई : उत्तर प्रदेश में दैनिक जागरण की एक न्‍यूज क्लिप बड़ी तेजी से वायरल हो रही है। खबर के मुताबिक एक गर्भवती को प्रसव के लिए सरकारी अस्‍पताल में डॉक्‍टर, बेड या कोई दीगर सुविधा ही नहीं मिल पा रहा था। गर्भवती परेशान अपने तीमारदारों के साथ डीएम के घर पहुंची, तो किसी पत्रकार ने उस मुलाकात की घटना को प्रकाशित कर दिया। यह खबर जब स्‍वास्‍थ्‍य और चिकित्‍सा मंत्री ने देखी, तो मंत्री ने सीएमएस और सीएमओ को फोन किया। नतीजा यह हुआ कि गर्भवती को बिस्‍तर मिल गया। उसके बाद बच्‍चा भी सुरक्षित पैदा हो गया।
अब ये वायरल हो रही है या फिर उसे वायरल किया जा रहा है, पता नहीं। दरअसल खबर का शीर्षक है ‘उपमुख्यमंत्री की पहल पर भर्ती हुई गर्भवती, बेटे का नाम रखा ब्रजेश’। खबर को पढ़िए और फिर एक बार सोचिए कि इस खबर पर हमें उपमुख्यमंत्री के ऐक्शन पर खुश होने की जरूरत है या फिर लचर स्वास्थ्य-चिकित्‍सा व्यवस्था पर चिंता या उस पर शर्म करते हुए अपना सिर धुनने की जरूरत है। इस खबर को पढ़ने के बाद मैं जरा दुविधा में हूँ। पहली दुविधा पत्रकार महोदय के शीर्षक को लेकर है। शीर्षक में रिपोर्टर कह रहा है कि “उपमुख्यमंत्री की पहल पर हो पाया है यह काम”। मेरी अल्प समझ कहती है उपमुख्यमंत्री की पहल नहीं, दखल है। अगर पहल है तो चिंता और भी ज्यादा विकराल है। इसका अर्थ तो साफ है कि सवा पांच बरस तक योगी-सरकार में सिर्फ डिप्‍टी सीएम ही जागरुक हैं, लेकिन वे अपने अमले को जागरुक, संवेदनशील या जिम्‍मेदार नहीं बना पाये हैं। लेकिन हैरत की बात तो हमारे पत्रकारीय जगत में घुसे खतरनाक दीमकों की है, जो खुद को कुल-दीपक मान चुके हैं। दैनिक जागरण जैसे अखबारों के संपादक और उनके मालिक लोग जान भी नहीं पा रहे हैं कि जो भी गंदगी वे फेंक रहे हैं या उलीच रहे हैं, उसका कितना खामियाजा भाषा और पत्रकार-जगत को भुगतना होगा। 
उत्तर प्रदेश के 75 जिलों में हमीरपुर जैसा जिला काफी पिछड़ा माना जाता है। हमीरपुर के अस्पताल में गर्भवती महिला को भर्ती नहीं किया जाता है। नर्स, डॉक्टर, अस्पताल के मुख्य चिकित्सक, जिले का डीएम, तमाम प्रशासनिक अधिकारी, स्वास्थ्य सचिव, मंत्री का सचिव जैसे क्रम में सबसे अव्वल दर्जे से एक पायदान नीचे होता है प्रदेश का उपमुख्यमंत्री। अब सोचिए कि एक गरीब महिला को अपना बच्चा जनने के लिए सूबे में स्‍वास्‍थ्‍य और चिकित्‍सा विभाग के आला जिम्‍मेदार मंत्री तक से गुहार लगानी पड़ रही है, तो यह सिस्‍टम के फेल हो जाने का साफ संकेत है। गंभीरता से सोचिए, ये कोई खांसी, जुकाम, पेटदर्द जैसी समस्या नहीं है कि दवा या सीरप गटकने से ठीक हो जाएगी। प्रकृति का सबसे अटल नियम है। जीवन की उत्पत्ति का एक मात्र जरिया है किसी स्त्री के गर्भ से संतान का पैदा होना। इसे रोका नहीं जा सकता। उस गरीब के पास अपना बच्चा जनने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। और इसी के लिए सरकार टैक्स लेती है। इसी के लिए हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर पर भारी भरकम बजट बनता है। लेकिन उसके बाद भी उपमुख्यमंत्री की ‘पहल’ क्या ये शर्मनाक नहीं है? यानी सरकारी अस्‍पताल में निर्ममता को श्रेष्‍ठ सफलता बताया है दैनिक जागरण ने।
क्या हमारी बुनियादी समझ इतनी कमजोर हो चुकी है कि ये भी नहीं समझ पा रहे हैं कि क्या गुडवर्क और क्या बैडवर्क है? स्थानीय संवाददाता ने खबर लिखी, अखबार ने छाप दी। मंत्री की वाह-वाही हो गई, चेले चपाटों ने बल भर उसे शेयर कर डाला। पढ़ने वालों ने मान लिया कि फलां मंत्री जी भगवान स्वरूप हैं। वॉट्सऐप वायरल की इस होड़ में हम बुनियादी मुद्दों को कहीं पीछे छोड़ रहे हैं। क्या हमें इस मुद्दे पर बात नहीं करनी थी कि अगर प्रसूति के लिए किसी महिला को उपमुख्यमंत्री तक गुहार लगानी पड़ रही है तो कोरोना की लहरों में इन जैसे अस्पतालों ने कितने गरीबों को निगल लिया होगा? इस केस से ऐसा रवैया रखने वाले सरकारी डॉक्टरों पर सरकार ने सबक लेकर क्या ऐक्शन लिया? क्या अब हर गरीब को बच्चा प्लान करने से पहले उपमुख्यमंत्री को अवगत कराना होगा ताकि वो आसानी से बच्चा जन सके? क्यों आज भी हम बुनियादी जरूरतों के लिए रिफारिशों पर निर्भर हैं?
इसमें कोई दो राय नहीं है उपमुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक ने अच्‍छा काम किया है। लेकिन मंत्रियों को बदहाल हो चुके सिस्‍टम को सुधारने के लिए अधिकारियों को गंभीरता से जुटाने की जरूरत है ताकि सिस्टम के बुनियादी ढांचे को कम से कम इतना काबिल रखें कि छोटी-मोटी हर समस्या का समाधान करने के लिए अधीनस्‍थों को सेंसिटाइज किया जाए, उन्‍हें संवेदनशील बनाया जाए। हर बात के लिए आम आदमी को मंत्रियों की चौखट पर माथा न टेकना पड़े। मुझे निजी तौर पर लगता है कि हमें गलत पढ़ाया गया है कि भक्ति काल विक्रम संवत 1375 से 1700 तक था, दरअसल ये कभी खत्म हुआ ही नहीं बल्कि मौजूदा समय में और तेजी के साथ हिलोरे मार रहा है। बाकी आप देखिए और सोचिए कि आप भक्ति काल के आंदोलन में किस तरफ खड़े हैं।

(लेखक दीपक उमाशंकर यादव लखनऊ के रहने वाले हैं, और मुम्‍बई में जी-बिजनेस चैनल पर बड़े ओहदे पर काम कर रहे हैं। दीपक से उनके फोन 9699381133 पर सम्‍पर्क किया जा सकता है।)

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