औरंगजेब कुलबोरना था, अखिलेश कुलकलंक धोवक

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

: मुलायम, शिवपाल की खुशकिस्‍मती है कि अखिलेश का चरित्र औरंगजेब सा तनिक भी नहीं : शाहजहां को औरंगजेब ने जेल में सड़ा डाला था, जबकि मुलायम के पैर छूता है अखिलेश यादव : एक धार्मिक क्रूर-लम्‍पट औरंगजेब की तुलना अखिलेश से करना बेमानी होगी :

सिद्धार्थ राय शंकर

इलाहाबाद : औरंगजेब भाषण नही देता ,और सार्वजनिक तौर पर भावुक तथा रोता हुआ भाषण ! वह हत्याये करवाकर भी आह तक नही करता। भावुकता व सम्मान तो यह तो दारा-जफर और अखिलेश होने का सबूत है। औरंगजेब रूलाना-मारना और खत्म करना जानता था। चाचा तो छोड़िए अगर वह अपने अब्बा हूजूर का पैर छूने वाला होता तो शाहजहां को जेल मे बंद कर मरवा न देता।

जो लोग अखिलेश की तलना औरंगजेब से करने की मानसिकता लिए होते हैं वे एकतरह से वैसे ही हैं जो RSS की तुलना आएसआइएस और कमलेश तिवारी की तुलना लादेन तथा तोगड़िया की हाफिज सईद से करने का आपराधिक दुश्कृत्य करते हैं। ऐसे लोग मध्ययुगीन और इस्लामिक कट्टरपंथ को हल्का- डायलूट और सामान्यीकरण करके उसे कम हिंसक कम कमीना और कम बदमाश बताने की जुर्रत करते हैं। और आज अखिलेश ने जिस तरह से इस पर ‘मुल्ला’ नेताजी के सामने खुलकर नाराजगी व आपत्ति जताया है ,यह गौरतलब है,यानी अखिलेश को खुद को औरंगजेब कहा जाना बहुत बुरा लगा है।

वैसे भी अखिलेश नायक हैं ,औरंगजेब खलनायक । सिर्फ राजा बनने से कोई नायक नही होता,पिता के नाम को ,देश समाज के नाम को,मानवता के नाम को आगे बढाना ही आपको नायक बनाता है। औरंगजेब कुलबोरना था,अखिलेश कुलकलंक धोवक हैं। मुलायम सिंह के जातीय भ्रष्टाचार और सांप्रदायिक राजनीति को छोड़कर उन्होने विकास की राजनीति को अपनाया है, यह उनके नायकत्व की निशानी है। औरंगजेब ने तो उदारवाद, सर्वधर्मसभभाव और सहिष्णुता की अकबर शाहजहां की नीति को त्यागकर हिंसा दमन और मजहबी कट्परपंथ को आगे बढाया ,इसलिए वह इतिहास का खलनायक है। उससे अखिलेश की तुलना तो कोई साइड विलेन ही कर सकता है।

इसलिए अखिलेश की लड़ाई पिता से नही हैं पिता के दौर की राजनीति से है,पिता के गलतियो से दूर रहना ,उनकी अच्छाइयो को लेकर आगे बढना कोई अखिलेश से सीखे। इसलिए नेताजी यदि जाति के जननायक है।तो अखिलेश भविष्य के नेता हो सकते है। इसलिए नेताजी को अपने बेटे के साथ खड़ा होना चाहिए, पर उनके घुटने खत्म हो चुके हैं। वे साथ बैठ भर सकते हैं,किसी के साथ खड़े नही हो सकते।

इसलिए अखिलेश को पापा चाचा का पैर छूकर आशीर्वाद लेना चाहिए ,लेकिन राजनीति उन्हे अपने ढंग की करनी होगी। इसके लिए वे आज जहां खड़े हैं ,यदि अकेले भी चलना पड़े तो वे ही समाजवादी पार्टी बन सकते हैं, युवा समाजवादी लोग तो उनके पीछे खड़े होने को तैयार हैं। पर उन्हे छुटभैये गुंडो और लंपट ठेकेदारो से पार्टी को दूर रखना होगा ,नही तो उनमे से कल कौन डीपी यादव बन जाए कौन मुख्तार अंसारी यह उनके भी बस मे नही रहेगा। सो आकाश सामने है- कड़कती बिजली और घुमड़ते बादलो के साथ !

लेकिन वक्त उन्ही के हाथों मे होता है जो हिम्मत करता है, आज के भाषण से अखिलेश ने वह हिम्मत दिखा दी है। और अच्छे संस्कार भी। और कान्हा वाला खेल खेलना भी सीख गये हैं।

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